Teacher Day: हमारे यहाँ चारों तरफ अनास्था का माहौल पनप रहा है। इसका असर शिक्षा पर भी पड़ा है। परिसरों में गुरु-शिष्य संबंध का घनत्व घट रहा है। उच्च शिक्षा की स्थिति बेहतर बनाने के लिए विशवविद्यालय अनुदान आयोग का गठन हुआ तो ज़रूर, पर आज कुलपति का दायित्व संभाल रहा व्यक्ति भी अपने पद की गरिमा के साथ न्याय नहीं करता। कुछ लोग जेल जा चुके हैं और कुछ जाने की राह पर हैं। अगर स्थिति यही रही, तो विश्वविद्यालय जैसी स्वायत्त संस्था की विश्वसनीयता संदेहास्पद होती चली जायेगी। आज शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का जितना प्रतिशत खर्च होना चाहिए, वो नहीं हो पा रहा है।
बकौल भारत सरकार के उच्च शिक्षा सचिव, अशोक ठाकुर, “शोध पर 0.8 % खर्च हो रहा है, जबकि कम-से-कम 2 % खर्च होना चाहिए। रक्षा और अन्य मंत्रालयों का बजट लम्बा-चौड़ा होता है, पर शिक्षा की अनदेखी होती है । समय पर प्राध्यापकों को वेतन नहीं मिलता, फलतः हड़ताली संस्कृति विकसित होती चली जा रही है, जिसका खामियाजा अन्ततः छात्रों को भुगतना पड़ता है। शिक्षा मंत्रालय की ज़गह भारत सरकार ने इसे मानव संसाधन विकास मंत्रालय कहना शुरु कर दिया है। ब्रिटेन में भी इसे ‘शिक्षा और कौशल मंत्रालय’ तथा ऑस्ट्रेलिया में ‘शिक्षा, रोज़गार व कार्यस्थल संबंध मंत्रालय’ कहा जाता है।
दुनिया में विद्यालय नहीं थे तब थे भारत में विश्वविद्यालय
जब पूरी दुनिया ने विद्यालय की कल्पना नहीं की थी, उस वक़्त हमारे यहाँ विश्वविद्यालय हुआ करते थे। विश्वस्तरीय नालंदा विश्वविद्यालय, तक्षशिला वि.वि. और विक्रमशिला वि.वि. की पावन धरती पर शिक्षा-व्यवस्था की विसंगतियाँ कहीं-न-कहीं बहुत कचोटती हैं। शिक्षा में जब सियासत की गैरज़रूरी घटिया दखलंदाजी बढ़ती है, तो बेवजह शिक्षा-जगत को शर्मसार होना पड़ता है।
बिहार में ऐसा ही हुआ
उच्च शिक्षा पर बहस तब बेमतलब लगने लगती है, जब यह तथ्य ज़ेहन में उभरता है कि चार साल पहले बिहार के विश्वविद्यालयों में एक ही जाति के छह कुलपति नियुक्त थे और इसके पीछे की कहानी सबको मालूम है। हर सियासतदां अपने इलाके के विवि में अपनी ही जाति का कुलपति नियुक्त करवाने के लिए पैरवी करता है। राज्यपाल जैसे वैधानिक व ज़िम्मेदार पद पर बैठे आदमी की इतनी किरकिरी पहले कभी नहीं हुई थी, जिनसे विधान पार्षद कुलपति पद की क़ीमत पूछकर उनके कुकृत्यों की विधानमंडल के संयुक्त सत्र में बखिया उधेड़ी हो। कुछ साल पहले पांडिचेरी के शिक्षा मंत्री के स्थान पर कोई अन्य विद्यार्थी उनके लिए माध्यमिक परीक्षा दे रहा था। ऐसे में उच्च शिक्षा में सुधार की संभावना को आघात लगता है।
राज्यों में सरकारें बदलती हैं, तो विभिन्न पार्टियाँ अपने एजेंडे के अनुसार विभिन्न पाठ्यक्रम भी बदलते हैं। ऐसे में विद्यार्थियों के सामने संकट पैदा होता है कि वो वामपंथ की ओर जाये या दक्षिणपंथ की ओर या किसी मध्यमार्ग की ओर। राजस्थान में जब एक खास दल की सरकार आती है, तो वहाँ इतिहास के पाठ्यक्रम में दो पन्ने जोड़ दिये जाते हैं और जब दूसरी पार्टी सत्ता संभालती है, तो उन दो पृष्ठों को फाड़कर हटा दिया जाता है। यह हमारे ऐतिहासिक तथ्यों के प्रस्तुतीकरण का दुर्भाग्यपूर्ण मौजूदा सच है।
