

चार महीना सुख से बीता,
घुसुड़ रजाई मा जग जीता।
इक-दूजे से लिपट-लिपटकर,
सोवा हम तो चिपक-चिपककर।
ऊ सुख अब तो मिलै न पाई,
मौसम दूसर आय रहा है।
सरवा जाड़ा जाय रहा है।
हफ्ता मा इक बार नहावा,
भोजन बना, तीन दिन खावा।
झाड़ू-पोंछा, चूल्हा-चौका,
पूरा जाड़ा फुरसत पावा।
रोज पछारौ कपड़ा अबि तौ,
झंझट फिर मुंह बाय रहा है।
सरवा जाड़ा जाय रहा है।
मच्छर, जाला, गर्द नसाने,
बैठ लड़ावैं गप्प फलाने।
दिन की धूप सुहानी लागै,
रात रजाई मा सुख जागै।
चार महीना मिला जौन सुख,
सपना बन ललचाय रहा है।
सरवा जाड़ा जाय रहा है।
आय रहा चुरने का मौसम,
मौत-बिना मरने का मौसम।
बिजली गायब, पानी गायब,
हाय-हाय करने का मौसम।
भोगै पड़ी नरक गरमी मा,
ई डर मन का खाय रहा है,
सरवा जाड़ा जाय रहा है।
जब देखौ तब आंधी आवै,
लू का डर दिन-रात सतावै।
अबि तौ कैद रहौ बसि घर मा,
ना कोउ आवै, ना कोउ जावै।
आसमान से गिरिहै आगी,
‘श्याम’ प्रलय अगियाय रहा है।
सरवा जाड़ा जाय रहा है।
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