दादी के इंतक़ाल के बाद जब,
रो रही थीं घर की औरतें,
और नहीं रोक पाया था मैं भी ख़ुद को,
ग़मगीन दादा तब भी यही बोले थे,
मर्द बच्चे हो तुम,
मर्द रोते नहीं हैं।।
गाँव भर का यही क़िस्सा था,
किसी मर्द की आँखों में,
भूले-से भी नहीं आते थे आँसू,
और गर ऐसा हो गया तो,
तो मर्दों की बिरादरी से,
बाहर कर दिया जाता था वह आदमी,
क्योंकि मर्द रोते नहीं हैं।
कुछ ऐसी ही कहानी उस औरत की होती थी,
जो नहीं रोती थी,
गाँव में किसी के भी मर जाने पर,
पति के बीमार होने या,
बच्चे के ठोकर खाकर गिरने पर,
गाँव भर के आँसू उधार होते थे उस औरत पर
औरत की आँख के गहने होते हैं आँसू।
मर्द रोते नहीं हैं,
दादा के साथ गाँव भर के लोग यही मानते थे,
फ़ौलादी होते हैं मर्दों के सीने,
चिंगारी निकलती है आँखों से उनकी,
पिता, भाई और दोस्तों को फ़ख़्र है अपने गाँव पर,
गाँव की मर्दानगी पर,
सीने में धधकती आग पर,
फ़ख़्र है कि मर्द रोते नहीं हैं,
वे रोते नहीं हैं तब भी जब,
मर रही होती है वह औरत,
जिसने ज़िंदगी भर किया था उन्हें प्यार।
बहन ससुराल से आती है तो,
माँ की आँखें गीली हो जाती हैं,
उसका हिलक-हिलक कर रोना सुनकर,
माँ धीरे से कहती है उससे,
जी भर कर रो ले,
रोने से जी हल्का हो जाता है।
एक दिन मैंने पूछ ही लिया रीना से,
औरतों का जी भारी क्यों हो जाता है,
मुस्कुराते हुए उन्होंने बस इतना कहा,
मर्द नहीं समझ पाएँगे,
औरतों का जी औरत होकर ही समझा जा सकता है,
बहुत बाद में एक दिन,
रीना ने कहा था,
मर्द रोते नहीं हैं।
उनके सीने की आग,
सुखा देती है आँखों का पानी,
औरत अपनी आग से चूल्हा जलाती है,
और आँखों के समंदर से,
मुहब्बत के दिए।
– फ़िरोज़ ख़ान
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