संसार प्रत्यक्ष है। संसार समझने के लिए प्रकृति-प्रदत्त पाँच इन्द्रियाँ है। आँख से देखते हैं, कानों से सुनते हैं। त्वचा से स्पर्श करते हैं। जीभ से स्वाद लेते हैं और नाक से सूंघते है। संक्षेप में रूप, रस, गंध, ध्वनि और स्वाद ही संसार समझने के उपकरण हैं। मन को इनका स्वामी बताया गया है। दृश्य पर मन न लगे तो देखना व्यर्थ हो जाता है। गीत-संगीत में मन न लगे तो सुनना बेकार। यही बात सभी इन्द्रियों पर लागू होती है। पढ़ता-सुनता आया हूँ कि इन्द्रियों से प्राप्त सूचना मस्तिष्क तक जाती है। मस्तिष्क निर्णय लेता है। मस्तिष्क में लाखों कोष हैं। इसमें अध्ययन-अनुभव के संग्रह हैं।
प्रकृति सुंदर संरचना है। इसके रहस्य जटिल हैं। मनुष्य की आंतरिक संरचना और भी जटिल है। मैं विद्यार्थी की तरह सत्य जानने का प्रयास करता हूँ, लेकिन निष्कर्षों के प्रति संशय बना रहता है। जीवन की लम्बाई व गहराई से अनुभव बढ़े हैं। लोभ घटे हैं। यश-लिप्सा बढ़ी है। राग बढ़ा है। द्वेष घटा है। क्या इसका कारण अनुभूतियाँ हैं? इसपर संशय है। मैं इस संशय का कारण जानना चाहता हूँ। प्रत्येक कार्य का कारण होता है। संशय का भी कारण होना चाहिए। संशय के कारण अनेक हैं, लेकिन मुख्य कारण सत्य के अनुसंधान में संशय का सदुपयोग करना है। संभवतः बढ़ी उम्र के कारण जीवन-वीणा के सुर गहन हुए हैं। गीत-संगीत आकर्षित करते हैं। संसार के प्रति आसक्ति घटी है। सुखद स्मृतियाँ न सोने देती हैं, न जागने। मन ही मन अपनी ही वाह-वाह करते हैं। कुछ मित्र हमारे लेख की प्रशंसा करते हैं। हम आनंदित होते हैं। इस लिप्सा का कारण समझ में नहीं आता। लाखों बार छपने के बाद भी यह तृष्णा वैसी ही क्यों है? मैं संशयी हूँ। अपना मत प्रसारित करने की इच्छा सब लोगों में होती है।
रेने डेकार्ट (1596-1650) प्रतिष्ठित बुद्धिवादी दार्शनिक थे। वे इन्द्रियों से प्राप्त अनुभव को वास्तविक ज्ञान नहीं मानते थे। उनके मतानुसार वास्तविक ज्ञान बुद्धि-प्रत्ययों (कंसेप्ट) से ही संभव है। मनुष्य की बुद्धि को कुछ सत्यों की जानकारी जन्म के साथ ही मिलती है। ऐसा कम या ज्यादा सभी मनुष्यों में होता है। जनचर्चा में इसे गॉड-गिफ्टेड कहा जाता है। डेकार्ट दर्शन में प्रभुत्व और परंपरा के विरोधी थे। उन्होंने दो धारणाओं की स्थापना की। पहली धारणा के अनुसार ”बुद्धि में यथार्थ-ज्ञान प्राप्त करने की अपूर्व क्षमता” है। दूसरी धारणा के अनुसार ”मनुष्य की बुद्धि में यथार्थ-ज्ञान को अयथार्थ से पृथक करने की कसौटी” भी है। उन्होंने बुद्धि की इन दोनों क्षमताओं को ”बुद्धि का स्वाभाविक प्रकाश” कहा है। डेकार्ट के अनुसार बुद्धि के दो कार्य हैं। उन्होंने पहले को ‘इन्ट्यूशन‘ कहा है। प्रयाग विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के अध्यक्ष डॉ. जगदीश श्रीवास्तव ने ‘इनट्यूशन‘ को हिन्दी में प्रतिभान कहा है। यह शब्द उचित भी है। भान आंतरिक अनुभव से प्राप्त ज्ञान है। उन्होंने प्रातिभान की परिभाषा भी की है, ”प्रतिभान से हमारा तात्पर्य इन्द्रियों के अस्थिर साक्ष्य से नहीं है और भ्रामक निर्णय से भी नहीं। प्रतिभान-धारणा विशुद्ध और सजग बुद्धि से प्राप्त होती है। तब संशय या अनिश्चितता नहीं रह जाती।” उन्होंने बुद्धि का दूसरा कार्य निगमन बताया है।
बुद्धि द्वारा किसी विषय पर खण्डशः विचार-निगमन होता है। यह शुद्ध बुद्धि से ही संभव है। बुद्धि विभिन्न कारणों से दोषपूर्ण भी हो सकती है। अंधविश्वास में बुद्धि शुद्ध नहीं रहती, तब बुद्धि निगमन का कार्य नहीं कर पाती। डेकार्ट के अनुसार बुद्धि को शुद्ध रखना, भ्रमों और पूर्वाग्रहों से मुक्त रखना निगमन के लिए आवश्यक है। इसके लिए उन्होंने ‘सुव्यवस्थित‘ संशय की जरूरत बताई है कि ”हमें अपने सभी मतों पर तब तक संशय करना चाहिए जब तक हम उनकी प्रामाणिकता के प्रति आश्वस्त न हों।” डेकार्ट का ‘संशय‘ ज्ञान का साधन है। ब्रिटिश दार्शनिक फ्रांसिस बेकन ने भी चिंतन को पूर्वाग्रहों से मुक्त रखने का विचार दिया है। अब मेरे मन में अपने संशय को लेकर भी संशय है कि विद्यार्थी-जीवन में ही मेरे चित्त में संशय का जन्म क्यों हुआ था?
