True Story: भारत के ऋषियों, महान कवियों और ज्ञानी जनों की महत्ता को न्यून सिद्ध करने के लिए मुगलों से अधिक अंग्रेजों ने षडयन्त्र किये। पाठ्यक्रमों में पढ़ाया गया कि संसार के प्रथम कवि महर्षि वाल्मीकि एक डाकू थे। संस्कृत भाषा के महान लेखक कालिदास अज्ञानी ही नहीं मूढ़ थे। इसी तरह गोस्वामी तुलसीदास को स्त्री प्रेमी बताया गया। जबकि वह अपने वैवाहिक जीवन को त्याग कर सन्त बने थे। तद्यपि उन्हें उफनती यमुना को शव पर बैठकर पार करने वाला बताया गया। यह भी पढ़ाया जाता रहा कि तुलसीदास मरे हुए सर्प को मुंडेर से लटकती रस्सी समझ कर छत पर चढ़ने के लिए प्रयोग किया था। वह चुपके से अपनी ससुराल में पत्नी से मिलने गये थे। जहाँ पत्नी रत्नावली द्वारा धिक्कारे गये थे।
इस तरह फिर से बरसात की रात में भीगते हुए यमुना की उफनती धारा में कूद कर किसी तरह बच कर निकल आये थे। ऐसे प्रसंग भारत के अनेक महान ऋषियों, कवियों, विज्ञानियों के साथ निकृष्ट मानसिकता के कारण अंग्रेजों ने जोड़े थे। जिनका पठन-पाठन भारत की पीढ़ियों को निरन्तर कराया जाता रहा है। भारत को स्वतन्त्रता मिलने के बाद भी इनसे मुक्ति नहीं दिलायी गयी। यह कलंक की बात है कि भारत अपने पूर्वजों के साथ किये गये अन्याय का प्रक्षालन करने का बौद्धिक सामर्थ्य अब तक विकसित नहीं कर सका।
वास्तुविकता यह है कि महर्षि वाल्मीकि माता साध्वी चर्षणी के पुत्र थे। ऋषि वरुण उनके पिता थे। यह अति श्रेष्ठ ऋषि भृगु के लघु भ्राता थे। उपनिषदों के अनुसार भृगु ऐसे महान तपस्वी थे कि उन्हें योग विद्या के परमगुरु की संज्ञा प्राप्त थी। स्वयं शिवजी से उन्होंने योग विद्या का ज्ञान प्राप्त किया था। यह वही ऋषिवर भृगु थे जिन्होंने साक्षात भगवान विष्णु को अपने पांव से मारा था। कोप के कारण यह घटना घटी थी। तब भगवान विष्णु ने उन्हें ज्ञान देकर कहा था कि समस्त विद्याएं अर्जित करने पर भी शील का त्याग नहीं करना चाहिए। भृगु इसके पूर्व ब्रह्मा और शिव से भी मिले थे।
भृगु ने ही अपने छोटे भाई वाल्मीकि को तप करने की दीक्षा दी थी। दीर्घ काल तक एक स्थान पर बैठे रहकर वरुण पुत्र वाल्मीकि इतने एकाग्र होकर तक करते रहे कि उनके शरीर के चतुर्दिक दीमक ने बाम्बी बना ली। बाम्बी को संस्कृत में वाल्मीकि कहते हैं। जब वह उससे बाहर निकले तो उनका नाम वाल्मीकि पड़ गया। इनके पिता वरुण भी एक ऋषि थे। वरुण के पिता का नाम कश्यप था। इस प्रकार इनके पूर्वज ऋषि परम्परा के थे। उस समय किसी प्रकार का जातीय भेद नहीं था। किसका जन्म किस वर्ण में हुआ इसको महत्व नहीं दिया जाता था।
व्यक्ति के गुण ही महत्व रखते थे। कश्यप से लेकर वाल्मीकि तक सभी वैदिक ऋषि हैं। बहुत से लोग महर्षि वाल्मीकि को उनके जन्म के वर्ण के आधार पर पूजते हैं। यह आधुनिक समय की संकल्पना है। पर यह सच्चाई है कि संसार के प्रथम लेखक, कवि और रचनाकार का श्रेय वाल्मीकि को प्राप्त है जो श्रीराम के समकालीन थे। उनकी भेंट श्रीराम और उनके कुल के सदस्यों से हुई थी। उनके दोनों बच्चों का पालन, पोषण और दीक्षा महर्षि वाल्मीकि ने अपने आश्रम में रखकर दी थी।