धूल फांक रहीं सुधार कमेटियों की रिपोर्ट
उच्च शिक्षा में सुधार हेतु कोठारी आयोग, प्रोफेसर यशपाल कमिटि आदि का गठन हुआ, रिपोर्टें भी आयीं। 1986 ई. में रोजगारोन्मुखी नयी शिक्षा नीति भी लायी गयी, पर आज भी हम एक अदद मूल्यपरक शिक्षा-नीति की बाट जोह रहे हैं । नैसकॉम और मैकिन्से के ताज़ा शोध के मुताबिक मानविकी में 10 में एक और अभियंत्रण में डिग्री प्राप्त 4 में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं। राष्ट्रीय मूल्यांकन व प्रत्यायन परिषद् (नैक) का शोध बताता है कि इस देश के 90 फ़ीसदी कॉलेजों एवं 70 % विश्वविद्यालयों का स्तर बेहद कमज़ोर है । आज़ादी के पहले 50 सालों में 44 निजी संस्थानों को डीम्ड विवि का दर्जा मिला। पिछले 16 वर्षों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गयी। शिक्षा के वैश्वीकरण के इस दौर में महँगे कोचिंग संस्थान, किताबों की बढ़ती कीमत, डीम्ड वि.वि. और छात्रों में सिर्फ सरकारी नौकरी पाने की एक आम अवधारणा का पनपना आज की तारीख की अहम उच्च शैक्षिक चुनौतियाँ हैं।
गुणात्मक शिक्षा को अपनाना होगा
हमें गुणात्मक शिक्षा को अपनाना होगा, जिसमें नैतिकता का पुट हो। हमारे यहाँ तो विद्या खुद में ही एक अर्जन है, उसे अलग से भुनाने की ज़रूरत नहीं है । इस उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमें ‘स्व’ से अलग कर दिया है , खुद से संवाद की संभावना का लोप हो गया है और बाज़ार- निर्देशित-नियंत्रित-केंद्रित व्यवस्था ने शिक्षा को सबसे ज़्यादा लपेटा है। इस शिक्षा-पद्धति का जिस्म तो बुलंद है, पर रूह नासाज़ हो चली है। इस रूग्णात्मा की तीमारदारी के ठोस हल ज़ल्द ढूंढने होंगे। युवा पीढ़ी के अंदर की बेचैनी व छटपटाहट को समझते-परखते हुए उसे भटकाव से रोकना होगा।
उच्च शिक्षा की सर्वप्रमुख चुनौती है- सभी प्रदेशों में एक समान शिक्षा नीति का न होना। हालाँकि शिक्षा को समवर्ती सूची के अंतर्गत रखा गया है और राज्यों पर कोई भी पाठ्यक्रम केंद्र द्वारा थोपा नहीं जा सकता। पर, परस्पर समन्वय स्थापित कर एक सम्यक्, समावेशी, सुदृढ़, समग्र और संतुलित पाठ्यक्रम का ढाँचा सामने रखा जा सकता है। कई विद्वानों का तर्क है कि जब इस संप्रभु देश का राष्ट्रगान एक है, राष्ट्रीय गीत एक है, राष्ट्रीय चिह्न एक है, एक राष्ट्रीय पक्षी है, तो एक शिक्षा-पद्धति क्यों नहीं।
समाज के लिए रीढ़
उच्च शिक्षा किसी भी समाज के लिए रीढ़ सरीखी होती है। वह न केवल ज्ञान के संरक्षण और संवर्धन का कार्य करती है, बल्कि उन योग्यताओं और क्षमताओं के निर्माण का भी दायित्व निभाती है, जो समाज के संचालन के लिए अत्यावश्यक होती हैं। इस उद्देश्य से वह युवा वर्ग के साथ खास तौर पर सक्रिय रूप से जुड़ती है। ऐसे में समाज के हर वर्ग की अपेक्षा होती है कि वह उनके सपनों और महत्त्वाकांक्षाओं को फलीभूत करने का बीड़ा उठाए। ऐसे में विशिष्ट ज्ञान क्षेत्रों में उत्कृष्टता की ओर अग्रसर होते हुए भी उच्च शिक्षा के दायित्व और अनिवार्य सामाजिक सरोकार भी हैं, जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता।
सामाजिक संदर्भों की निर्णायक भूमिका
