Arvind Sharma
अरविंद शर्मा ‘अजनबी’

( कलम )

कवि! तेरा क्या बिगड़ा है,
तू क्यों इतना हारा है?
क्यूँ हर बार विरह का गीत,
लिखता, कलम से सारा है?

क्यूँ न लिखता प्रेम कहानी,
क्यूँ न श्रृंगार सजाता है?
क्यूँ खुशियों से दूर सदा,
बस अश्कों को ही गाता है?

तेरी स्याही में क्यूँ इतना,
अंधेरा और उदासी है?
बोल, तेरे हृदय की कैसी,
यह अनबूझ कहानी है?

( कवि )

मेरी प्यारी कलम! क्या जाने,
तू अंतर का यह हाल?
जिसकी आँखों में काजल नहीं,
है बस आँसुओं का जाल।

तू कहती है श्रृंगार लिखूँ,
पर कहाँ से लाऊँ रंग?
जिसके जीवन में प्रीति नहीं,
जिसकी दुनिया हो जंग!

जिसने देखा ही नहीं जग में,
कभी भी सच्चा प्यार का मीत,
केवल लोगों की ठोकर खाई,
पाए केवल कड़वे गीत!

मुझको तो केवल दिया गया,
इस दुनिया से दर्द का दान,
मेरे अपने ही लोगों ने,
किया हर क्षण मेरा अपमान!

मैंने देखी है, अंधेरी रातें,
भोर नहीं पहचानता,
मेरा नाता है एकाकीपन से,
प्रीत नहीं मैं जानता।

तो फिर तू ही बता दे मुझको,
कैसे प्रेम पुकारूँ मैं?
जिसके जीवन में शहद नहीं,
ज़हर को कैसे उतारूँ मैं?

( कलम )

तो क्या, तू अब यही करेगा,
बस पीड़ा बाँटता जाएगा?
अपनी स्याही से क्या जग को,
बस विरह ही दिखलाएगा?

( कवि )

सच कहती है,अब यही है,
मेरे जीवन का सार,
मेरी कविता बस, टूटे दिल की,
सच्ची, गहरी हुंकार!

जो मेरे पास नहीं है,
मैं उस झूठ को क्यूँ रचूं?
मैं हूँ विरही, हूँ अकेला,
इस सत्य को ही तो रचूँ।

मेरी कलम! तू बस मेरा यह,
जीवन सच्चाई लिखती जा,
यही तो है श्रृंगार मेरा,
इस विरह को तुम भी जीती जा!

( कलम )

कवि! माना रात अँधेरी है,
पर भोर तो एक दिन आएगी,
माना जीवन है मरुथल सा,
पर नदिया तो बह जाएगी।

तू क्यों बंद किए बैठा है,
किवाड़ अपने प्राणों के?
क्यूँ कहता है, अब न बदलेंगे,
अक्षर तेरे गानों के?

क्या सच में इस जग में कोई,
प्रेम का सागर नहीं रहा?
तेरे हिस्से का स्नेह दीप,
क्या अब तक जला नहीं रहा?

मैं करूंगी इंतज़ार उस पल की,
जब प्रेम की वर्षा होगी,
तब मैं प्रेम गीत लिखूँगी,
जब तेरी आँखों में हर्षा होगी!

( कवि )

नादान! तेरा आशावाद है,
कोरी किताबी बातें,
मैंने काटी हैं पथरीली,
दुख कीअसंख्य रातें।

जो बीज कभी, बोया ही नहीं,
वह वृक्ष कहाँ से आएगा?
जिस दिल ने दर्द सहा है बस,
वह प्रेम कहाँ से पाएगा?

तू ही बता उस जीवन में,
जिसकी शुरुआत ही अश्रु से हो,
जहाँ हर सम्बन्ध दिखावा हो,
झूठे रिश्तों की खुश्बू हो,

कैसे मैं कल्पना कर लूँ,
उस मीठी मुस्कान की?
जब हर घड़ी गूँजती रहती,
पीड़ा इस इंसान की!

( कलम )

मत कह कवि! कि जीवन में,
कभी फूल खिलेंगे ही नहीं,
मत कह कि राहों में तेरे,
हमसफ़र मिलेंगे ही नहीं।

तू जिस सत्य को जीता है,
लिख दे उसको कागज़ पर,
मगर आगे की राह खुली है,
मन में उम्मीद तू कम न कर।

रख विश्वास अपनी किस्मत पर,
लेखनी पर और ईश्वर पर,
क्या पता! कोई किरण आ जाए,
तेरे मन के वीराने पर।

(कवि)

सुन मेरी प्यारी कलम!
मैं आज यह सत्य बतलाता हूँ,
मैं विरही हूँ, विरह को लिखता,
इस वचन को मैं दोहराता हूँ।

जिस दिन, जिस पल मेरा जीवन,
प्रेम को छू कर आएगा,
जब यह अधूरा मन मेरा,
सच्चा साथी को पाएगा।

तब बदलेगा स्याही का रंग,
यह काली नहीं रह जाएगी,
मैं श्रृंगार लिखूंगा! जीवन में,
हर गीत प्रेम बन जाएगी।

प्रेम, खुशी, श्रृंगार की गज़लें,
पाठक, श्रोतागण पाएंगे,
फिर मेरी कलम! तू देखना कैसे,
प्रेम के तार लिख जाएंगे!

मगर, जाने क्यों, यह अंतर्मन,
कहता है यह भ्रम है,
यह जीवन तो एक अनसुलझी,
अधूरी प्रेम कथा सी है।

नहीं लगता कि उस खुशी की,
कोई भी आहट आएगी,
मेरी किस्मत तो बस ऐसे ही,
अकेलेपन में चली जाएगी।

शायद मेरी नियति है,
पीड़ा का ही गीतकार बनूँ,
बस रोते हुए इस जग में,
दर्द का ही शिल्पकार बनूँ।

कलम- अगर यही सत्य है तेरा,
तो सत्य को ही तू पूजता चल,
मत डर, तेरी ईमानदारी ही,
तुझको नया पथ देगी कल।

जब तक प्रेम न हो जीवन में,
तब तक तू विरह को लिखना,
पर याद रखना, कवि! तू
झूठे किस्से कभी न गढना!

तेरी पीड़ा भी एक श्रृंगार है,
जो सच्चाई से भरा हुआ है,
तू लिख! तेरा यह दर्द भी,
जग को गहरा लग रहा है!

क्रमशः

इसे भी पढ़ें: थे गाँव हमारी पाठशाला

इसे भी पढ़ें: समझ कर चलो तुम

Spread the news