संजय तिवारी
संस्कृति पर्व के प्रेरणाश्रोत स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती की पुण्य भूमि में दिन भर रहने का सुअवसर मिलना सौभाग्य ही है। काशी से केवल 46 किमी पूरब और उत्तर, अब यह स्थान चंदौली जिले में गंगा जी के किनारे ही बसा है। कहने को तो यह स्वामी जी का पैतृक निवास है, लेकिन संरचना और अनुभूति यहां एक सिद्ध आश्रम जैसी होती है। कल्पना कर के ही अत्यंत दिव्य अनुभूति होती है कि धर्म सम्राट करपात्री जी के अलावा लगभग सभी शंकराचायों ने स्वयं यहां की मिट्टी को आकर नमन किया है। आज स्वामी जी के अपने ही परिसर में भव्य आनंदेश्वर मंदिर अद्भुत स्वरूप में स्थापित है। वह पावन स्थल भी अपनी समस्त सिद्धियों के साथ हैं जहां भगवान श्रीकृष्ण और कल्प चक्रवर्ती श्री हनुमान जी से स्वामी जी के साक्षात्कार हुए।
विगत दो सदियों में प्रचलित कथा व्यास परंपरा के ध्वजवाहक स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती के नाम से सनातन विश्व परिचित है। सनातन हिंदू वैदिक परंपरा में आज कोई ऐसे महापुरुष नहीं है जिनके उद्बोधन में एक दो बार स्वामी जी का उल्लेख न होता हो। स्वाधीनता संग्राम में जब सनातन के तत्वों को समेटने और तलाशने में सेठ जयदयाल जी गोयन्दका से लेकर महामना और भाई जी हनुमान प्रसाद पोद्दार तक लगे थे, तो उन सभी के साथ सनातन के मूल तत्व की तलाश के साथ स्वामी जी स्वयं सहचर बन गए थे।
यहां यह भी जान लेना आवश्यक है कि भारतीय पौराणिक साहित्य में जो कुछ भी हिंदी भाषा में उपलब्ध है, उसमें से अधिकांश कार्य स्वामी जी द्वारा ही किए गए हैं। अखंडानन्द जी का जन्म शुक्रवार 25 जुलाई, 1911 को वाराणसी के मेहराई गाँव में पुष्य नक्षत्र श्रावण अमावस्या (हिन्दू पंचांग के अनुसार) सरयूपारीण ब्राह्मण के यहाँ हुआ। परिवार ने उसी नाम के देवता के नाम पर उनका नाम शांतनु बिहारी रख दिया। जब अखंडानन्द जी 10 साल के थे तभी उनके दादा ने उन्हें मूल भागवत को संस्कृत में पढ़ना सिखाया था। संन्यास जाने से पहले 1934 से 1942 तक उन्होंने कई किताबें एवं लेख प्रकाशित किए जब वे गीताप्रेस में कल्याण के सम्पादकीय बोर्ड के सदस्य थे। ज्योतिष्पीठाधीश्वर शंकराचार्य जगद्गुरु स्वामी ब्रह्मानंद जी से उन्होंने दीक्षा ली थी।
गीताप्रेस में कल्याण की संपादकीय परिषद के कार्यों के साथ ही उन्होंने कई पुराणों, गीता, महाभारत और वाल्मीकि रामायण जैसे ग्रंथों का भी हिंदी में अनुवाद किया। पहले इन ग्रंथों के संस्करणों में गीताप्रेस के प्रकाशनों में स्वामी जी के नाम का उल्लेख होता था। यह बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि पूज्य स्वामी रामकिंकर जी ने स्वामी जी से ही रामकथा की व्यासदीक्षा ली थी। स्वामी जी ने अपने केवल दस वर्ष की आयु में ही अपने दादा जी को श्रद्भागवत सुनाई थी। अपनी माता जी से उन्होंने रामायण का गान सीखा था।
भारत अथवा विश्व में आज भी जितने भी कथा व्यास आचार्य हैं, उनकी कथाओं में बार-बार स्वामी अखंडानंद जी का उल्लेख आ ही जाता है। पूज्य रमेश भाई ओझा, भूपेंद्र भाई पंड्या, मोरारी बापू, राजेंद्र दास जी, जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी, जगद्गुरु स्वामी राघवाचार्य जी, प्रेम मूर्ति प्रेम भूषण जी या राजन जी की कथा हो अथवा परमपूज्य शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी, स्वामी स्वामी गुरुशरणानंद जी, गिरिशानद जी यह अन्य अनेक महाभाग। सभी को स्वामी अखंडानंद जी के साहित्य और संवाद ने प्रेरणा और प्रश्रय अवश्य दिया है।
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जब स्वामी जी के गांव जाना हुआ तो उनके पौत्र शिवदत्त द्विवेदी का सान्निध्य भी मिला। स्वामी जी के एक पौत्र सोमदत्त स्वयं कथाव्यास हैं। स्वामी जी के एक पौत्र देवदत्त दिल्ली और मुंबई में व्यवसाय करते हैं। सभी के लिए यह भी जानना समीचीन होगा कि स्वामी जी की एकमात्र पुत्री का विवाह संत साहित्य मर्मज्ञ आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के एक पुत्र से हुआ था, जिनका परिवार काशी में ही रहता है।
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