बाबर मूलत: उज्बेकिस्तान के अन्दीझान का रहने वाला था। उसका पूरा नाम जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर था। बचपन से उद्दण्ड और क्रूर स्वभाव का था। युवा अवस्था में छोटी से सेना खड़ी करके 1504 में काबुल पर धावा बोलकर उसे जीत लिया। फिर 1507 में कंधार जीत कर स्वयं को बादशाह घोषित कर लिया। 1519 से 1526 तक पाँच बार भारत पर धावा बोलने आया। 1526 में पानीपत के मैदान में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराया। 1527 में खानवा, 1528 में चन्देरी और 1529 में घग्गर का समर जीत कर भारत के अधिकांश भाग का शासक बन बैठा। बाबर और उसके बाद के वंशजों ने हिन्दुओं का जितना संहार किया उसकी संसार में कोई बराबरी नहीं है।
बाबर से लेकर अकबर तक जितने शासक हुए सभी ने हिन्दुओं के इस्लामीकरण और सनातन संस्कृति को नष्ट करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। बाबर से लेकर औरंगजेब तक मुगल काल में 48000 से अधिक देवी-देवताओं के मन्दिर ध्वस्त किये गये। यह अवधि 1526 से 1704 के बीच की है। औरंगजेब की मृत्यु 1704 में हुई। तब तक डेढ़ करोड़ से अधिक हिन्दुओं का वध इस्लाम के इन क्रूर शासकों द्वारा किया गया। संहार करने वाली मुगल सेना में सभी मुसलिम नहीं थे। बड़ी संख्या भारतीय सैनिकों की थी। जिन्हें मुगल भाड़े पर लेकर संहार कराते थे। हिन्दु समाज यदि अपनी इस विकृत्ति को समझ पाता तो इतनी भीषण हानि नहीं होती। सभी जानते हैं कि हिन्दु समाज की इसी विकृत्ति के कारण 1947 में विभाजन की भयानक विभीषिका का शिकार हिन्दुओं को बनाया गया। बंगाल से लेकर सिन्ध और पंजाब तक दसियों लाख हिन्दु समाज के लोग इस्लामी क्रूरता के शिकार हुए।
मुगल काल में भारतीय समाज का ढांचा बदलने का कुचक्र निरन्तर चलता रहा। एक शब्द है भंगी। यह शब्द मूलत: दारी भाषा का है। जोकि अफगानिस्तान में दारी और पश्तो भाषाओं में प्रचलन में रहा है। यह शब्द न तो हिन्दी का है और न ही संस्कृत का। फारसी भाषी ऐसे लोग भंगी शब्द का प्रयोग करते हैं जो दारी और फारसी दोनों बोलते हैं। अपगानिस्तान और उज्बेकिस्तान दोनों देशों में ऐसे लोग भंगी शब्द का प्रयोग करते हैं जो घुमन्तू आक्रान्ता रहे हैं। भंगी का अर्थ यह होता है कि जिसका वैभव छीन करके दास (गुलाम) बना लिया गया हो। ऐसे व्यक्ति के सामान्य नागरिक अधिकार छीन लिये जाते हैं। उसे समाज में किसी प्रकार सम्मान से रहने नहीं दिया जाता। भंगी को अपने कुनबे के अतिरिक्त किसी अन्य कुनबे अथवा समाज के अन्य लोगों के साथ व्यवहार करने की छूट नहीं दी जाती। बाबर जब भारत में आया और यहाँ के लोगों को परास्त करने लगा तो अनेक स्थानों पर उसकी सेना को छापामार युद्ध का सामना करना पड़ा।
मुगल सेना पर भारतीय वीर अवसर पाकर आक्रमण कर देते। ऐसी स्थिति में मुगल परिवार के लोग अपने बचाव के लिए छिप कर कड़ी सुरक्षा में रहते थे। उन्हें रात्रि या दिन के समय शौच आदि कर्मों के लिए बाहर जाने से डर बना रहता था। इसी भय के कारण भारत में पहली बार सैनिक डेरों और आवास से जुड़े शौचालयों की व्यवस्था ने जन्म लिया। उस समय आधुनिक स्वच्छ शौचालयों की कल्पना नहीं थी। शुष्क शौचालयों को नित्य साफ करने की समस्या उत्पन्न हुई। तब मुगलों ने ऐसे भारतीय लोगों (हिन्दुओं) को भंगी अर्थात दास बनाने का अभियान चलाया। यह ऐसे कुलीन लोग होते थे जो धर्मनिष्ठ होने के साथ इतने स्वाभिमानी थे कि धर्म और राष्ट्र के लिए प्राण देने को तैयार हो जाते थे। पर इस्लाम स्वीकारने से साफ इनकार कर देते थे।
ऐसे स्वाभिमानी राष्ट्रभक्त लोगों को मुगलों ने भंगी बनाकर पूरे समाज से काट दिया। उनसे लोकाचार करने का साहस कोई नहीं कर सकता था। इनसे सम्बन्ध रखने वालों को उन्हीं की तरह सब कुछ छीनकर भंगी बना दिया जाता था। समाज में भंगी बना दूंगा इस तरह की भाषा का प्रयोग एक गाली के रूप में किसी को सर्वथा उजाड़ देने की धमकी देने के लिए कतिपय आततायी आज भी करते हैं। कुछ लोगों के मन में भ्रान्ति है कि भंगी और डोम शब्द पर्यायवाची है।