पाश्चात्य दर्शन में बुद्धिवाद है। भारतीय चिंतन में बुद्धि की महत्ता है। यहाँ बुद्धि, साध्य नहीं है, ज्ञान-प्राप्ति का साधन है। गीता (2.39) में श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं, ”मैंने सांख्य (दर्शन) के अनुसार ज्ञान का विवेचन किया है, अब बुद्धि-योग बताता हूँ। सुनो। ऐसे ज्ञान से तुम कर्म बंधन से मुक्त हो जाओगे।” इस श्लोक में सांख्य का अर्थ ज्ञान-प्राप्ति की विश्लेषण पद्धति है। गीता का बुद्धियोग, डेकार्ट, स्पिनोजा आदि दार्शनिकों के बुद्धिवाद से उच्चतर है। गीता (10.10) में प्रसंग भक्ति का है। भक्ति में आस्था और विश्वास अपरिहार्य है। माना जाता है कि भक्ति की पूर्णता में आराध्य ईश्वर या भगवान की प्राप्ति संभव है। लेकिन गीता के इस श्लोक में प्रीतिपूर्वक सतत् भक्ति करने वाले को बुद्धि-योग की प्राप्ति होती है। ”सतत् युक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वम्।” यह श्लोक काफी रोचक है। यहाँ भक्ति का परिणाम भगवान का दर्शन नहीं, बुद्धि-योग है और बुद्धि-योग की यात्रा में तर्क-संशय की उपयोगिता है।
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प्रकृति को ध्यान से देखने का अपना आनंद है, लेकिन देखने और दर्शन करने में आधारभूत अंतर है। देखने का सामान्य उपकरण आँखें हैं। हम आँख से देखने के साथ सुनना, सूँघना, स्पर्श और स्वाद भी जोड़ सकते हैं। लेकिन दर्शन में ज्ञान-मीमांसा है, बुद्धि है। सोच-विचार की आगमन-निगमन-प्रणाली है। विवेचन है। तर्क-पद्धति है। अनुभवों से प्राप्त सत्य है और तथ्य भी है। विज्ञान द्वारा खोजे गए सूत्र व आविष्कार हैं। वैज्ञानिक सत्य प्रयोगसिद्ध भी हैं। दर्शन और विज्ञान, जिज्ञासा और तर्क को महत्व देते हैं। भारत में तीर्थ-यात्राएँ होती हैं। मंदिर और मूर्तियों के दर्शन की परंपरा है। हम मूर्ति और मंदिर देखते हैं लेकिन इस आस्तिक कर्म को दर्शन करना कहते हैं। मूर्ति को देखने और दर्शन करने में अंतर है। देखने में मूर्ति पत्थर या धातु है। लेकिन मूर्ति के भीतर देव का दर्शन करते हैं। भौतिक विज्ञान के पास ऐसी आस्तिकता का औचित्य नहीं है। दर्शन में भी इसका उत्तर नहीं है। यह भक्तिभाव का प्रभाव है और यह प्रभाव कमजोर नहीं होता। कमजोर होता तो प्रभावित कैसे करता? संशयी विद्यार्थी ऐसे प्रभावों का भी विवेचन करते हैं।
बुद्धि, ज्ञान का उपकरण है। बुद्धि के प्रयोग में समग्र दृष्टि का ही उपयोग है। ज्ञान-प्राप्ति के लिए अखण्ड और कुशाग्र बुद्धि जरूरी है। कुशाग्र का अर्थ कुश का अग्र या नुकीला भाग होता है। खंडित बुद्धि संसार को खण्डित, विभाजित देखती है। अखण्ड बुद्धि से प्राप्त ज्ञान भी अखण्ड होता है। अखण्ड और कुशाग्र बुद्धि के लिए गीता (2.41) में ‘व्यवसायात्मिका‘ और खण्डित बुद्धि के लिए ‘अव्यावसायिक‘ शब्द प्रयोग हुआ है, ”व्यवसाय-आत्मिक बुद्धि है। संसार में अनेक रूप हैं लेकिन अस्तित्व एक अखण्ड है। कुछ लोग रूपों में विभाजित अस्तित्व को विभक्त देखते हैं और शुद्ध बुद्धि वाले विभाजित प्रतीत होने वाले अस्तित्व को अखण्ड अविभाजित देखते हैं। गीता में अविभाजित देखने वाले को सही बताया गया है-यः पश्यति, सः पश्यति।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व पूर्व विधानसभा अध्यक्ष हैं।)
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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