देश में विकास के सात दशक बाद भी कृषि का महत्व अपनी जगह कायम है क्योंकि अर्थव्यवस्था के अनेक क्षेत्रों को कच्चे माल की आपूर्ति इसी क्षेत्र से होती है। भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों को हालांकि दशकों पहले लाइसेंस राज से मुक्ति मिल गई, मगर कृषि का क्षेत्र 1991 के सुधार के राडार से दूर रहा। कृषि क्षेत्र में शिथिलता बनी रही। भारत की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि अधिकांश फसलें देश के किसी क्षेत्र विशेष व दूसरे हिस्सों में भी उगाई जाती हैं। फिर भी खाद्य तेल, दलहन और जल्द खराब होने वाले फल व सब्जियों की कमी की पूर्ति के लिए आयात पर निर्भर करना पड़ता है, क्योंकि सुधार के दौर में हरितक्रांति के उत्तर काल में इसे नजरंदाज कर दिया गया।
इसमें कोई दो राय नहीं कि कृषि की बुनियादी समस्याओं को दूर करने के लिए नवोन्मेष की आवश्यकता है जिसका असर अल्पकाल में दिखाई दे। वर्ष 2014 के बाद सरकार ने सुधार के कई कार्यक्रमों को लागू किया जिससे कृषि क्षेत्र की क्षमता का विकास हुआ है और आज यह क्षेत्र परिवर्तन के पथ पर अग्रसर है।
सुधार के संकेत
विगत सात साल के दौरान मौजूदा सरकार ने उत्पादन के बजाय किसानों की आमदनी बढ़ाने के कार्यक्रमों को ज्यादा प्रमुखता दी। मुख्य रूप से कृषि उपज की कीमत, बाजारों के एकीकरण, सुरक्षा की व्यवस्था और समावेशी विकास केंद्रित सुधार पर विशेष जोर दिया गया। फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में काफी बढ़ोतरी की गई है। इस समय विभिन्न फसलों का एमएसपी उनकी उत्पादन लागत का कम से कम डेढ़ गुना है। न सिर्फ एमएसपी में बढ़ोतरी हुई है बल्कि विगत सात साल में किसानों को एमएसपी के तौर पर किए गए भुगतान में भारी वृद्धि दर्ज की गई है। वर्ष 2013-14 से 2020-21 के दौरान एमएसपी के रूप में गेहूं के लिए किसानों को किए गए भुगतान में 121 फीसदी की वृद्धि हुई है जबकि चावल के लिए किए गए भुगतान में 170 फीसदी का इजाफा हुआ है।
इसे भी पढ़ें: शिक्षित कार्यकर्ता मिशन के लक्ष्यों को करेंगे पूरा
दलहन और कपास के मामले में यह राशि 2013-14 के क्रमशः 236 करोड़ रुपये और 90 करोड़ रुपये से बढ़कर क्रमशः 4,361 करोड़ और 28,760 करोड़ रुपये हो गई है। बीते सात साल में गेहूं और चावल के उत्पादन में जहां क्रमशः 13.89 फीसदी और 13.45 फीसदी की बढ़ोतरी हुई वहां केंद्रीय पूल के लिए गेहूं की खरीद में 63.38 फीसदी और चावल की खरीद में 55.40 फीसदी की वृद्धि हुई है। कुछ अन्य फसलों के संबंध में भी उत्पादन की तुलना में सरकारी खरीद की ऐसी ही प्रवृति पाई गई है। रबी विपणन वर्ष 2020-21 में सरकारी खरीद का लाभ पाने वाले किसानों की संख्या में 2019-20 के मुकाबले 20 फीसदी का इजाफा हुआ।
गौर करने की बात है कि वर्ष 2020-21 में सेंट्रल पूल के लिए पंजाब और हरियाणा से 87,690 करोड़ रुपये मूल्य के धान और गेहूं की खरीद की गई। एमएसपी (करदाताओं का पैसा) का भुगतान पहले आढ़तियों व बिचौलिये के खाते में किया जाता था, लेकिन अब सीधे किसानों के बैंक खाते में एमएसपी का हस्तांतरण होने लगा है।
बीते सात साल में विभिन्न फसलों के एमएसपी में 40 फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी करने के साथ-साथ कीमत स्थिरीकरण कोष के तहत TOP (टमाटर, ओनिअन पोटैटो) से लेकर TOTAL (जल्द खराब होने वाले कृषि उत्पाद) स्कीम, ऑपरेशन ग्रीन्स, PM-AASHA (प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान) के तहत आवंटन में वृद्धि की गई है। साथ ही, किसान रेल और कृषि उड़ान के जरिए कृषि उत्पादों का निर्बाध परिवहन आसान हो गया है। इन पहलों से किसानों को उचित व समतुल्य कीमत दिलाना, सुनिश्चित करने में काफी मदद मिली है।
किसनों को बेहतर दाम दिलान के साथ-साथ मौजूदा कीमत नीतियों के तहत पोषण और फसल विविधीकरण को भी बढ़ावा दिया जाता है। इस प्रकार, पोषक अनाजों के एमएसपी में काफी बढ़ोतरी की गई है ताकि इन फसलों की खेती को प्रोत्साहन मिले। साथ ही, एमएस स्वामीथन आयोग के सुझावों के अनुरूप विभिन्न बायोफोर्टिफायड फसलों को व्यावसायिक रूप से जारी किया गया है। इसके अलावा, क्षेत्रीय फसल योजना और उत्पत्ति स्थान आधारित फसल पैटर्न की पहचान करने और उसे आवश्यक प्रोत्साहन देने के प्रयास किए जा रहे हैं ताकि स्थानीय दुर्लभ संसाधनों का बेहतर लाभ उठाया जा सके और जलवायु परिवर्तन व प्राकृतिक आपदाओं से संबंधित प्रभावों को कम किया जा सके।
