Sanjay Tiwari
संजय तिवारी

Valmiki Jayanti 2024: सृष्टि के आदि कवि और श्रीमद रामायण के रचयिता ब्रह्मर्षि वाल्मीकि कोई चोर अथवा डाकू नहीं हैं। हमारे आदि कवि वास्तव में ब्रह्मर्षि प्रचेता के पुत्र हैं। वरुण देव का ही एक नाम प्रचेता भी है। वाल्मीकि जी इन्हीं के दसवें पुत्र हैं। इन्होंने अयोध्या के दक्षिण तमसा नदी के तट पर अपना आश्रम स्थापित किया था। प्रभु श्रीराम ने जब सीता जी को वनवास दिया तब वह इन्हीं वाल्मीकि जी के आश्रम में आ कर रही थी। श्रीमद रामायण जी में ही वाल्मीकि जी ने अपना पूरा परिचय लिखा है। जब वह सीता जी को लेकर राम के दरबार में पहुचाते है तब वह स्वयं कहते है कि राम, आपकी सीता उतनी ही पवित्र है जितना आपकी अपेक्षा है।

मैंने अपने जीवन में न तो कभी झूठ बोला है और ना ही किसी प्रकार का कोई गलत कार्य किया है। ऐसे में यदि सीता में कोई भी दोष हो तो वह सारा पाप मुझे लग जाय। स्वयं पर इतना आत्मविश्वास करने वाले वाल्मीकि जी कि बात पर प्रभु श्री राम भी चकित है। वाल्मीकि जी लव, कुश और सीता जी को लेकर श्री राम के पास आये हैं। यहाँ वह अपना परिचय भी देते है कि मैं प्रचेता का दसवां पुत्र वाल्मीकि हूँ। अब यह स्वयं प्रमाण है कि रामायण के रचयिता वाल्मीकि कभी डाकू नहीं थे।

इस प्रसंग को जगतगुरु स्वामी राघवाचार्य जी महाराज ने भी विस्तार से व्याख्यायित किया है। वास्तव में वाल्मीकि जी के संदर्भ में सनातन द्रोहियों ने बहुत गंभीर साजिश रची है। मैकाले के अनौरस सन्तान वामपंथियों ने महर्षि वाल्मीकि को किरात, भील, मल्लाह, शुद्र तक बना डाला मिथ्या प्रचार कर लोगों में भ्रम उतपन्न किया है। जबकि यह असत्य और शास्त्र विरुद्ध है। महर्षि वाल्मीकि को हमारे शास्त्रों में आदिकवि बताया गया है। महर्षि वाल्मीकि श्रीमद्वाल्मीकिरामायण में अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि मैं भृगुकुल वंश उत्पन्न ब्राह्मण हूँ-

सन्निबद्धं हि श्लोकानां चतुर्विशत्सहस्रकम् ।
उपाख्यानशतं चैव भार्गवेण तपस्विना ।। ७.९४.२६ ।।

इस महाकाव्य में इलोपख्यान २४ सहस्त्र श्लोक है और सौ उपाख्यान है जिसे भृगुवंशीय महर्षि वाल्मीकि जी ने ही रचा है। महाभारत में भी वाल्मीकि को भार्गव (भृगुकुलोद्भव ) कहा गया है और यही रामायण के रचनाकार है।

श्लोकद्वयं पुरा गीतं भार्गवेण महात्मना।
आख्याते राजचरिते नृपतिं प्रति भारत।।(महा० शान्तिपर्व १२/५६/४०)

शिवपुराण में भी कहा गया है कि वे भार्गवकुलोतपन्न थे। भार्गववंश में लोहजङ्घ नामक ब्राह्मण थे। उन्हीं का दूसरा नाम ऋक्ष था। ब्राह्मण होकर भी अन्य काम करते थे और श्रीनारद जी की सद्प्रेरणा पुनः तप के द्वारा महर्षि हो गये। इसके अलावा विष्णु पुराण में भी इन्हें भृगुकुलोद्भव ऋक्ष हुए जो वाल्मीकि कहलाये।

ऋक्षोऽभूद्भार्गवस्तस्माद् वाल्मीकिर्योऽबिधीयते ।(विष्णु पुराण ३/३/१८)

श्रीमदवाल्मीकि रामायण में वाल्मीकि अपना परिचय देते हुए कहते है-

प्रचेतसो ऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन ।।(वा० रा ७.९६.१९ ।)
मैं प्रचेतस का दसवां पुत्र वाल्मीकि हूँ।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है-

कति कल्पान्तरेऽतीते स्रष्टुः सृष्टि विधौ पुनः ।।
यः पुत्रश्चेतसो धातुर्बभूव मुनिपुंगवः ।।
तेन प्रचेता इति च नाम चक्रे पितामहः ।।१/२२/ १-३ ।।

