– आदित्य रहबर

Kahani: मैं कुछ भी पूरा नहीं बन पाया। कभी न साथ छोड़ने वाला अधूरापन मेरा सबसे अच्छा साथी बना। मैं उस अधूरेपन का भी पूरा साथ दे पाया, ऐसा कह पाना कठिन है। एक अच्छा बेटा बनना कभी नहीं आया मेरे हिस्से। अच्छा भाई हो पाने का दावा करते मुझे भय होता है। दोस्त कहलाने का अधिकार खो चुका हूं किसी का प्रेमी बना तो जरूर किंतु उसके हिस्से का प्रेम उसे दे पाया कि नहीं, इसका मूल्यांकन वही करेगी जिसे मैं थोड़ा बहुत भी मिला हूं। उम्मीद है नाराज़गी ही हाथ लगेगी।

हर सुबह उठता हूं और कुछ पूरा कर पाने की जद्दोजहद में वह दिन और वो काम अधूरा छोड़कर सबकुछ करता हूं जिन्हें दुनियावाले व्यर्थ समझते हैं। मैं यह कभी तय नहीं कर पाया कि मुझे फुर्सत के क्षण क्या करना है और मेरी व्यस्तताओं का घटक क्या होगा? मैं असमय, अनिर्धारित ट्रेन की तरह हूं जो चलता जा रही है सबको पासिंग देती बिना किसी डेस्टिनेशन की फिक्र किए। मानो जहां जाकर रुक जायेगी वही उसका गंतव्य होगा।

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स्वयं पर नियंत्रण नहीं रहा। मेरे हिस्से एक देह बची है और थोड़ी बहुत सूझ-बूझ जिससे इतना तय कर पा रहा हूं कि भूख लगने पर खा लेना चाहिए, प्यास लगने पर पी लेना चाहिए, किसी को रोता देखकर रो लेना चाहिए, कम से कम दुःखी तो हो ही लेना चाहिए और किसी के बात करने पर बात कर लेना चाहिए।

कुछ लोग हैं जिसने बातें करने की इच्छा बनी रहती है। ऐसा लगता है दिनचर्या का जरूरी हिस्सा हों। इन सबके इतर जीवन को जीने के कई बहाने हैं। जिनमें मैं आप को ज़िंदा पाता हूं। हर सुबह उठते ही मेरे ज़िंदा होने का एहसास होता है और मुझे लगता है कि मेरा होना तमाम निराशाओं, हताशाओं,आशाओं और उम्मीदों का समुच्चय है। जीवन कितना भी नीरस क्यों न लगे, मेरे हिस्से की खुशियां मुझसे नहीं छीन सकता। पाब्लो नेरुदा के शब्दों में कहूं तो –
“तुम रौंद सकते हो सभी फूलों को, मगर तुम बसंत को आने से नहीं रोक सकते।”

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