Jagdeep Dhankhar: कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे (Mallikarjun Kharge) ने बुधवार को राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ (Jagdeep Dhankhar) के खिलाफ जमकर हमला बोला। अविश्वास प्रस्ताव के संदर्भ में खरगे ने कहा कि राज्यसभा के सभापति का आचरण पक्षपाती रहा है, और उनकी भूमिका राजनीति से परे होनी चाहिए थी। उन्होंने आरोप लगाया कि धनखड़ ने विपक्षी नेताओं के खिलाफ अपमानजनक रवैया अपनाया और सरकार की पक्षधरता में आकर सदन की कार्यवाही को प्रभावित किया है।

खरगे का कहना था, राज्यसभा में आजकल चर्चा कम, राजनीति ज्यादा हो रही है। उन्होंने यह भी कहा कि अगर कोई पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया गया है तो वह राज्यसभा के सभापति का ही है, जिन्होंने विपक्ष के नेताओं को बोलने का मौका कम दिया और अक्सर उन पर सख्ती दिखाई। उनका यह आरोप कि सभापति “सरकार के प्रवक्ता” के रूप में कार्य कर रहे हैं, राजनीति में एक नया मोड़ लाने वाला है। खरगे ने यह भी दावा किया कि साल 1952 के बाद से किसी भी उपराष्ट्रपति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाया गया था, क्योंकि पहले वे अपनी निष्पक्षता को बनाए रखते थे।

विपक्ष का एकजुट प्रयास, लेकिन संख्याबल में कमी

राज्यसभा में इस समय कुल 243 सदस्य हैं और सत्तारूढ़ गठबंधन एनडीए के पास बहुमत है, जिसके चलते विपक्ष के लिए अविश्वास प्रस्ताव को सफल बनाना एक बड़ी चुनौती है। विपक्षी दलों के नेता इस प्रस्ताव को लाने के लिए एकजुट हुए हैं, लेकिन उनके पास पर्याप्त संख्याबल नहीं है। विपक्षी दलों का आरोप है कि उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कई बार उनके खिलाफ पक्षपात किया है, और सदन की कार्यवाही में व्यवधान डालने का सबसे बड़ा कारण खुद सभापति का आचरण ही रहा है। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस (TMC), आम आदमी पार्टी (AAP), द्रविड़ मुनेत्र कडगम (DMK), समाजवादी पार्टी (SP), और झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) जैसे प्रमुख विपक्षी दलों ने मिलकर इस प्रस्ताव को समर्थन दिया है, हालांकि इस पर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व जैसे सोनिया गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे के हस्ताक्षर नहीं हैं। 60 सांसदों ने प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए हैं, लेकिन इनमें कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का नाम न होना एक दिलचस्प पहलू है।

क्या है उपराष्ट्रपति को हटाने की प्रक्रिया

संविधान के अनुच्छेद 67 के तहत, उपराष्ट्रपति को हटाने की प्रक्रिया आसान नहीं है। इसके लिए राज्यसभा में एक प्रस्ताव पारित किया जाता है, जिसे बहुमत से मंजूरी मिलनी चाहिए। इसके बाद लोकसभा की सहमति भी आवश्यक होती है। इसके अतिरिक्त, संविधान में यह भी प्रावधान है कि उपराष्ट्रपति के खिलाफ कोई प्रस्ताव लाने से पहले कम से कम 14 दिन का नोटिस देना होगा। इस नोटिस में यह भी स्पष्ट करना होगा कि प्रस्ताव क्यों लाया जा रहा है।

विपक्षी दलों का यह आरोप है कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कई मौकों पर सदन की कार्यवाही को प्रभावित किया है और विपक्षी नेताओं के बोलने के अधिकार को नकारा है। इस संदर्भ में उनकी निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं। विपक्षी नेताओं का कहना है कि यदि धनखड़ का आचरण इस तरह जारी रहा, तो इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संविधान की गरिमा को ठेस पहुंचेगी।

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राजनीति और सरकार के बीच की लकीर

विपक्ष के नेता यह भी मानते हैं कि राज्यसभा का सभापति किसी भी दल का सदस्य नहीं होना चाहिए और उसका कार्य निष्पक्ष रूप से सदन की कार्यवाही को चलाना होना चाहिए। लेकिन धनखड़ पर आरोप है कि वे सदन की कार्यवाही में विपक्षी दलों को निरंतर अपमानित करने और सत्तारूढ़ पार्टी की पक्षधरता दिखाने के लिए जाने जाते हैं। विपक्ष का यह भी कहना है कि अगर राज्यसभा का सभापति सरकार का प्रवक्ता बनकर काम करेगा तो यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक होगा, क्योंकि यह विपक्षी आवाजों को दबाने की कोशिश हो सकती है। सदन के वरिष्ठ सदस्य भी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि अगर इस तरह का रवैया जारी रहा तो संसद के दोनों सदनों में बहस और विचार-विमर्श का स्तर गिर जाएगा। यही नहीं, अगर पक्षपाती रवैया बढ़ता गया, तो इससे संसदीय लोकतंत्र की गरिमा को गहरी चोट लग सकती है।

यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या विपक्षी दल इस अविश्वास प्रस्ताव को राज्यसभा में सफल बनाने में सक्षम होते हैं या नहीं। वर्तमान में विपक्ष के पास बहुमत नहीं है, और इसे पारित करने के लिए उन्हें सत्तारूढ़ एनडीए के कुछ सांसदों का समर्थन भी चाहिए होगा। हालांकि, राजनीतिक समीकरणों के बीच यह एक कठिन चुनौती हो सकती है। यह घटना भारतीय राजनीति में उस समय हो रही है जब संसद में दोनों प्रमुख पक्षों के बीच आरोप-प्रत्यारोप की स्थिति बनी हुई है और संसदीय प्रक्रिया पर गहरे सवाल उठाए जा रहे हैं। इस पूरे घटनाक्रम को आगामी चुनावों से पहले एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा माना जा सकता है, जो विपक्षी दलों को एकजुट करने की एक नई कोशिश हो सकती है।

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