Parmanand Pandey
परमानन्द पाण्डेय

उर के सुर विपरीत हो जब, झूठे करीब में मीत हो जब,
साथ हो भीड़ रकीबों की, आदेश हो बुद्धिगरीबों की।

सीधी राहों से कट लेना, ‘बागी’ की बातें रट लेना,
क्या मजाल कायरता की, जो रक्त प्रवाह में हो तेरे,
चोट शत्रु की शान पे कर, सफर में होंगे बहुतेरे।

भीड़ लंपटों की होगी असुरों के बीच महाराण में,
उठ खडग कटार चला वीरे, अब वक्त नहीं संघारण में,
कायर क्या शस्त्र उठाएगा, क्या जाने वीरों की बिसात,
सम्मुख नरभक्षी खड़े सभी, टिक सके कहां इतनी औकात।

झूठी शान शत्रु निर्बल, तेरा वार क्या रोकेगा,
मार लात जब साख पर हो, शौर्य तेरा जग देखेगा।

नागफनी को कहां पता, गरिमा पुष्प कमल दल का,
मूरख को आभास कहां, वीर, सिंह के भुजबल का,
महल की चकाचौंध बाकी है, दरक चुका है भीतर से,
वक्त आ गया खंडहर का मुस्कान बची है ऊपर से।

महल के चाटुकार मंत्री से, शहंशाह न वाकिफ है,
निर्बुद्धि हाथ में है कमान, इसलिए प्रजा भी पीड़ित है।

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