संघ के सरकार्यवाह के रूप में 12 साल का कार्यकाल पूरा कर जब भैयाजी जोशी विदा हो रहे हैं, तब उनके पास एक सुनहरा अतीत है, सुंदर यादें हैं और असंभव को संभव होता देखने का सुख है। केंद्र में अपने विचारों की सरकार का दो बार सत्ता में आना शायद उनके लिए पहली खुशी न हो किंतु राम मंदिर का निर्माण और धारा 370 दो ऐसे सपने हैं, जिन्हें आजादी के बाद संघ ने सबसे ज्यादा चाहा था और वे सच हुए। ऐसा चमकदार कार्यकाल, संघ का सामाजिक और भौगोलिक विस्तार उनके कार्यकाल की ऐसी घटनाएं हैं, जिस पर कोई भी मुग्ध हो जाएगा। संघ की वैचारिक आस्था को जानने वाले जानते हैं कि संघ में व्यक्ति की जगह ‘विचार और ध्येयनिष्ठा’ ज्यादा बड़ी चीज है। बावजूद इसके जब उनकी जगह दत्तात्रेय होसबाले ले रहें हैं, तब यह देखना जरूरी है, यहां से अब संघ के सामने क्या लक्ष्य पथ होगा और होसबाले इस महापरिवार को क्या दिशा देते हैं।
अंग्रेजी में स्नातकोत्तर, आधुनिक विचारों के वाहक, जेपी आंदोलन के बरास्ते अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेता रहे और हिंदी-अंग्रेजी सहित कई भारतीय भाषाओं में संवाद कुशल होसबाले ने जब 13 साल की आयु में शाखा जाना प्रारंभ किया होगा, तब उन्हें शायद ही यह पता रहा कि यह विचार परिवार एक दिन राष्ट्र जीवन की दिशा तय करेगा और वे उसके नायकों में वे एक होगें। आपातकाल में 16 महीने जेल में रहे कर्नाटक के शिमोगा जिले के निवासी दत्तात्रेय होसबाले भी यह जानते हैं कि इतिहास की इस घड़ी में उनके संगठन ने उन पर जो भरोसा जताया है, उसकी चुनौतियां विलक्षण हैं। उन्हें पता है कि यहां से उन्हें संगठन को ज्यादा आधुनिक और ज्यादा सक्रिय बनाते हुए उस ‘नए भारत’ के साथ तालमेल करना है जो एक वैश्विक महाशक्ति बनने के रास्ते पर है।
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करोना जैसे संकट में हारकर बैठने के बजाए भारतीय मेघा की शक्ति को वैश्विक बनाते हुए उन्हें अपने कार्यकर्ताओं में वह आग फूंकनी है जिससे वे नई सदी की चुनौतियों को जिम्मेदारी से वहन कर सकें। 1992 के कानपुर विद्यार्थी परिषद के अधिवेशन में जब वे संघ के वरिष्ठ प्रचारक मदनदास देवी से परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री का दायित्व ले रहे थे, उसी दिन यह तय हो गया था कि वे एक दिन देश का वैचारिक नेतृत्व करेंगें। उसके बाद संघ के बौद्धिक प्रमुख और अब सरकार्यवाह के रूप में उनकी पदस्थापना इस बात का प्रतीक है कि परंपरा और सातत्य किस तरह किसी विचार आधारित संगठन को गढ़ते हैं। दत्ता जी एक उजली परंपरा के उत्तराधिकारी हैं और गुवाहाटी, पटना, लखनऊ, दिल्ली और बेंगलुरू में रहते हुए भी, देश भर में दौरा करते हुए उन्होंने ‘राष्ट्र के मन’ को समझा है।
