श्याम कुमार
Happy New Year: वर्ष 1987 की घटना है। दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में कानपुर के लाजपत भवन में ‘रंगभारती’ का दशकों पुराना ‘गदहा सम्मेलन’ शीर्षक सुविख्यात अखिल भारतीय हास्य कवि सम्मेलन सम्पन्न हुआ था। आयोजन में कई दिनों कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी। चूंकि आयोजन की समाप्ति के अगले दिन मन चिंतामुक्त हो जाता है तो प्रायः कहीं घूमने का कार्यक्रम बना लेता हूं। अतएव उस बार कार्यक्रम से फारिग होने के बाद मैंने हमीरपुर जाने का कार्यक्रम बना लिया। हमीरपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी जगतपाल मेरे मित्र थे, इसलिए उनसे मिलने की इच्छा थी।
मैंने प्रातःकाल नौ बजे के लगभग कानपुर से हमीरपुर के लिए प्रस्थान किया। कुछ किलोमीटर जाने पर कुष्मांडा देवी का मंदिर मिला, जहां मैंने दर्शन किए। पुरातनकालीन यह मंदिर भी अन्य तमाम प्राचीन मंदिरों की भांति अपने उद्धार को तरस रहा है और उसे भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की प्रतीक्षा है। उसके बाद मैं आगे बढ़ा तो सड़क पर गिट्टियां बिछी मिलीं। मैंने आसपास के लोगों से पूछा कि कितनी दूर तक सड़क ऐसी है तो लोगों ने बताया कि बस थोड़ी दूर तक। मैं आगे बढ़ता गया और लोगों से वही उत्तर मिलता रहा। उस गिट्टी-बिछी सड़क पर मेरी टैक्सी रेंग-रेंगकर आगे बढ़ रही थी। अब मैं इतनी दूर निकल चुका था कि वापस लौटना संभव नहीं था। फिर तो हमीरपुर तक वही कष्ट झेलना पड़ा।
मैं सायंकाल चार बजे के लगभग हमीरपुर पहुंचा। जिलाधिकारी जगतपाल मिलकर बड़े खुश हुए और उन्होंने डाक बंगले में मेरे रुकने का प्रबंध करने के लिए सम्बंधित अधिकारी को निर्दिष्ट किया। वह अगले दिन आसपास के दर्शनीय स्थल घुमाना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि मैं कम से कम दो दिन रुकूं। उस दिन 31 दिसम्बर था और मुझे रात तक लखनऊ अवश्य पहुंच जाना था। जगतपाल ने रुकने का बहुत आग्रह किया, किन्तु जब उन्होंने देखा कि मैं नहीं रुकूंगा तो यह जानकारी देते हुए उन्होंने मुझसे तुरंत वापस प्रस्थान करने के लिए कहा कि अंधेरा हो जाने पर रास्ते में डाकुओं का खतरा हो सकता है। उन्होंने कानपुर जाने का एक अन्य रास्ता बताया, किन्तु कहा कि वह रास्ता भी बहुत खराब दशा में है। मैं इस आशा में उक्त दूसरे रास्ते पर चला कि जिस रास्ते से मैं आया हूं, शायद उससे यह रास्ता बेहतर हो।
जब मैं वापसी के लिए उस दूसरे वाले रास्ते पर आगे बढ़ा तो कुछ किलोमीटर आगे जाते ही सड़क गायब हो गई और रास्ते में सिर्फ गड्ढे विद्यमान थे। मजे की बात, वहां सड़क नाम की चीज तो नहीं थी, किन्तु पूरे रास्ते में थोड़ी-थोड़ी दूर पर गतिरोधक (स्पीडब्रेकर) बने हुए थे। धीरे-धीरे घना अंधेरा हो गया और टैक्सी रेंग-रेंगकर आगे बढ़ती रही। रास्ते में न कोई आबादी थी, न कोई आदमी मिला। उस समय मन बजरंगबली का ही स्मरण कर रहा था। रात में आठ बजे के लगभग मेरी टैक्सी उस बीहड़ रास्ते को पार कर जैसे ही काल्पी-कानपुर राजमार्ग पर पहुंची, वहां पहुंचते ही टायर पंचर हो गया। गनीमत थी कि बीहड़ रास्ता सहीसलामत पार हो चुका था और बजरंगबली ने मेरी रक्षा की थी।
