राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (Rashtriya Swayamsevak Sangh) वस्तुतः एक सांस्कृतिक संगठन है। इस संगठन में व्यक्तियों का निर्माण करने की योजनाएं बनाई और क्रियान्वित की जाती हैं। जब कोई व्यक्ति संघ में कार्य करने और इसके कार्यों में योगदान करने आता है तो स्वाभाविक है कि वह समाज के बारे में आवश्यक रूप से अपनी एक अवधरणा बनाकर ही आता है। संघ के साथ जब वह जुड़़ कर कार्य करना प्रारंभ करता है तो शाखा, वर्ग, प्रशिक्षण और अन्य कार्यक्रमों से जुड़़ कर आगे चलते हुए वह समाज की विसंगतियों के प्रति सचेत होता है। समाज कोई एक संगठन नहीं है। मानव समुदाय की जीवन संस्कृति का क्रमिक विकास सतत रूप से समाज का निर्माण करता है। यह व्यक्ति, परिवार, कुटुंब, ग्राम, उपनगर, नगर, महानगर, जनपद और प्रान्त से जुड़़ते हुए राष्ट्र और विश्व फलक के रूप में दृश्यमान होने लगता है।
समाज के इस निर्माण या गठन की प्रक्रिया में विविध मत, मतांतर, पंथ, जाति, समुदाय अपने अपने स्वरूप में शामिल रहते हैं। ऐसे में समाज की समरसता, एकात्मता और इसकी सामूहिक शक्ति का उपयोग राष्ट्र के निर्माण में कैसे किया जाना है, यह एक प्रश्न सामने आता है। इसी प्रश्न का उत्तर संघ उपलब्ध कराता है। संघ के गठन से अब तक की यात्रा का अभिप्राय ही यही है। संघ इसके समाधान के लिए केवल एक ही लक्ष्य लेकर आगे बढ़ता है जो एक स्वयंसेवक के रूप में एक ऐसे व्यक्ति का निर्माण है जो समाज की समरसता, हिंदुत्व की अवधारणा, राष्ट्रवादी चिंतन और उस दिशा में राष्ट्र के विकास के लिए निरंतर प्रयत्नशील हो।
यह समाज के सभी उपक्रमों के लिए कार्य करने वाला हो। जैसे शिक्षा, सेवा, प्राकृतिक संरक्षण, जल संरक्षण, सामाजिक सद्भाव, श्रमिक चेतना, उद्यमी संरक्षण, स्वदेशी के विकास, प्राकृतिक संसाधनों का समेकित उपयोग, जैविक कृषि, स्वदेशी तकनीक, बनवासी कल्याण, बनवासी उन्नयन, बनवासी क्षेत्रो में शिक्षा और रोजगार का उद्भव आदि अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जिनमे निरंतर कार्य करते हुए स्वयसेवकों ने समाज और राष्ट्र की सोच में व्यापक परिवर्तन लाकर अद्भुत कार्य किया है।
इसको एक अन्य उदाहरण से समझ सकते हैं। जो भी लोग भारत विभाजन और उस समय की त्रासदी से थोड़े से भी परिचित हैं उन्हें यह संज्ञान में होगा कि संघ के स्वयंसेवकों ने जान की बाजी लगाकर सेवा कार्य किया था। दंगों से जल रहे क्षेत्रों में सेवा और सद्भाव के शिविर यदि किसी संगठन ने लगाए तो वे केवल संघ के ही थे।
इतिहास साक्षी है कि देश में जब जब कोई दैविक या मानवकृत आपदा आयी है तो संघ मानवता के कल्याण के लिए सबसे आगे रहा है। चाहे वह भूकंप की त्रासदी हो, आपातकाल की राजनैतिक त्रासदी हो, सुनामी हो या केदारनाथ की भयानक त्रासदी। यह प्रमाणित है कि सेवा के जितने भी प्रकल्प कहीं भी लगे हैं उनमें संघ सबसे आगे रहा है। अभी विगत दो वर्षों में कोरोना की महामारी में अपनी सुरक्षा को संकट में डाल कर स्वयंसेवकों ने अद्भुत कार्य किया है। संघ का यह कार्य किसी क्षेत्र विशेष में नहीं बल्कि देश के हर कोने में स्वयंसेवक अपने प्राणपण से सेवा में जुटे दिखे।
यह एक अन्य उदाहरण से और भी अच्छे से समझा जा सकता है। देश जब आजाद हुआ उस समय प्रत्येक औद्योगिक इकाई में वामपंथी कम्युनिष्ट विचार धारा के मजदूर संगठनों का वर्चस्व था। उद्योगों के स्वामी और इन संगठनों के संबंध बहुत विकट थे। काम के बदले दाम और काम के घंटे आदि के नारों से उद्योग जगत की हालत श्रमिक और स्वामी के बीच दुश्मनी के भाव में थी। नतीजा यह होने लगा कि उद्यमी परेशान होकर उद्योगों का स्थानांतर करने लगे। श्रमिक आंदोलनों से बहुत खराब माहौल बनने लगा। यह सब सरकार के सार्वजनिक उद्यमो में भी था। इसी बीच संघ के एक स्वयंसेवक दत्तोपंत ठेंगड़ी का आविर्भाव हुआ। भारतीय मजदूर संघ की स्थापना हुई। इस संगठन ने स्वामी और श्रमिक के बीच स्वदेश की उन्नति को केंद्र में रख कर संवाद बनाया और परिवेश बदल गया।
शिक्षा के क्षेत्र में भी यही हुआ। छात्र संघों के नाम पर परिसरों में अराजक परिवेश गढ़ा जा रहा था। संघ के स्वयंसेवकों ने परिसरों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की नींव रखी। स्वामी विवेकानंद को आदर्श के रूप में प्रस्तुत कर नई पीढ़ी के बीच भारतीय होने का गर्व भरा और माहौल बदल गया। आज भारत के कुछ संस्थानों को छोड़ दिया जाय तो प्रायः सभी परिसर स्वदेशी और राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत होकर कार्य कर रहे हैं।