आज का यथार्थ यही है कि न केवल ज्ञान देने और पाने में बल्कि ज्ञान सृजन में भी सामाजिक संदर्भों की निर्णायक भूमिका होती जा रही है। आज का बदलता सामाजिक संदर्भ उच्च शिक्षा की पूरी प्रक्रिया को अनुबंधित किए जा रहा है और एक प्रकार के ‘फिल्टर’ का काम कर रहा है, जो तमाम चीजों को बाहर कर देता है। इसके फलस्वरूप उच्च शिक्षा की वरीयताएं और उसके आयोजन की पण्राली स्वायत्त या स्वाधीन न रह कर वर्तमान (और भविष्य के लिए कल्पित) सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक संदभरे से अनुशासित हो रही है और ऐसा करते हुए तरह तरह के समझौते भी करने पड़ते हैं। उच्च शिक्षा के साथ अनेक प्रयोग हो रहे हैं, जो उसकी प्रणाली, विषयवस्तु और उपादेयता को लेकर ही नहीं, उसकी प्रभाविकता को भी प्रश्न के घेरे में खड़े करते हैं।
नालंदा और तक्षशिला
भारत में जब उच्च शिक्षा केंद्रों की परंपरा की याद करते हैं, तो हमारे ध्यान में प्राचीन नालंदा और तक्षशिला के विविद्यालयों का नाम लिया जाता है, जहां प्राचीन काल में सचमुच विस्तरीय शिक्षा दी जाती थी। गुरुकुल, विश्वविद्यालय और ज्ञान के बिंब बड़े समृद्ध हैं। वेद, धर्मशास्त्र और स्मृतियां ही नहीं गणित, व्याकरण, न्याय, आयुर्वेद, वृक्षायुर्वेद, योग तथा दर्शन की विभिन्न शाखाओं में उपलब्ध ग्रंथों से शास्त्र-ज्ञान की गुणवत्ता और विस्तार की एक लंबी परंपरा का पता चलता है। परा और अपरा दोनों तरह की ज्ञान की विधाओं में अध्येताजनों की एक ही प्रार्थना थी: ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ गुरु का दायित्व था अज्ञान के अंधकार को दूर करने की व्यवस्था करना। संवाद वाली वाचिक परम्परा-जो अनुभव के प्रमाण पर जोर देती थी- के साथ जिस उच्च शिक्षा का विस्तार हुआ उसे मुक्ति देने वाली कहा गया ‘सा विद्या या विमुक्क्तये। वह अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष आदि विभिन्न क्लेशों से मुक्ति दिलाने वाली थी।
लोगों का यह विश्वास था कि वह कामधेनु सब कुछ सिद्ध कर सकती है। उपनिषदों में गुरु -शिष्य के बीच अनेक संवाद हैं, जो विवेक, कुशलता और सर्जनात्मकता के विभिन्न आयामों को उद्घाटित करते हैं। इस प्रक्रिया में शिक्षा एकांगी न होकर समग्रतामूलक थी। तर्क, प्रमाण, अनुभव और प्रयोग की पद्धति से शिक्षा दी जाती थी। शरीर, आत्मा, समाज सभी की ओर ध्यान दिया जा रहा था। पंचकोश वाले मनुष्य की सम्पूर्णता में चिंता की जा रही थी। शिक्षा संस्कार केंद्रित थी, जिसमें अवगुणों को दूर करना और गुणों का व्यक्ति के अंदर आधान करना ही प्रमुख उद्देश्य था।
कमजोर हो गयी विकसित और जांची परखी उच्च शिक्षा की परंपरा
ऐतिहासिक परिस्थितियों के चलते हमारी विकसित और जांची परखी उच्च शिक्षा की परंपरा कमजोर पड़ती गई और हम इनसे भौतिक और मानसिक रूप से दूर होते गए। उन्नीसवीं सदी के अंत में जिस उच्च शिक्षा की नई औपचारिक व्यवस्था आधुनिक विविद्यालयों के रूप में स्थापित हुई थी, वह अंग्रेजों की देन है, जो थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ अभी भी चल रही है. इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में जब हम विचार करते हैं, तो भारत में उच्च शिक्षा के उद्देश्यों, संस्थाओं, प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं में बड़ी विविधता पाते हैं, जिसमें शिक्षा के निकषों को लेकर अस्पष्टता आ गई है। ज्ञानवर्धन के स्थान पर आर्थिक सरोकारों की निर्णायक प्रधानता के फलस्वरूप हम एक जटिल स्थिति में पहुंच रहे हैं।