इसे भी पढ़ें: न्यू इंडिया के लिए जरूरी है ‘डिजिटल ट्रांसफॉर्मेशन’
‘एक जिला एक उत्पाद’ को प्रोत्साहन, राष्ट्रीय गोकुल मिशन, परंपरागत कृषि विकास योजना, केसर पार्क, कृषि के प्रति युवाओं को आकर्षित करना (एआरवाईए) और कृषक उत्पादक संगठन (एफपीओएस) जैसी योजनाएं उत्पति स्थान की संकल्पना के अनुरूप हैं। मृदा स्वास्थ्य कार्ड, नीम लेपित यूरिया, उर्वरक के लिए डीबीटी (सीधा लाभ हस्तांतरण) और नैनो तरल यूरिया जैसी पहलों का मकसद मृदा स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए उर्वरकों के संतुलित उपयोग और दक्षता प्रोत्साहन देना है।
आय समर्थन व सुरक्षा दायरा
बीते सात साल में केंद्रीय कृषि मंत्रालय का बजटीय आवंटन व खर्च में काफी बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2013-14 में मंत्रालय का बजट 27,040 करोड़ रुपये था जो 2021-22 में बढ़कर 1,31,531 करोड़ रुपये हो गया। किसानों को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाने के लिए, पीएम-किसान के साथ-साथ पेंशन स्कीम पीएम-किसान मान-धन योजना लागू की गई है। इसके अलावा, किसानों के सशक्तीकरण के लिए पीएम-कुसुम योजना लागू की गई है। देश के छोटे व सीमांत किसानों के लिए पीएम-किसान (प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि) योजना काफी मददगार साबित हुई है।
आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन के साथ-साथ नये कृषि कानून, कृषक उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून, 2020 और कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020 लाने के ऐतिहासिक कदम से कृषि के क्षेत्र में सामान्य व्यापार से कहीं ज्यादा तर्कसंगत विविधीकरण के साथ अहम बदलाव देखने को मिल सकता है।
कृषि उत्पादों के उदार व्यापार के लिए इससे पहले कोई कानून नहीं था। इसलिए इन कानूनों से कृषि के क्षेत्र में अरसे प्रतीक्षित विकास को रफ्तार मिलेगी और निवेश को बढ़ावा मिलने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में ऐतिहासिक बदलाव आएगा।
सतत समावेशी विकास
कुछ ऐसे क्षेत्रों व विषयों की सूची है जिन पर कानून बनाने या विनियमन की शक्ति सिर्फ केंद्र सरकार के पास नहीं है। हालांकि पिछले सात वर्षों में, केंद्र सरकार ने नीति आयोग की सक्रिय भागीदारी के साथ विविध मॉडल अधिनियम लाए हैं। मसलन, भूमि पट्टेदारी कानून 2016, एपीएलएम अधिनियम 2017, अनुबंध खेती अधिनियम 2018 व अन्य। इन कानूनों से राज्यों को कृषि व्यापार पर कानून बनाने व उसे विनियमित करने के लिए माॅडल फ्रेमवर्क की आवश्यकता के मद्देनजर राज्यों की मदद करने के लिए ये कानून बनाए गए।
कृषि उपज के बेहतर विपणन के लिए 10,000 एफपीओ की स्थापना को सक्रिय रूप प्रोत्साहन दिया जा रहा है। साथ ही, एग्री-मार्केट इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड के माध्यम से 22,000 ग्रामीण हाटों में मार्केटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर को बढ़ावा दिया जा रहा है जोकि एपीएमसी को सीधे तौर पर उपलब्ध होता है। कृषि से देश की 50 फीसदी से ज्यादा आबादी सीधे तौर पर जुड़ी हुई है इसलिए केंद्र सरकार कृषि सुधारों को सक्रियता के साथ लागू करने वाले राज्यों को उनके निष्पादन के आधार पर 45,000 करोड़ रुपये अनुदान देने पर विचार कर रही है।
बीते सात साल में सरकार ने बागवानी, डेयरी, मत्स्यपालन जैसे संबंधित क्षेत्रों में के विकास की पहचान की है जिसमें सालाना 4-10 फीसदी की सालाना वृद्धि दर्ज की गई है। इन क्षेत्रों का का उद्यम और उसका प्रबंधन मुख्य रूप से लघु व सीमांत समुदायों के हाथों में है उनको सरकार की तरफ से मदद मिल रही है और नए हस्तक्षेप का आगाज समावेशी विकास की पहचान है।
इसे भी पढ़ें: सनातन की पुनर्स्थापना का आंदोलन है संस्कृति पर्व
विगत सात साल में लाए गए सुधार से ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी कम करने और समृद्धि लाने की दिशा में प्रगति हुई है। इन सुधारों से कृषि के क्षेत्र अब अनुदान की जगह निवेश प्रेरित हो गया है, जहां उपभोक्तान्मुख उत्पादक और फैक्टरियों व विदेशी बाजारों के साथ अलग-अलग खेतों की नेटवर्किंग द्वारा संचालित मांग के अनुरूप आपूर्ति होने से आखिरकार नवोन्मेषी तंत्र विकसित होगा।
(लेखिका केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण राज्यमंत्री हैं)
(यह लेखक निजी विचार हैं)