इस समय देश में वीर सावरकर पर बहस चल रही है। झुठ की फैक्ट्री चलाने वाले अपनी आदत के मुताबिक बढ़ा-चढ़ा कर झुठ फैलाने में बेदम हैं। बार-बार हर बार साजिश के तहत यह झुठ फैलाया जाता है कि कालापानी जैसे सजा काटने वाले महान स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने अंग्रेजों से माफी थी। जबकि सच्चाई यह है वीर सावरकर ने अपने लिए नहीं, बल्कि अंडमान जेल में बंद सारे कैदियों के लिए माफी मांगी थी। मटमैला रंग का दस्तावेज का जो पीडीएफ फोटो है वह पूरी तरह से असली है, जिसे “संकेत कुलकर्णी” ने लंदन लाइब्रेरी से प्राप्त किया है। उसे आप स्वयं पढ़ सकते हैं, जिसमें वह साफ शब्दों में अंडमान जेल के सारे कैदियों के लिए दया याचिका की मांग कर रहे हैं।
अब आप कहेंगे कि सावरकर जी ने सारे कैदियों के लिए माफी याचिका क्यों मांगी थी, तो इसके लिए आपको वीर सावरकर के लिखी अंग्रेजी में एक किताब पढ़ना होगा। उस किताब का नाम है- My Transporation Life है। उस किताब में टोटल 307 पेज है। यदि आपके पास पूरी किताब पढ़ने का समय नहीं है तो मत पढ़ीए, लेकिन इस किताब के पेज नम्बर 69,219,220 और 221 पढ़ने लायक है। मूल रूप से यह पुस्तक मराठी भाषा में थी, जिसे अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है।
खैर, वीर सावरकर को सारे कैदियों के लिए माफी की जरूरत क्यों पड़ गई थी? तो इसका उत्तर यह किताब देता है कि वे इंदू भूषण नामक कैदी के आत्महत्या से इतने दुखी हो गये थे कि उन्होंने सारे कैदियों के लिए माफी याचिका लिख डाली थी। आप इसका विवरण इस पुस्तक के Indu had hanged himself last night में पढ़ सकते हैं।
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वीर सावरकर ने एक जगह इस पुस्तक में खुद लिखा है कि मैं एक बैरिस्टर होकर ऐसी गलती कैसे कर सकता था? यदि मैं पत्र लिखता तो अनेक अंग्रेज अफसरों के हाथों में जाती और वे इसे या तो दबा लेते, नहीं तो फाड़ देते क्योंकि अंडमान का कालापानी के सजा मानवाधिकार के खिलाफ था और उन्हें लज्जित होना पड़ता। अब ज्यादा नहीं लिखुंगा यह पुस्तक आपको Pdf में गुगल पर उपलब्ध है इसे डाउनलोड कर सभी पढ़ सकते हैं। खैर इस लेख में जो फोटो अपलोड किया गया है उसमें अंडरलाइन किए हुए शब्दों को पढ़ लिजीए। सावरकर ने अपने लिए नहीं ब्लकि अंडमान जेल में बंद सारे कैदियों के लिए माफी याचिका भेजी थी।
गांधी से लेकर इंदिरा तक ने सावरकर को राष्ट्रवादी और भारत की वीर सन्तान ही कहा है और इंदिरा ने 1970 में सावरकर जी पर डाक टिकट से लेकर अपने निजी खाते से 11000 रुपये उनके ट्रस्ट को डोनेट किये थे। पर अब कांग्रेस को सत्ता में बने रहने के लिए मुस्लिमों का तुष्टीकरण अनिवार्य दिखाई देता है। इसलिए कांग्रेस हर वो काम कर रही है, जिससे जेहादी प्रसन्न हो सके और वो वोट सके।
मणिशंकर अय्यर ने मुस्लिम तुष्टिकरण को बढ़ावा देने के लिए अंडेमान स्थित सेलुलर जेल से वीर सावरकर के स्मृति चिन्हों को हटवा दिया। यहाँ तक उन्हें अंग्रेजों से माफ़ी मांगने के नाम पर गद्दार तक कहा था। भारत देश की विडंबना देखिये जिन महान क्रांतिकारियों ने अपना जीवन देश के लिए बलिदान कर दिया। उन क्रांतिकारियों के नाम पर जात-पात, प्रांतवाद, विचारधारा, राजनीतिक हित आदि के आधार पर विभाजन कर दिया गया। इस विभाजन का एक मुख्य कारण देश पर सत्ता करने वाला एक दल भी रहा। जिसने केवल गांधी-नेहरू को देश के लिए संघर्ष करने वाला प्रदर्शित किया। जिससे यह भ्रान्ति पैदा हो गई हैं कि देश को स्वतंत्रता गांधी/कांग्रेस ने दिलाई? वीर सावरकर भी स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले, सर्वस्व समर्पित करने वाले असंख्य क्रांतिकारियों, अमर हुतात्माओं में से एक थे जिनकी पूर्ण रूप से उपेक्षा की गई।
