Hridaynarayan Dixit
हृदयनारायण दीक्षित

शब्द सामाजिक संपदा हैं। हरेक भाषा में शब्द हैं। प्राचीन काल में शब्द बोले जाते थे। सुने जाते थे। तब लिपि की खोज नहीं हुई थी। बोले और सुने गए शब्द विशेष प्रकार की ध्वनि थे। शब्द किसी न किसी रूप के प्रतिनिधि होते हैं। शब्द शक्तिशाली होते हैं। प्रत्येक शब्द अर्थ धारण करता है। अर्थ की अभिव्यक्ति भी शब्दों से होती है। मनुष्य शब्दों का प्रयोग करते हैं। प्रयुक्त न होने वाले शब्द चलन से बाहर भी हो सकते हैं। ज्यादा प्रयुक्त होने वाले शब्द लम्बी यात्रा करते हैं। देश काल के प्रभाव में अर्थ भी बदल सकते हैं। कविता और अन्य सृजन शब्दों में होते हैं। शब्द बोले जाते थे, सुने जाते थे। फिर लिपि बनी उनका रूप बना। उनकी छपाई का ज्ञान विकसित हुआ। शब्द संचय पुस्तक बने। भाव संवेदन, विषाद प्रसाद और हर्ष उल्लास की अभिव्यक्ति बने शब्द। शब्द ज्ञान विज्ञान के साथ अपनी देशज सभ्यता संस्कृति भी लाते हैं।

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने अंग्रेजी के शब्द मैनिफेस्ट को ‘वर्ड ऑफ द ईयर‘ घोषित किया है। बताया गया है कि इस शब्द को कैम्ब्रिज डिक्शनरी में 1 लाख 30 हजार बार खोजा गया। भारत में ऐसे अनेक शब्द हैं जिनका प्रयोग बहुतायत से होता है। हिन्दी सिनेमा के संसार में ‘साजन‘ और ‘सावन‘ शब्दों का प्रयोग लाखों बार हुआ है। भोजपुरी में एक शब्द है ‘करेजहू‘। पिया शब्द भी पति या प्रेमी के लिए होता है। ऋग्वेद में सविता की स्तुति वाला गायत्री मंत्र है। लाखों बार पढ़ा गया है। अंग्रेजी का एक शब्द है फैंटसी। इसका मूल अर्थ है कई ध्वनियों का मिलना। यही जब सुन्दर का अनुभव देता है तब फैंटास्टिक। अर्थ बदलते हैं। इसका उदाहरण अथर्ववेद के भूमिसूक्त में है। वैदिक काल में विभिन्न उत्सवों के समय ग्राम मिलन होता था। भूमिसूक्त में इसके लिए संग्राम शब्द का प्रयोग होता था। अब संग्राम का अर्थ युद्ध हो गया है। कुछ शब्द लम्बी दूरी की यात्रा में थक जाते हैं।

विश्व शब्द आपूरित हैं। प्राचीन सभ्यताओं में शब्द भी प्राचीन होते हैं। दशो दिशाओं से गतिशील हैं शब्द। पूरब से आते शब्द पश्चिम से आते शब्दों से टकराते हैं, मिलते हैं। इसी तरह उत्तर दक्षिण सहित सभी दिशाओं से भी। भारतीय चिन्तन में आकाश का गुण शब्द कहा गया है। ऋग्वेद की अनुभूति में जीवन्त कविताएं परम व्योम में रहती हैं और जागृत चित्त में उतरने की कामना करती हैं। शब्द ध्वनि ऊर्जा हैं। पहले अरूप थे। सिर्फ बोले सुने जाते थे। वे संवेदन प्रकट करने का माध्यम थे। फिर हर्ष विषाद, क्रोध और बोध प्रकट करने का माध्यम बने। विश्व शब्द भंडार लगातार बढ़ रहा है। मुझे लगता है कि यह संसार शब्दों का ही मेला है। तत्सम्, तद्भव यहां मिलते हैं, छोटाई बड़ाई त्याग कर हरेक रूप के लिए शब्द। जितने रूप उतने शब्द। उससे भी ज्यादा शब्द।

शब्द ब्रह्म हैं। शब्दों से निर्मित वाक्यों से पुस्तकें बनती हैं। पुस्तकों को प्रणाम करना हमारी स्वाभाविकता है। यह प्रणाम प्रत्यक्ष रूप में शब्दों के प्रति है। अप्रत्यक्ष रूप में जीवन्त संवाद, रस प्रवाह के प्रति है और शब्द ब्रह्म के प्रति भी है। मेरा मन तार्किक है। संशयी भी है। पुस्तकें संशय और तर्क को और स्वस्थ करती हैं, बहुधा तर्क के परे भी ले जाती हैं। कुछ शब्दों के कई अर्थ होते हैं। शब्द का गर्भ बड़ा न्यारा है। वह अपने भीतर अर्थ पालता है। शब्द का अर्थ जड़ नहीं होता। उसका मूल है भाव। इसलिए शब्द का भावार्थ भी होता है। शब्द अपने अन्तस् में भावार्थ लेकर चलता है। अर्थहीन शब्दों का कोई उपयोग नहीं। वे निरर्थक हैं। पुस्तकें बड़ा काम करती हैं। शब्द उनके मन प्राण है, भाव उनकी आत्मा है और ज्ञान उनकी बुद्धि। वे प्राणवान हैं। जीवमान हैं। पतंजलि ने महाभाष्य में लिखा है कि एक ही शब्द, प्रयोग के अनुसार भिन्न भिन्न अर्थ देता है। उन्होंने शब्द प्रयोग में सावधान रहने का निर्देश दिया है।

भारतीय संस्कृति दर्शन में ओउम की महत्ता है। ओउम शब्द नहीं है। पतंजलि ने इसे अस्तित्व का नाम बताया है-तस्य वाचक प्रणवः कहा है। भिन्न भिन्न मतभिन्नता के बावजूद दर्शन में ओउम की महत्ता है। शब्द उगते हैं मनोभूमि पर। सुकुमार और काम्य कोमल पुष्प जैसे आकर्षक। मधुगंध उड़ेलते हैं और हृदय में पैठ जाते हैं। उन्होंने विचार धारण किया है। शब्द ब्रह्म कहे गये हैं। शब्द इस ब्रह्म को धारण करते हैं। ब्रह्म सदा रहता है, शब्द भी सदा रहते हैं। सृजन में ही मनुष्य का अमरत्व है। सतत् अध्ययन भी सृजन कर्म है। अध्ययन स्वयं के पुनर्सृजन की कार्रवाई है। शब्दों से बनी पुस्तकें हमारे पुनर्सृजन और पुनर्नवा गतिशीलता का उपकरण है। पढ़ना, सुनना, जानना, जाने हुए को बताना उपनिषद ऋषियों का आदेश है। नवसृजन के अवसर और इस अनुष्ठान का मंगल उपकरण हैं शब्द। मनुष्य शब्दों का उपयोग आजीवन करते हैं। यहाँ वस्तुओं से ज्यादा भावनाओं के लिए शब्द हैं। प्रेम भाव का शब्द प्रसार और प्रसाद अधिकाँश विश्व में है। मजेदार बात है कि भारत में क्रोध व्यक्त करने के लिए ठोस शब्द हैं। गाली भी शब्द सामथ्र्य के बिना असंभव। ज्यादातर गालियां बहिन बेटी व माता को चोट पहुंचाती हैं। यह उचित नहीं है। लड़ाई पुरुषों में और अपशब्द स्त्रियों के लिए कहना पाप है।

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शब्द प्रयोग में सतर्कता जरूरी है। शब्द जीवमान, मार्गदर्शक, पालक व पोषक हैं। पुस्तक का पाठ पर्याप्त नहीं। शब्द रस प्रवाह में बहने और आनंदित होने के लिए पुनर्पाठ जरूरी है। विश्व की सभी सभ्यताओं में पुस्तकों के आदर की परंपरा है। वेद, उपनिषद, रामायण और गीता आदि का आदर पुराना है। शब्द सबके हैं। वे सार्वजनिक संपदा हैं। लेकिन अर्थ अपने-अपने। शब्द की सामथ्र्य बड़ी है। प्रयोगकर्ता की सामथ्र्य शब्द का अर्थ खोलती है। साहित्यकार अनुभूति का मधुरस जोड़ते हैं। नया संसार गढ़ते हैं। पुस्तक रचनाकार के शब्द कौशल का परिणाम है। कागज का पुलिंदा नहीं। कालिदास, तुलसी, निराला, पीबी शैली आदि के शब्द ऐसे ही हैं। सम्यक शब्द प्रयोग के प्रभाव सारी दुनिया में देखे जाते हैं। गांधी की ‘हिन्द स्वराज’ (1909) के शब्द हमारे हृदय में पैठे थे। ‘हिन्द स्वराज’ गांधी की शब्द काया हैं।

शब्द काया पुस्तक के कारण अमर है और शरीर नश्वर। गांधी की देह नहीं रही, अक्षर देह अक्षर-अविनाशी है। मनुष्य मत्र्य है लेकिन मनुष्य सृजित शब्द संसार अमत्र्य है। क्षरणशील है और मृत्युबंधु। मनुष्य मरता ही है। लेकिन उसका सृजन अक्षर-अविनाशी है। मनुष्य का अनाशवान भाग अक्षर है, शेष देह क्षरणशील और नाशवान। अमरत्व प्राचीन प्यास है मनुष्य की। मनुष्य जानता है कि उसे मरना है, मृत्यु अवश्यंभावी है तो भी अमर होना चाहता है। अमर होने की लालसा कहां से आई? मृत्यु की धु्रव सत्यता के बावजूद ऐसी इच्छा का कारण एक ही जान पड़ता है कि मनुष्य के भीतर क्षर के साथ अक्षर तत्व भी है। क्षर जाता ही है और अक्षर तो अक्षर-अविनाशी है ही। शब्द अक्षरों का ही प्रेमपूर्ण संयोजन हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व पूर्व विधानसभा अध्यक्ष हैं।)

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