सामान्यजन की नजर में विद्या चाहे जो भी हो ‘अर्थकारी’ होनी चाहिए
सामान्यजन की नजर में विद्या चाहे जो भी हो ‘अर्थकारी’ होनी चाहिए। शिक्षा की एक अविचारित उदार किस्म की पण्राली अपनाई गई, जिसमें बहुत से युवा सिर्फ इसलिए शामिल होते हैं क्योंकि उनके सामने कोई विकल्प नहीं होता है। आज जिस रूप में उच्च शिक्षा का अधिकांश केंद्रों पर जो विकास हुआ है, उसे लेकर कई तरह की आशंकाएं व्यक्त की जाती रही हैं। साथ ही यह दबाव भी है कि आधार संरचना, अपेक्षित संसाधनों की अपर्याप्तता, उत्साह की कमी और व्यवस्था की सीमाओं और बाधा के बावजूद, किसी भी तरह शिक्षा को पटरी पर लाया जाए। उसे कैसे भी हो ज्ञान-सृजन की ओर उन्मुख, नवाचार को प्रोत्साहित करने वाली और सृजनशील बनाया जाए।
प्रासंगिकता, उपयोगिता और पद्धति पर सवाल
उच्च शिक्षा के प्रयोजनों और लक्ष्यों की ओर जब विचार करते हैं तो जो कुछ चल रहा है, उसे लेकर कई महत्त्वपूर्ण सवाल उसकी प्रासंगिकता, उपयोगिता और पद्धति को भी ले कर उठते हैं। उच्च शिक्षा में गुणवत्ता के बारे में उठने वाले प्रश्नों को समझने और गुणवत्ता को स्थापित करने के उपायों पर विचार करना, शिक्षा से जुड़े लोगों के लिए एक गंभीर चुनौती है। आज जब जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा युवा है, यह जरूरी हो गया है कि हम किस तरह युवा शक्ति को व्यक्तिगत कल्याण और राष्ट्र निर्माण की दृष्टि से समृद्ध बनाएं। उच्च शिक्षा में विविधता के लिए अवसर जुटाना आवश्यक है ताकि भिन्न प्रकार की प्रतिभाओं को विकसित होने का समुचित अवसर मिल सकें। इसके लिए चुने हुए केंद्रों को हर तरह की सुविधा मुहैया करानी होगी। साथ ही शिक्षा को संपादित करने की विधि या ‘पैडागोजी’ पर नए ढंग से विचार करना होगा, जिसमें सर्जनात्मकता पर बल हो। अभी तक जितने सुधार हुए हैं, वे सतही तौर पर ही हुए हैं और ज्यादातर जोर कर्मकांड पूरा करने पर रहा है।
हमने अपने यहां की परिस्थितियों का कोई ध्यान नहीं रखा और सेमेस्टर और सीबीसीएस व्यवस्थाओं को लागू किया। यह जांचने-देखने की बात है कि इन परिवर्तनों ने गुणवत्ता को किस तरह प्रभावित किया है। इसी तरह शिक्षा के माध्यम का प्रश्न भी खड़ा है। अंग्रेजी माध्यम से ज्ञान के प्रसार की अपनी सीमाएं हैं। इसके विकल्प के रूप में हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में शिक्षा के लिए अभी तक तैयारी नहीं हो सकी है। स्तरीय पाठ्यसामग्री का अभाव बना हुआ है और इन माध्यमों से निकालने वाले छात्रों का मूल्यांकन भी पूर्वाग्रह से होता है जिसके कारण उनके लिए जीविका के अवसरों की भी कमी रहती है। इन सबका तकाजा है कि उच्च शिक्षा को समर्थ, प्रभावी और विस्तरीय बनाने के प्रयास बहुआयामी होने चाहिए। परिस्थितियों का समुचित आकलन भी किया जाए।
उच्च शिक्षा की चुनौतिया