वस्तुत: ऐसा नहीं है। डोम शब्द मैला ढोने वाले लोगों के लिए कभी प्रयुक्त नहीं हुआ। डोम शब्द तो श्मशान से जुड़ी व्यवस्थाएं करने और उससे जुड़े कर लेने वाले कर्मचारियों के लिए प्रयुक्त होता रहा है। शौचादि, सफाई कार्यों के लिए कोई जातीय व्यवस्था मुगलों से पहले भारत में नहीं थी। तब घरों के भीतर शौचालय नहीं होते थे। राजाओं और बड़े श्रेष्ठियों के महलों के निकट ऐसे बगीचे होते थे जहाँ इस कार्य के लिए पुरुष एवं महिलाओं हेतु पृथक स्थान निश्चित होते थे। इस प्रकार भंगी शब्द न तो भारतीय भाषाओं का है और न ही भारत के किसी परम्परा से जुड़ा हुआ है।
भारत में सनातन संस्कृति के प्रति आस्था रखने वाले लोगों अथवा शौर्य के साथ अपने और राष्ट्र के स्वाभिमान के लिए सन्नद्ध रहने वाले लोगों को मुगलों द्वारा हर प्रकार से कुचला गया। छल पूर्वक विजेता बने मुगलों के मन में भारतीय लोगों के शौर्य का भय सदा बना रहता था। इसीलिए भारत के समृद्ध समाज को विपन्न बनाने का अभियान चला। उसी तरह वीरता में निपुण समाज को छल पूर्वक कुचला जाता रहा। जिनका सब कुछ छीन लिया जाता उन्हें समाज से बहिस्कृत करके तिरस्कृत जीवन जीने के लिए विवश किया जाता।
काशी में औरंगजेब की सेना ने जब भगवान विश्वनाथ के मन्दिर को ध्वस्त किया। तब काशी में 50 हजार से अधिक प्रवासी शिव भक्त और पुजारी उपस्थित थे। इन सभी को बलात इस्लाम स्वीकार करने के लिए विवश किया गया। काशी में बढ़ती मुसलिम जनसंख्या के मूल आधार यही है। भारत में विदेशी आक्रान्ताओं के आक्रमण शुरू में लूटपाट के लिए होते थे। बाबर पाँच बार भारत पर धावा बोल कर सोना, हीरे, जवाहरात और अन्य मूल्यवान वस्तुएं लूट कर भाग जाता रहा। इन आक्रमणों में उसने देखा कि उसका प्रतिरोध भारत के लोग मिलकर नहीं करते। यदि ऐसा करते तो कोई आक्रान्ता सफल न होता। एक क्षेत्र में जब लुटेरा घुसता तो दूसरे क्षेत्र के लोग दूर खड़े रहकर अपने पड़ोसी को विनष्ट होते देखने में सुख की अनुभूति करते।
इस कुप्रवृत्ति ने सारे संसार में समर्थ और समृद्ध कहे जाने वाले भारत को दरिद्र बना डाला। यह कहना अनुचित है कि भारत में जातीय छुआछूत की कुरीति बहुत पहले से थी। चारों वर्णों (ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) में साम्य स्थापित था। एक परिवार के भीतर भी पवित्रता और अपवित्रता की स्थिति होने पर परस्पर स्पर्श करने की मनाही होती थी। पूजा के लिए मन्दिर जा रहे व्यक्ति को कोई स्पर्श करके अवरोध नहीं बनता था। घरों के भीतर नारियां पवित्रता-अपवित्रता को परिभाषित करते हुए बच्चों में संस्कार डालती थीं। जन्म के आधार पर कुलीनता का भाव बहुत बाद में कुरीति के रूप में विकसित हुआ।
ध्यान देने की बात है कि सभी चार वर्णों से निकले ब्रह्म ज्ञानी ऋषि बनते रहे। जिनका काम श्रम और सेवा करना था वह अन्तिम वर्ण शूद्र में गिने जाते थे। सैनिक बन कर सुरक्षा के कार्य से जुड़े क्षत्रिय कहलाते थे। इसी प्रकार व्यापार और उद्यम वैश्य अर्थात वणिक समाज के अधीन था। यह वर्ण व्यवस्था जातियों को परिभाषित नहीं करती थी। एक ही परिवार से निकले चार भाई चार दिशाओं में जा सकते थे। मुगल काल में सामाजिक व्यवस्था बदलने लगी। ज्ञान और शौर्य की विधाओं पर ग्रहण लग गया। व्यापार और उद्यम भी मुगलों ने लूट कर ध्वस्त कर डाले। जो सर्वदा सम्पन्न रहे उन्हें विपन्न बनाकर सब प्रकार से हीन कर दिया गया। ऐसी स्थिति में अपने कुल और समाज की रक्षा के लिए जातीय समूह निर्मित होने लगे।
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विचारणीय है कि वर्ण तो चार ही थे। फिर भारत जैसे देश में हजारों प्रकार के जातीय नाम किस व्यवस्था की उत्पत्ति है। स्पष्ट है कि प्राचीन वर्ण व्यवस्था से इस नयी जातीय प्रणाली का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। दिशाहीन और विपन्न समाज ने आत्म रक्षार्थ समूहों का गठन किया। इनका नामकरण स्वयं किया। आधुनिक काल के स्वार्थी राजनीतिक परिवेश में जातीय तन्त्र समाज को दिग्भ्रमित करके लूटने और छल करने का साधन बन गया है। भारत का हिन्दु समाज अपने अतीत और स्वाभिमान के चिन्तन से दूरी बनाये बैठा है। थोपी गयी कुरीतियों को अनेक लोग परम्परा बता कर उनका संरक्षण करने लगते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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