थे गाँव हमारी पाठशाला,
जिसमें हम पढ़कर बड़े हुए।
संस्कृति सभ्यता संस्कार सीख,
स्व तंत्र स्वाभिमान ले खड़े हुए।।
था सुरम्य हमारा गाँव जहाँ,
परिवार भाव घर-घर पलता।
छोटे-बड़े समादर स्वभाव,
दृष्टि का अनुशासन चलता।।
खेती केन्द्र बिन्दु में सबके,
अर्थ तंत्र स्वावलंबी स्वरूप।
बेरोजगार नहीं कोई भी था,
व्यापारों के थे विविधि रूप।।
उद्योग यहां पारिवारिक थे,
जिससे चलता जीवन चक्र।
कौशल के धनी यहां सब थे,
सरल स्वभाव न कोई वक्र।।
स्वावलंबी गांव हमारे सब,
वे सभी परस्पर पूरक थे।
साप्ताहिक हाट बहाँ लगते,
सब साधन के अनुपूरक थे।।
उत्सव त्योहार विवाह यहां,
सब मिलकर पूरा कर लेते।
जीवन व्यापार बाजार नहीं,
भार परस्पर मिल हर लेते।।
दुनियां को सन्देशा थे वे,
तुम्हें इसी राह चलना होगा।
वसुधा फिर परिवार बनेगी,
संस्कारों में ढलना होगा।।
बृजेन्द्र पाल सिंह
राष्ट्रीय संगठन मंत्री लोकभारती
केन्द्र लखनऊ
इसे भी पढ़ें: समझ कर चलो तुम
इसे भी पढ़ें: अनुभूति के स्वर…