छुआछूत, दहेज, नारी उत्पीड़न, सामाजिक भेदभाव और अनेक समाजिक विसंगतियों के विरुद्ध संघ के स्वयं सेवक निरंतर कार्य कर रहे हैं। समाज के प्रत्येक क्षेत्र इस समय यदि राष्ट्रीय और हिंदुत्व की विराट भावना से कार्य कर रहे हैं तो यह सबकुछ संघ के स्वयंसेवकों की कर्मशीलता और निरंतर उनके परिश्रम का ही परिणाम है। समाज और व्यवस्था परिवर्तन में स्वयं सेवकों की भूमिका को इस रूप में भी समझा जा सकता है कि यहां समय समय पर ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जनता को जागरूक भी किया और उससे मुक्ति भी दिलाई। इतिहास ऐसे महापुरुषों से भरा पड़ा है। उदाहरण के लिए उनमें से कुछ कर रहे हैं।
कबीरदास, गुरु घासीदास, गुरु अमरदास, गुरु बालकदास, भीमराव आंबेडकर, महात्मा गाँधी, जमनालाल बजाज, विनोबा भावे, बाबा आम्टे, श्रीराम शर्मा आचार्य, पांडुरंग शास्त्री आठवले, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, धोंडो केशव कर्वे, बाल गंधाधर जांभेकर, एनी बेसेण्ट, विट्ठल रामजी शिंदे, गोपाल हरि देशमुख, कान्दुकुरी वीरेशलिंगम, गोपाल गणेश आगरकर, दयानन्द सरस्वती, केशव सीताराम ठाकरे, रघुनन्दन भट्टाचार्य, राजा राममोहन राय, सावित्रीबाई फुले, स्वामी केशवानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती, ज्योतिराव गोविंदराव फुले, स्वामी विवेकानंद, गुरू नानक देव, जहांगीर रतन दादा भाई टाटा, महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी जैसे हजारों महामनीषी इस धरती पर जन्म लिए हैं जिन्होंने सती प्रथा, दहेज प्रथा, महिला सशक्तिकरण, दलित उत्थान, छुआछूत, सामाजिक समरसता, हिंदुत्व और हिन्दू चेतना जैसे विषयों पर कार्य कर भारत के लोगों में भारतीयता की भावना का संचार किया। सामाजिक भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास किया। बाल गंगाधर तिलक ने एक गणेश पूजा के माध्यम से अलगाववाद जैसी विकट समस्या का समाधान दे दिया।
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इसी क्रम में एक संदर्भ याद आता है। 1969 में उडुपी में धर्माचार्य सम्मेलन चल रहा था। इस सम्मेलन में पूज्य गुरुजी ने देश के धर्माचार्यों के मंच में एक बहुत महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास कराया- हिंदवे सह्योदरे सर्वे:। इस प्रस्ताव में देश मे हिन्दू एकता को बहुत बल दिया। समाज में बहुत बड़ा परिवर्तन देखने को मिला। यह वैसा ही हुआ जैसे महात्मा कबीर ने सामाजिक समरसता के लिए लोगों को प्रेरित किया और राजाराम मोहन राय ने सती और दहेज प्रथा के विरुद्ध कार्य किया। यही कार्य संघ के स्वयंसेवक कर रहे हैं जिससे हिंदुत्व की व्यापक, सार्वभौमिक अवधारणा से विश्व परिचित हो रहा है।
आज भारत ही नहीं बल्कि विश्व पटल पर संघ और संघ की विचारधारा से प्रशिक्षित स्वयंसेवक समाज के अलग अलग हिस्सों में कार्य करने में जुटे हैं। भारत के प्राचीन और महान इतिहास से इतर भ्रामक इतिहास लिख कर भारत को बदनाम करने वाले कथित लेखकों और इतिहासकारों के षड्यंत्रों का ठीक से खुलासा होने लगा है। भारत की महान सनातन हिन्दू पारम्परा के प्राचीन प्रमाणों की निरंतर खोज चल रही है जिसमे स्वयंसेवक कार्य कर रहे है। भारत का गौरवशाली इतिहास अब नई पीढ़ी के सामने आ रहा है। राखीगढ़ी के अवशेष इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
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ये बाते कुछ उदाहरण मात्र हैं। स्वयंसेवक के रूप में समाज के हर वर्ग, प्रभाग और प्रकल्प को इसके प्रभाव का लाभ मिल रहा है। शिक्षा के साथ साथ प्रशासनिक तंत्र, रक्षा तंत्र, राजनीति, सामाजिकी, पारिस्थितिकी, सामूहिक विवाह, सामूहिक सहभोज, सामूहिक समन्वय के रूप में कार्य होता दिख रहा है जिसके केंद्र में संघ और संघ के स्वयंसेवक ही हैं। हिन्दू समाज की कुरीतियों को समाप्त करने में संघ के स्वयंसेवकों ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। जो लोग हिन्दू समाज से अलग हो गए थे उनकी घर वापसी का प्रयास एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। हिन्दू भावनाओं का विकास और उनके संरक्षण में स्वयंसेवक लगातार प्रयास कर रहे हैं। केवल भारत ही नहीं वरन विश्व में आज यदि हिंदुत्व की सीकार्यता बढ़ती जा रही है तो यह सब स्वयंसेवकों के प्रयास से ही हो पा रहा है।
(लेखक कानपुर बुंदेलखंड के प्रांत प्रचारक हैं)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)