विश्व स्तरीय शिक्षण संस्थानों के सर्वेक्षण में भारत के विश्वविद्यालय,विश्व के दो सौ विश्वविद्यालयों में से प्रथम बीस की सूची में भी नहीं हैं। क्यों? इस प्रश्न का हमारे पास कोई तार्किक जबाब नहीं हैं। अगर हम इस सवाल के कुछ प्रमुख कारणों को देखें तो स्थिति शायद समझ में आए। अगर हम भारत के चुनिन्दा आई। आईटी विश्वविद्यालयों को छोड़ दे जो अपनी योग्यताओं के कारण विश्व पटल पर अपनी छाप छोड़ रहे हैं, लेकिन सुविधाओं के अभाव में इन संस्थानों के प्रतिभाशाली छात्र अपना देश छोड़ कर विदेशों में नौकरी के लिए जा रहे हैं।
नौ छात्रों में से एक छात्र ही कॉलेज पहुँच पाता
विद्यालयी पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक छात्र ही कॉलेज पहुँच पाता है। उच्च शिक्षा हेतु पंजीकरण कराने वालों का अनुपात हमारे यहाँ दुनिया में सबसे कम 11 % है, जबकि अमेरिका में यह 83 % है। इस अनुपात को 15 % तक ले जाने के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु भारत को 2,26,410 करोड़ रुपये का निवेश करना होगा, जबकि 11वीं योजना में इसके लिए केवल 77,933 करोड़ रुपये का ही प्रावधान किया गया था। उच्च शिक्षा की स्थिति बेहतर बनाने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उच्च शिक्षा के स्तर को बढ़ाने के लिए कई सराहनीय कदम भी उठाए, लेकिन दूरदर्शिता के अभाव में स्थिति वैसी की वैसी ही बनी रही। योजनाएँ बनाना और उनका पालन करवाना यूजीसी और सरकार का काम हैं पर सरकार अपने दायित्व का निर्वाह करने में निरंतर विफल साबित हुई। विसंगति का एक नमूना देखें –तकनीकी पाठ्यक्रम की शुरुआत तो हो गयी लेकिन शिक्षकों की कमी तथा बुनियादी सुविधाओं के घोर अभाव में पाठ्यक्रम भी समय से पूरा नहीं हो पा रहा हैं। इस समस्या से केवल तकनीकी के ही पाठ्यक्रम नहीं बल्कि मानविकी, विज्ञान के भी पाठ्यक्रम जूझ रहे हैं।
निष्पक्ष मूल्यांकन करना होगा
हमें इस तथ्य को भी याद रखना होगा कि विश्वविद्यालय केवल कुछ शैक्षणिक भवनों का समूह भर नहीं होता हैं,बल्कि वह एक ऐसा केंद्र हैं जहां विचार और चेतना की सीमा को गहन शोध, प्रयोग और विवेचना द्वारा हमेशा विस्तार देने का प्रयास किया जाता हैं। किसी भी शिक्षण संस्थान के मुख्यत: तीन अंग होते हैं- शिक्षक ,शिक्षार्थी और गैर शैक्षणिक कर्मचारी। किसी भी संस्थान की सफलता और विफलता इन्हीं पर निर्भर होती हैं। हमें इन कड़ियों की भूमिका का निष्पक्ष मूल्यांकन करना होगा तभी शिक्षा व्यवस्था मे व्यापक बदलाव आ पाएंगा। सबसे पहले शिक्षको की भूमिका की बात करें,शिक्षक ज्ञान के विकास और प्रसार के माध्यम से समाज को बेहतर बनाने का सामाजिक अभिकर्ता होता हैं। समस्या यह है कि शिक्षक समुदाय अपनी सामूहिक जिम्मेदारी अथवा कर्तव्यपरायणता से विमुख हो रहे हैं। इसका बड़ा कारण यह है कि अपने निर्धारित पेशे में अपेक्षित दक्षता प्राप्त करने पर भी उन्हें यह विश्वास नहीं रहता कि उनका हक उनकों मिलेगा।
अयोग्य लोगों को अब मिल रही तरजीह