राष्ट्र मन की अनुंगूंज, उसके सपनों और आकांक्षाओं की थाह उन्हें बेहतर पता है। इसी के साथ विदेशों में भारतीय समाज के साथ उनका सतत संवाद रहा है, इस तरह वे वैश्विक भारतीय मन के प्रवक्ता भी हैं। जिसे हमारे समय की चुनौतियों से जूझकर इस देश के राष्ट्रनायकों के सपनों को सच करना है। देश की आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में उनका संगठन शीर्ष पर होना कुछ कहता है। इसके मायने वे समझते हैं। सत्ता से मर्यादित दूरी रखते हुए वे उससे संवाद नहीं छोड़ते और अपना लक्ष्य नहीं भूलते। इस मायने में उनकी मौजूदगी एक संवादकुशल, प्रेरक और आत्मीय उपस्थिति भी है। वे लोकजीवन में गहरे घंसे हुए हुए हैं। वे स्वयं दक्षिण भारत से आते हैं, पूर्वोत्तर उनकी कर्मभूमि रहा है, असम की राजधानी गौहाटी में रहते हुए वे वहां के लोकमन की थाह लेते रहे हैं।
पटना और लखनऊ में वर्षों रहते हुए उन्होंने हिंदी ह्दय प्रदेश की भी चिंता की है। उनका मन इन भौगोलिक विस्तारों से बड़ा बना है। इन प्रवासों ने उन्हें सही मायने में अखिलभारतीय और वैश्विक चिति का स्वामी बनाया है। हम वसुधैव कुटुंबकम् कहते हैं वे इस मंत्र को जीने वाले नायक हैं। बहुत अपने से, बहुत स्नेहिल और बेहद आत्मीय। देश की युवा और छात्र शक्ति के बीच काम करते हुए उन्होंने उनके मन की थाह ली है। वे नई पीढ़ी से संवाद करना जानते हैं। उनके सपनों, उनकी आकांक्षाओं को जानते हैं। वे छात्र राजनीति के रास्ते समाज नीति में आए हैं इसलिए वे बहुत व्यापक और उदार हैं। उनकी रेंज और कवरेज एरिया बहुत बड़ा है।
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संघ के शिखर पदों पर रहते हुए वे देश के शिखर बुद्धिजीवियों, कलावंतों, विचारवंतों, साहित्य, संगीत,पत्रकारिता और सिनेमा की दुनिया के लोगों से संवाद रखते रहे हैं। इन बौद्धिक संवादों ने उन्हें समृद्ध किया है और उनकी चेतना को ज्यादा सरोकारी और ज्यादा समावेशी बनाया है। इस मायने में वे भारतीय मेघा का आदर करने वाले और उसे राष्ट्रीय सरोकारों से जोड़ने वाले कार्यकर्ता भी हैं। सामान्य स्वयंसेवक से लेकर देश की शिखर प्रतिभाओं से उनका आत्मीय संवाद है और सबके प्रति उनके मन में आदर है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक खास परिपाटी है। संगठन की दृष्टि से संघ अप्रतिम है। इसलिए संगठन स्तर पर वहां कोई चुनौती नहीं है। वह अपने तरीके से चलता है और आगे बढ़ता जाता है। किंतु दत्ताजी का नेतृत्व उसे ज्यादा समावेशी, ज्यादा सरोकारी और ज्यादा संवेदनशील बनाएगा और वे अपने स्वयंसेवकों में वही आग फूंक सकेंगें जिसे लेकर वे शिमोगा के एक गांव से विचारयात्रा के शिखर तक पहुंचे हैं। उनका यहां पहुंचना इस भरोसे का भी प्रमाण है कि ध्येयनिष्ठा से क्या हो सकता है। उनकी शिखर पर मौजूदगी हमें आश्वस्त करती है कि भैया जी सरीखे प्रचारकों ने जिस परंपरा का उत्तराधिकार उन्हें सौंपा है, वे उस चादर को और उजला कर भारत मां के यश में वृद्धि ही करेंगें। साथ ही इस देश की तमाम शोषित, पीड़ित मानवता की जिंदगी में उजाला लाने के लिए अपने संगठन के सामाजिक प्रकल्पों को और बल देगें।
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं)