भारत के संविधान के संदर्भ में पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय का जो फैसला आया, जिसका विवरण समाचारपत्रों में प्रकाशित हुआ, वह अत्यंत महत्वपूर्ण है तथा विद्वानों को उस पर व्यापक मंथन करना चाहिए। फैसले में कहा गया है कि ‘समाजवादी’ एवं ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द संविधान के मूल ढांचे के अंग बना दिए गए हैं, इसलिए उन्हें नहीं हटाया जाएगा। उक्त फैसले के अनुसार संविधान का अनुच्छेद 368 संसद को संविधान में संशोधन की अनुमति देता है तथा चूंकि प्रस्तावना भी संविधान का अंग है, इसलिए देश की संसद प्रस्तावना में भी संशोधन कर सकती है।
बलराम सिंह, सुब्रमण्यम स्वामी एवं अश्विनी उपाध्याय ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर कहा था कि 26 नवंबर, 1949 को अंगीकार किए गए हमारे संविधान में भलीभांति विचार कर ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द शामिल नहीं किया गया था, बल्कि इंदिरा गांधी ने जब देश में इमरजेंसी लागू की थी, उस दौरान संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ एवं ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ दिए गए थे। उल्लेखनीय है कि बाद में जब ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द पर आपत्ति की गई थी तो उसे ‘पंथनिरपेक्ष’ कर दिया गया था। समाजवादी शब्द को लेकर याचिकाकर्ताओं ने याचिका में यह कहा कि उक्त शब्द निर्वाचित सरकार द्वारा वैकल्पिक आर्थिक नीति अपनाए जाने के कदम को बाधित एवं प्रतिबंधित करता है, जबकि आर्थिक नीतियों के मामले में सरकार को जन-इच्छा के अनुसार आर्थिक नीति अपनाए जाने की छूट होनी चाहिए।
याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा कि इमरजेंस के दौरान किया गया बयालिसवां संशोधन दोषपूर्ण है, क्योंकि इसे 2 नवंबर, 1976 को आपातकाल के दौरान पारित किया गया था, जबकि लोकसभा का कार्यकाल 18 मार्च, 1976 को खत्म हो चुका था। न्यायाधीश-द्वय की पीठ ने कहा कि आपातकाल के बाद चुनी गई सरकार ने भी प्रस्तावना में किए गए बदलाव को नहीं छेड़ा था। पीठ ने यह भी कहा कि बयालिसवें संशोधन की सर्वोच्च न्यायालय में पहले भी समीक्षा हो चुकी है तथा यह नहीं कहा जा सकता है कि आपातकाल में संसद ने जो किया, सबको शून्य कर दिया जाय। प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना एवं न्यायाधीश संजय कुमार की पीठ ने इन याचिकाकर्ताओं के तर्कों को अस्वीकार करते हुए याचिका खारिज कर दी।
न्यायाधीश-द्वय की पीठ ने अत्यंत सारगर्भित फैसला दिया है और फैली हुई धुंध को छांटा है। मगर याचिकाकर्ताओं ने जो विषय उठाए हैं, उन पर और गहन विचार किए जाने की आवश्यकता है। इसके लिए या तो पृथक संविधान-पीठ का गठन किया जाना चाहिए अथवा कई न्यायाधीशों की पीठ गठित की जाय। उक्त पीठ हर पहलू की विशद व्याख्या कर स्थिति को पूरी तरह स्पष्ट करे। जैसे, मूल ढांचे के अंतर्गत क्या-क्या चीजें मानी जाएंगी? क्या प्रस्तावना को मूल ढांचे में माना जा सकता है? यदि प्रस्तावना मूल ढांचे का अंश नहीं है तो जिस प्रकार इंदिरा गांधी ने प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ एवं ‘समाजवाद’ शब्द जोड़े, भविष्य में चुनी हुई कोई अन्य सरकार प्रस्तावना में संशोधन कर इन दोनों शब्दों को हटाकर वहां अन्य किसी शब्द को जोड़ सकती है। न्यायाधीश-द्वय की पीठ ने कहा कि जिस प्रकार ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द की भारत ने अपनी व्याख्या विकसितणणण कर ली है, उसी प्रकार ‘समाजवाद’ शब्द की भारत की व्याख्या भी शेष दुनिया से अलग है।