वीर सावरकर ने अपनी कहानी में अंडमान की यात्राओं पर प्रकाश डालते हुए कोल्हू में बैल की तरह जुत कर तेल पेरने का बड़ा ही सजीव वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है-
हमें तेल का कोल्हू चलने का काम सौंपा गया, जो बैल के ही योग्य माना जाता है। जेल में सबसे कठिन काम कोल्हू चलाना ही था। सवेरे उठते ही लंगोटी पहनकर कमरे में बंद होना तथा सायं तक कोल्हू का डंडा हाथ से घुमाते रहना। कोल्हू में नारियल की गरी पड़ते ही वह इतना भारी चलने लगता था कि हृदय पुष्ट शरीर के व्यक्ति भी उसकी बीस फेरियां करते रोने लग जाते। राजनीतिक कैदियों का स्वास्थ्य खराब हो या भला, ये सब सख्त काम उन्हें दिए ही जाते थे। चिकित्सा शास्त्र भी इस प्रकार साम्राज्यवादियों के हाथ की कठपुतली हो गया। सवेरे दस बजे तक लगातार चक्कर लगाने से श्वास भारी हो जाता और प्रायः सभी को चक्कर आ जाता या कोई बेहोश हो जाते। दोपहर का भोजन आते ही दरवाजा खुल पड़ता, बंदी थाली भर लेता और अंदर जाता की दरवाजा बंद।
यदि इस बीच कोई अभागा कैदी चेष्टा करता कि हाथ पैर धोले या बदन पर थोड़ी धूप लगा ले तो नम्बरदार का पारा चढ़ जाता। वह मां-बहन की गालियाँ देनी शुरू कर देता था। हाथ धोने का पानी नहीं मिलता था, पीने के पानी के लिए तो नम्बरदार के सैंकड़ों निहार करने पड़ते थे। कोल्हू को चलाते चलाते पसीने से तर हो जाते, प्यास लग जाती। पानी मांगते तो पानी वाला पानी नहीं देता था। यदि कहीं से उसे एकाध चुटकी तम्बाकू की दे दी तो अच्छी बात होती। नहीं तो उलटी शिकायत होती कि ये पानी बेकार बहाते हैं जो जेल में एक बड़ा भारी जुर्म होता। यदि किसी ने जमादार से शिकायत की तो वह गुस्से में कह उठता- दो कटोरी पानी देने का हुक्म है, तुम तो तीन पी गया और पानी क्या तुम्हारे बाप के यहां से आएगा? नहाने की तो कल्पना करना ही अपराध था। हां, वर्षा हो तो भले नाहा लें। केवल पानी ही नहीं अपितु भोजन की भी वही स्थिति थी।
खाना देकर जमादार कोठरी बंद कर देता और कुछ देर में हल्ला करने लगता- “बैठो मत, शाम को तेल पूरा हो नही तो पीते जाओगे, और जो सजा मिलेगी सो अलग।” इसे वातावरण में बंदियों को खाना निगलना भी कठिन हो जाता। बहुत से ऐसा करते कि मुंह में कौर रख लिया और कोल्हू चलाने लगे। कोल्हू पेरते पेरते, थालियों में पसीना टपकाते टपकाते, कौर को उठाकर मुंह में भरकर निगलते कोल्हू पेरते रहते। ” 100 में से एकाध ऐसे थे जो दिन भर कोल्हू में जुतकर तीस पौंड तेल निकाल पाते। जो कोल्हू चलाते चलाते थककर हार कर दते उन पर जमादार और वार्डन की मार पड़ती। तेल पूरा न होने पर उपर से थप्पड़ पड़ रहे हैं, आँखों में आंसुओं की धारा बह रही है।”
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गौरतलब है कि आजादी के बाद से कुछ लोगों को नायक बनाने का पूरा प्रयास किया गया। यही वजह है कि आजादी के तमाम नायक आज भी गुमनाम हैं। जिन्हें कुछ लोग ही जानती हैं। इतिहासकारों ने पद-प्रतिष्ठा की लालच में ऐसे झूठ गढ़े कि लोग उसे सच मान बैठे। इतिहासकारों ने सच्चाई के साथ जो छल किया है, वह छिटपुट मिल रहे तथ्यों से साबित होता है। देश को स्वतंत्र कराने में अपना सब कुछ न्योछावर करने वाले वीर सावरकर के बारे में ऐसा अर्धसत्य प्रसारित किया गया कि आज भी अधिकतर लोग उन्हें विलेन समझने की गलती कर रहे हैं। दुर्भाग्य है कि इस झूठ को कम पढ़ें लिखे लोगों से ज्यादा उन लोगों ने प्रसारित किया जो वीर सावरकर की जीवनी से काफी परिचित हैं, लेकिन सत्ता की चाटुकारिता करने के चक्कर में सच जानते हुए भी लिखने की हिम्मत नहीं जुटा सके। ऐसे ही बुद्धिजीवियों ने इतिहास के साथ ऐसी छेड़छाड़ की है कि सच जान पाना मुश्किल हो गया है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
बिलकुल सटीक जानकारी है