आज जिस तरह का माहौल हैं उसमे कोई भी अध्यापक केवल अध्ययन-अध्यापन और अनुसंधान में दक्षता के आधार पर पदोन्नति के प्रति आश्वस्त नहीं रह पाता, और पाया यह जाता है कि नाकाबिल और अयोग्य व्यक्ति केवल जी हुज़ूरी और चाटुकारिता आदि के दम पर पदोन्नति और महत्वपूर्ण पदों को हासिल कर लेता हैं। इससे उच्च शिक्षा केन्द्रों में निराशा का माहौल उत्पन्न होता हैं। शिक्षण केन्द्रों पर मौजूद जड़ता और रचना विरोधी माहौल भी इस निराशा के लिए उतना ही जिम्मेदार हैं। शिक्षकों को केवल ऊँची तनख्वाह पाने वाले अनुपयोगी वर्ग के रूप देखा जाने लगा हैं। हमें इस स्थिति को बदलना होगा और इस अवांछित जड़ता को तोड़ना होगा तभी हम स्वस्थ शैक्षिक माहौल का निर्माण कर सकेंगे।
विद्यार्थिर्यों की स्थिति और भी विकट
विद्यार्थिर्यों की स्थिति और भी विकट हैं, लोकतान्त्रिक और समतावादी नारों के वावजूद प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा दुर्दशाग्रस्त है। सर्व शिक्षा अभियान और मिड-डे-मील की असफलता हम सभी के समक्ष हैं। सभी सरकारी और प्राइवेट स्कूल बच्चों के जेहन को कुंद कर रहें है साथ ही उनके भीतर मौजूद प्रश्नाकुलता को भी खत्म कर रहे हैं। इसी अधकचरी मनोदशा को ले कर वह उच्च शिक्षा में जाता हैं जहाँ प्रायः उसे यह भी नहीं मालूम रहता कि वह यह शिक्षा क्यों प्राप्त करना चाहता हैं। हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में वह किसी तरह उत्तीर्ण हो जाता हैं। कुछ छात्र समुचित तैयारी के साथ आते हैं पर इस निराशा भरे परिवेश में दम तोड़ देते हैं। यह निराशावादी माहौल उच्च शिक्षा केन्द्रों को विश्वस्तरीय स्थान दिलाने में असफल हो रहा हैं और उच्च शिक्षा केवल अर्द्धशिक्षित बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रही हैं।
विश्वविद्यालय का व्यवस्था तंत्र
इन सब के अलावा सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है विश्वविद्यालय का व्यवस्था तंत्र जो शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच की कड़ी हैं। इन्हें गैर शिक्षक कर्मचारी कहा जाता हैं ,ये एक तरह के नकारात्मकता के शिकार होते हैं जो इनकी कुंठा से जुड़ा हुआ हैं। गैर शैक्षणिक वर्ग के भीतर यह सोच काम करता हैं कि ये कही न कही से हीन हैं, इसलिये इनका रवैया शिक्षण और शिक्षक विरोधी हो जाता हैं। शिक्षा केन्द्रों को शिथिल करने में इनकी प्रमुख भूमिका होती हैं। ऐसे माहौल में हम मौलिक चिंतन और शोध की संभावना कैसे कर सकते हैं। ये शिक्षण संस्थानों की महत्वपूर्ण कड़ी हैं इसलिये इन्हें भी सकारात्मक भूमिका निभानी होगी।
उतर प्रदेश की दशा बहुत ख़राब
उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था में और शिक्षा के प्रति दृष्टि में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्कता है, ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकारें और शिक्षा-विशेषज्ञ अपेक्षित शैक्षणिक सुधारों की दिशा में ठोस कदम उठायेंगे। हमें मौजूदा शिक्षा प्रणाली को बदलना होंगा और रोजगारपरक शिक्षा और तकनीकी शिक्षा पर विशेष ध्यान देना होंगा। नैसकॉम और मैकिन्से के ताज़ा शोध के मुताबिक मानविकी में 10 में एक और अभियंत्रण में डिग्री प्राप्त 4 में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं। राष्ट्रीय मूल्यांकन व प्रत्यायन परिषद् (नैक) का शोध बताता है कि इस देश के 90 फ़ीसदी कॉलेजों एवं 70 % विश्वविद्यालयों का स्तर बेहद कमज़ोर है।