यहां उल्लेखनीय है कि जहां तक ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का प्रश्न है, ‘धर्म’ का अर्थ ‘मजहब’ या ‘पंथ’ से बिलकुल अलग है। ‘धर्म’ वस्तुतः हजारों साल पुरानी एवं सतत प्रवाहमान सनातन भारतीय संस्कृति का परिचायक है। इस संस्कृति पर किसी प्रकार के प्रहार का अर्थ है भारत के मूल अस्तित्व को मिटाना। इसी से ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द पर जब कड़ी आपत्ति की गई थी तो उसे बदलकर ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द कर दिया गया था। जहां तक ‘समाजवाद’ का प्रश्न है, यह शब्द ऐसी टोपी माना जाता है, जिसे हर कोई धारण कर लेता है। लुटेरे, डकैत व महाघोटालेबाज भी इस शब्द का दुरुपयोग करते हुए अपने को समाजवादी कहने लगते हैं, इसलिए मात्र यह कह देने से काम नहीं चलेगा कि हमने इस शब्द की अब ‘कल्याणकारी’ अर्थ के रूप में अपनी व्याख्या विकसित कर ली है। विचारणीय है कि जब चोर, लुटेरे, डकैत, घोटालेबाज, परिवारवादी भी अपने को ‘जनकल्याणकारी समाजवादी’ निरूपित करते हैं, अतएव ऐसी क्या मजबूरी है कि इन शब्दों को प्रस्तावना में शामिल रहने दिया जाय।
मोरारजी देसाई की जनता पार्टी की सरकार ने इंदिरा गांधी द्वारा संविधान में थोप दिए गए ‘धर्मनिरपेक्ष’ एवं ‘समाजवादी’ शब्दों को इस मजबूरी में नहीं छेड़ा था कि उस समय जनता पार्टी में ऐसे काफी लोग थे, जो इन शब्दों की चादर ओढ़े हुए थे। आज भारतीय जनता पार्टी विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी हो गई है तथा अन्य पार्टियां भी हैं। अतः इन शब्दों के प्रति उनकी क्या अवधारणा है, यह भी ध्यान दिया जाना महत्वपूर्ण है। राजनीतिक दल इन शब्दों का अपने अनुसार पालन करें, इसकी यदि उन्हें छूट है तो संविधान की प्रस्तावना में इन शब्दों को कायम रखने का औचित्य नहीं है। यह वास्तविकता झुठलाई नहीं जा सकती कि संविधान सभा के गठन के लिए कोई आम निर्वाचन नहीं हुआ था, बल्कि वर्ष 1946 में जो लोग केंद्रीय असेंबली के लिए चुने गए थे, उन लोगों को ही संविधान सभा का सदस्य मान लिया गया था तथा उन लोगों को ‘हम भारत के लोग’ कह दिया गया था।
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भारत को सत्ता के हस्तांतरण के संदर्भ में जब ब्रिटिश सरकार के कैबिनेट मिशन का भारत आगमन हुआ था, उस समय यह बात स्वीकार कर ली गई थी कि भारत की शासन-व्यवस्था भारतीयों के हाथ में पूरी तरह दे दी जाय। उसी क्रम में वर्ष 1946 में भारत में केंद्रीय असेंबली के लिए आम चुनाव संपन्न हुआ था। उक्त केंद्रीय असेंबली के लिए पूरे अविभाजित भारत में चुनाव हुआ था। उस आम चुनाव की एक विशेषता यह भी थी कि उसमें मुसलिम लीग ने यह मांग शामिल की थी कि चूंकि हिंदू और मुसलिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, जो एक साथ नहीं रह सकते हैं, इसलिए देश का बंटवारा कर मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान देश बनाया जाय। उस चुनाव में लगभग शतप्रतिशत मुसलमानों ने अपने लिए पाकिस्तान के निर्माण का समर्थन किया था। इसी से केंद्रीय असेंबली के लिए पाकिस्तान के हिस्से से निर्वाचित लोगों को अलग कर शेष सदस्यों से युक्त केंद्रीय असेंबली का गठन किया गया था। उसमें निर्वाचित सदस्यों के साथ विभिन्न रियासतों के राजाओं के प्रतिनिधियों एवं अन्य विभिन्न मनोनीत सदस्यों को भी शामिल किया गया था।
ब्रिटिश सरकार ने कहा था कि भारत अपने लिए संविधान बना ले, तब उसे सत्ता सौंपी जाएगी। अतएव 1946 में जिस केंद्रीय असेंबली का निर्वाचन हुआ था, उसे ही संविधान बनाने के लिए संविधान सभा के रूप में परिवर्तित कर दिया गया था। इसी कारणवश एक तर्क यह दिया जाता है कि हमारे संविधान में भले ही ‘हम भारत के लोग’ शब्द शामिल कर लिए गए हैं, लेकिन इससे इन शब्दों द्वारा भारत के लोगों का वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं हुआ है। सही प्रतिनिधित्व के लिए संविधानसभा के स्तर पर अलग निर्वाचन कराया जाना चाहिए था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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