उस रात भयंकर ठंड और इतना घना अंधेरा था कि अगल-बगल कुछ सूझ नहीं रहा था। टैक्सी की स्टेपनी भी ठीक नहीं थी और मुझे लखनऊ पहुंचने की जल्दी थी। इसलिए मैंने टैक्सी के ड्राइवर से कहा कि वह मुझे किसी बस में बिठा दे तथा पंचर बनवाने के बाद अगले दिन टैक्सी लेकर लखनऊ आ जाय। उस समय घना अंधेरा तो था ही, कड़ाके की ठंड भी थी, इसलिए ड्राइवर के बार-बार हाथ देने पर भी कोई बस नहीं रुक रही थी। कोई ट्रक भी नहीं रुक रहा था। तब मैंने ड्राइवर से टेम्पो रोकने के लिए कहा, ताकि उससे ही कानपुर पहुंच सकूं।
बहुत प्रयास के बावजूद कोई टेम्पोवाला भी नहीं रुक रहा था। बड़ी मुश्किल से एक टेम्पो रुका तो उसने बताया कि वह आगे एक पुलिस चौकी तक ही जाएगा, जिसके बाद उसे दूसरी ओर जाना है। खैर, मैं उस पर बैठ गया। टेम्पो अगल-बगल खुला हुआ था, जिससे हवा के हाड़ कंपा देने वाले ठंडे थपेड़े लग रहे थे। आगे एक जगह उसने पुलिस चौकी बताकर मुझे उतार दिया और चला गया। वहां अंधेरे में कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। जब मैंने कई बार आवाज दी तो एक पुलिसवाला उठा। उसे मैंने परिचय देकर अपनी व्यथा बताई और कानपुर वाले किसी वाहन पर बिठा देने का अनुरोध किया। उसने टॉर्च की रोशनी दिखाकर एक ट्रक को रोका, जिस पर मैं बैठ गया।
मैं पहली बार ट्रक पर बैठा था, इसलिए अजीब-सा लग रहा था। तब तक एक और समस्या उत्पन्न हो गई। रास्ते में इतना भयंकर घना कुहरा था कि ट्रक की रोशनी में भी कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। परिणामतः ट्रक बड़ी सावधानी से बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। चूंकि कुहरे में कुछ नहीं सूझ रहा था, इसलिए खतरा था कि सामने से आ रहे किसी वाहन से भिड़ंत न हो जाय। उस रात मुझे रास्ते में ट्रकों से वसूली का भी खूब अनुभव हुआ। जगह-जगह पुलिस का वसूली-अभियान चल रहा था। जहां कहीं भी पुलिसवाले ड्यूटी पर थे, ट्रकचालक उन्हें खिड़की से हाथ निकालकर रुपये थमाता जा रहा था। ट्रकवाले ने मुझसे पचास रुपये लेकर रामादेवी चौराहे पर उतार दिया। वहां भी वसूली बहुत जोरों पर हो रही थी।
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कड़क सर्दी में कोई रिक्शा नहीं मिल रहा था। किसी तरह एक रिक्शा मिला, जिससे मैं बसअड्डे पहुंचा और फिर बस द्वारा रात में ठीक बारह बजे लखनऊ के चारबाग बसअड्डे पहुंचा। वहां से घर पहुंचा तो लगा कि नया जीवन पाकर लौटा हूं। घर पर टीवी चल रहा था, जिस पर कुछ घंटे पहले से शुरू हुआ नववर्ष का रोचक कार्यक्रम चल रहा था। उन दिनों टीवी पर चैनलों की भीड़ नहीं थी तथा नए वर्ष का दिखाया जाने वाला कार्यक्रम बहुत मनोरंजक होता था। लोग भोजन आदि से निवृत्त होकर टीवी के सामने बैठ जाते थे तथा कार्यक्रम का आनंद लेते थे।
अगले दिन टैक्सीचालक आया और मेरा सूटकेस एवं अन्य सामान दे गया। मैंने उसके बिल के अनुसार पूरा भुगतान कर दिया। बुरी तरह थका होने के कारण मैं दिनभर निढाल पड़ा रहा। दो दिन बाद जब मैंने सूटकेस खोला तो देखा उसमें तमाम सामान गायब था। निश्चित रूप से टैक्सीवाले ने मौके का फायदा उठाकर हाथ की सफाई दिखा दी थी। हमीरपुर से लौटते समय मैं डाकुओं से तो बच गया था, लेकिन लखनऊ में टैक्सीड्राइवर के रूप में आए डाकू का शिकार होने से नहीं बच सका।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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