आज़ादी के पहले 50 सालों में 44 निजी संस्थानों को डीम्ड वि.वि. का दर्जा मिला। पिछले 16 वर्षों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गयी। शिक्षा के वैश्वीकरण के इस दौर में महँगे कोचिंग संस्थान, किताबों की बढ़ती कीमत, डीम्ड वि.वि. और छात्रों में सिर्फ सरकारी नौकरी पाने की एक आम अवधारणा का पनपना आज की तारीख की अहम उच्च शैक्षिक चुनौतियाँ हैं। उत्तर प्रदेश में शिक्षा संस्थाओ की कमी नहीं कही जा सकती लेकिन गुणवत्ता पर तो सोचना ही पड़ेगा। प्रदेश का कोई ऐसा विश्वविद्यालय नहीं जिसे राष्ट्रीय स्तर पर भी महत्व मिल रहा हो। इस बार की गुणवत्ता सूची में शामिल काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को अलग कर के देखने की जरूरत है। प्रदेश के राज्य के अधीन संचालित होने वाले विश्वविद्यालयों और उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों की दिशा और दशा क्या है , इस पर तो अब सोचना ही होगा।
एक योयता, एक काम और वेतन में अतिशय भिन्नता
दरअसल उत्तर प्रदेश में शिक्षा के बंटाधार की मूल वजह पर कोई ध्यान नहीं दे रहा। सभी बाते तो बहुत करते हैं लेकिन यह कोई सोचने को तैयार नहीं कि निजीकरण की प्रवृत्ति ने आज शिक्षा को कहा लाकर खड़ा कर दिया है। लगता ही नहीं कि किसी सरकार को इसकी चिंता भी है। केवल प्राथमिक विद्यालयों की नेतागीरी, आंदोलन और अनुदान पर सभी बात करते है लेकिन उच्च शिक्षा की विसंगतियों पर कोई ध्यान नहीं देता। यह कितनी बड़ी विडम्बना है की उच्चशिक्षा के प्रवक्ता के रूप में विश्वविद्यालय और अनुदानित महाविद्यालय में नियुक्त शिक्षक 60 हज़ार वेतन पाता है लेकिन उसी की योग्यता और नियुक्ति प्रक्रिया से निजी महाविद्यालयों के शिक्षकों को तीन हज़ार से आठ हज़ार रुपये के वेतन पर उनसे ज्यादा कक्षाएं पढ़ानी पड़ती है। यह कौन सी व्यवस्था है भाई? प्रदेश में एक ही योग्यता और मानक वाले शिक्षकों के लिए इअतने अधिक प्रकार बना दिए गए हैं जिसके कारण उच्चशिक्षा की हालात बहुत ही खराब हो चुकी है।
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मसलन अनुदानित महाविद्यालय के शिक्षक। निजी महाविद्यालय के शिक्षक। विश्वविद्यालय के शिक्षक। स्ववित्तपोषित महाविद्यालय के शिक्षक। आखिर यह कौन सी व्यवस्था है जिसमे एक ही कार्य और एक ही योग्यता वाले शिक्षक अलग अलग वेतन पर नियुक्त किये जा रहे है और फिर इनसे उम्मीद की जा रही है कि इनके भरोसे उच्चशिक्षा की गुणवत्ता बढ़ेगी। इस व्यवस्था भला किस स्तर के शोध की उम्मीद सरकार कर रही है , यह समझ से परे है। जिस तरह से प्रदेश में निजी विश्वविद्यालय और निजी डिग्री कॉलेज खोले जा रहे हैं उनसे शिक्षा का कुछ भला होगा, यह सोचना भो बेमानी है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि ये महाविद्यालय शिक्षा देने के लिए नहीं बल्कि व्यावसायिक दूकान की तरह खुल रहे हैं। इनका उद्देश्य केवल प्रबंधको के लिए धन कमाना है न की शिक्षा का भला करना।
अकबर इलाहाबादी ने इसी स्थिति को देखते हुए बहुत सटीक बात कही हैं –
न पढ़ते तो खाते सौ तरह कमा कर
मारे गये हाय तालीम पाकर
न खेतों में रेहट चलाने के काबिल
न बाज़ार में माल ढोने के काबिल।
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