अर्थात कल्पनान्तरो के बीतने पर सृष्टा के नवीन सृष्टि विधान में ब्रह्मा के चेतस से जो पुत्र उतपन्न हुआ उसे ही ब्रह्मा के प्रकृष्ट चित से उत्पन्न होने के कारण प्रचेता कहा गया। इस लिए ब्रह्मा के चेत से उतपन्न दस पुत्रों में वाल्मीकि प्रचेतस प्रसिद्ध हुए। मनुस्मृति में वर्णन है ब्रह्मा जी ने प्रचेता आदि दस पुत्र उत्पन्न किये।

अहं प्रजाः सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ।
पतीन्प्रजानां असृजं महर्षीनादितो दश । । १.३४ । ।
मरीचिं अत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।
प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदं एव च । । १.३५ । ।

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यह शास्त्र प्रमाणित है कि महर्षि वाल्मीकि जी जन्म से ब्राह्मण थे और भृगुवंश में उत्पन्न हुए थे। लोकापवाद के कारण श्रीराम ने सीता जी को वाल्मीकि के आश्रम के पास छोड़ा था। वाल्मीकि इस कारण श्रीराम पर नाराज थे। ऐसे ही कुछ दिन बीते। एक शाम वे नदी के किनारे संध्या-वंदन कर रहे थे। एक शिकारी ने पास के पेड़ पर प्रणयमग्न क्रौंच पक्षी के जोड़े को निशाना बनाया। क्रौंची तीर लगने के कारण नीचे गिर गई। उसको देखते ही ऋषि व्याकुल हो गये। इतने में क्रौंची के शोक में क्रौंच भी प्रेमवश उस पर गिर पड़ा और मर गया। ऋषि का हृदय टूक-टूक हो गया। एकाएक उनके मुख से करुणावश शिकारी के लिए यह शाप निकाला-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमागम: शाश्वती: समा:।
यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधी: काम मोहितम्॥ (1.8.15)
शोक ही श्लोक रूप में प्रकट हुआ। (1.2.81)।

वाल्मीकि के जीवन में इस प्रकार के दुख की तीव्रानुभूति प्रथम बार ही थी। उन्हें स्वयं पर तथा स्वयं के मुख से निकली शाप वाणी पर आश्चर्य होने लगा। विचार तरंग प्रारंभ हुआ। आखिर हर घटनाचक्र के पीछे नियति का आशय छिपा होता है। उनके अंदर का कवि जग रहा था। जब कवि के हृदय की करुणा जागती है तो वह सर्वोत्तम कला की सृष्टि करता है। रामायण का जन्म वाल्मीकि की इसी करुणा से हुआ है। श्रीराम की प्रशंसा या रावण के द्वेष से नहीं। प्रथम सीता जी के प्रति और बाद में क्रौंच-युगल के प्रति वाल्मीकि में करुणा उत्पन हुई थी। इस करुणा-बीज का ही रामायण रूपी मधुर फल है। इसी मानसिक स्थिति में वाल्मीकि की भेंट नारद जी से हुई। मनुष्य को उसके धर्म का ज्ञान कराने वाले नारद है-

‘नरस्य धर्मो नारं तद्वदहातीति नारद:’।

नारद ही ऐसे ऋषि थे जिन्हें संसार में कहीं भी रोकथाम नहीं थी, क्योंकि सभी को यह विश्वास था कि यह हमारा अहित नहीं करेंगे। वाल्मीकि ने नारद से घटना के पीछे का रहस्य एवं आगे का कर्तव्य पूछा। नारद जी ने कहा—काव्य की धारा निरंतर प्रवाहित हो रही है अत: काव्य रचना करो। वाल्मीकि द्वारा पूछा गया-

‘कोन्वस्मिन्सांप्रतं लोके?’

ऐसा कौन पुरुष वर्तमान काल में है जिसका चरित्र काव्यबद्ध किया जाये?

नारद ने कहा- लोक शिक्षण के लिए सर्वोत्तम चरित्र श्रीराम का ही है। साथ ही नारद जी ने संक्षेप में राम कथा सुनाई। यह 100 श्लोकों में थी। इसको ही 100 श्लोकी रामायण कहा जाता है जिसका विस्तार महर्षि वाल्मीकि ने 24 हजार श्लोकों में किया। ये 24 हजार श्लोक गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों का ही विस्तार है। वाल्मीकि की रामायण गायत्री के प्रथम अक्षर त से आरंभ होती है और गायत्री के ही आखिरी अक्षर त पर ही समाप्त होती है। इस विषय पर विस्तार से चर्चा फिर कभी। इस प्रकार से यह भ्रान्ति अब दूर कर लेने की आवश्यकता है कि सृष्टि के आदि कवि वाल्मीकि पहले चोर या डाकू रहे थे। ऐसा समझना आदिकवि का अपमान होगा।

।।जयसियाराम।।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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