बृजेंद्र
खिल उठे हृदय का तंतु तंतु,
जग उठें शीत में सुप्त जंतु।
हँसती चहूं दिश होवे बयार,
स्वागत को हो ऋतुराज द्वार।।
जब रंगबिरंगी तितली बहकें,
विविध भांति चिड़िया चहकें।
जब भंवरों का गुंजन गमके,
बगिया बगिया पुष्पित महके।।
मानव मन हो जब प्रफुल्ल,
हो भाव चतुर्दिक देव तुल्य।
संस्कृति का हो उत्सवी रंग,
कुएं में हो मानो पड़ी भंग।।
फ़सलें होवें सब दुग्ध वन्त,
मंत्र मुग्ध हों ध्यानस्थ संत।
शीत ऋतु देवे सुखद अंत,
स्वागत है ऋतु राज बसंत।।
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