अंग्रेजों ने तो महर्षि वाल्मीकि के रामायण ग्रन्थ के साथ भी कुत्सित मानसिकता के कारण छेड़छाड़ की। श्रीराम के दोनों पुत्र लव और कुश माता-पिता की इच्छा से वाल्मीकि के गुरुकुल में रहकर पढ़े थे। उन्हें सैन्य विद्या सहित संस्कृत भाषा के माध्यम से समस्त ज्ञान भी इसी गुरुकुल में मिला था। पर इस प्रसंग को विकृत करके यह दर्शाया गया कि श्रीराम ने अपनी भार्या सीता का परित्याग किया था। रामायण की प्राचीन प्रतियों में यह प्रसंग नहीं मिलता। 1831 में मद्रास (चेन्नै) में एक संस्कृत सम्मेलन हुआ था जिसमें वाल्मीकि रचित रामायण की मूल प्रति रखी गयी थी। उसमें सीता जी के त्याग का प्रसंग नहीं था।
1835 में मैकाले और उसका दल जब भारत आया तब भारत के महान ग्रन्थों, वेदों, पुराणों, उपनिषदों आदि के साथ छेड़छाड़ की गयी। अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस आदि के पुस्तकालयों में पहुँचा दिये गये। सम्पूर्ण वैदिक ग्रन्थ भारत में उपलब्ध नहीं हैं। इनको वापस लाने के प्रयत्न भी हमारी सरकारों ने कभी नहीं किये। भारत की नाविन्य पीढ़ियों पर यह दायित्व है कि वह विकृत किये गये इतिहास से मुक्त होने के उपक्रम करें। ज्ञानी जनों की देखरेख में ऐसा करना आवश्यक होगा।
भारत के अनेक धर्म ग्रन्थों में महर्षि वाल्मीकि का वास्तविक नाम रत्नाकर मिलता है। विकृत मनोवृत्ति के इतिहासकारों ने रत्नाकर के चरित्र का हनन किया। उन्हें ऋषि की संज्ञा से वंचित करने के लिए लुटेरा बताया। मिथ्या कहानी गढ़ी गयी। जिसमें देवर्षि नारद का नाम भी जोड़ा गया। यह कहानी दीर्घ काल से बच्चों को पढ़ायी जा रही है जो अवास्तविक और छद्म है।
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ऋषिवर वाल्मीकि वन में तप कर रहे थे। एक दिन जब वह प्रात: वन्दन के उपरान्त प्रकृति दर्शन और मनन में लीन थे एक शिकारी ने क्रोंच पक्षी पर तीर चला दिया। घायल पक्षी का बचाव ऋषिवर ने किया। इतना ही नहीं करुणा के कारण उनके मुख से जो शब्द निकले वह पृथ्वी लोक की प्रथम कविता बन गये। ब्रह्मा जी के कहने पर महर्षि वाल्मीकि ने रामायण जैसे महाकाव्य की रचना प्रारम्भ की। श्रीराम के जीवन की लीला दर्शाने वाले रामायण ग्रन्थ से प्रेरणा लेकर संसार के अनेक कवियों, लेखकों ने विभिन्न भाषाओं में महानायक श्रीराम की गाथा लिखी है। ऐसे परम सिद्ध महान युग पुरुष के चरित्र को धूमिल करने के लिए लुटेरा बताने का पाप किया गया। भारतीय मेधा के लिए यह बड़ी चुनौती है। विकृत सोच के कारण जिन्होंने ऐसा किया उनके नाम सर्व विदित हैं। उनके दोषों से बड़ा पाप देश के उन नायकों, लेखकों का है जिनमें इसका प्रक्षालन करने का बौद्धिक सामर्थ्य नहीं है।
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