Arvind Sharma
अरविंद शर्मा ‘अजनबी’

कवि! तू झूठा है, यह बात मैं,
डंके की चोट पर कहती हूँ!
तेरी विरह गाथा के पीछे,
मैं एक सचाई देखती हूँ।

मैंने तेरा हाल पता किया,
तेरे घर की हर ख़बर जानी,
तेरी डायरी के हर पन्ने पर,
ख़ुशियों की है निशानी!

तेरे पास प्रेम है सच्चा,
भाव लिखने को बहुत कुछ है,
यह केवल तेरी ज़िद है,
कि तू जानबूझकर ख़ुश नहीं है।

तू क्यों कहता है जीवन तेरा,
बस पीड़ा से भरा हुआ है?
तू ग़लत करता है कि तूने,
ख़ुद को ग़म में धरा हुआ है!

वह पत्नी जो तुझ पर हर पल,
अपनी जान लुटाती है,
तेरे बच्चों की आँखों में,
जो तेरी छवि झलकती है।

क्या वह स्नेह नहीं है सच्चा?
क्या वह प्यार नहीं है यार?
जीवन का सबसे बड़ा श्रृंगार,
है यह तेरा अपना परिवार!

(कवि- का जवाब)

हाँ, मेरी प्यारी कलम! तूने,
मर्म को मेरे छू लिया,
मैंने पाया है अमूल्य प्रेम,
यह झूठ नहीं, तूने कहा।

मैं कैसे भूलूँ उन लम्हों को,
जो ईश्वर ने मुझे दिए,
मेरे जीवन के वे बच्चे,
अनमोल उजियारे दीए!

जब दौड़कर पास वे मेरे,
हँसते-हँसते आते हैं,
छोटा सा संसार मेरा,
उनके संग ही बस जाता है।

उनके छोटे हाथों में,
मेरा कल सँवर जाता है,
उन्हें दूर देखकर भी,
मेरा मन भर आता है!

जब पूछते हैं वे पापा!
कहाँ जाओगे तुम कल?
इस छोटे से सवाल में,
छिपता है प्रेम का जल।

मैं काम पे जाने का जब,
उनको कारण बतलाता हूँ,
तो दिल मेरा रोता है,
उन्हें छोड़ मैं जब जाता हूँ।

उनके माथे की एक चुम्मी,
सारा दुःख हर लेती है,
उनकी मासूमियत मुझको,
पल-पल जीना सिखाती है।

यह प्रेम का, ऋण है मुझ पर,
जो मैं कभी चुका न पाऊँगा,
कलम! इस प्रेम के बिना,
मैं एक पल न रह पाऊँगा।

वह स्नेह है, वह ख़ुशी है,
यह बात सत्य मैं कहता हूँ,
हर पल उनकी यादों के,
मैं साए में ही रहता हूँ।

पर तू समझे न मजबूरी,
यह समय और परिस्थितियाँ,
जीवन की यह दौड़-भाग,
ये ज़ालिम ज़िम्मेदारियाँ!

मैं दिखला नहीं पाता हूँ,
वह प्रेम जो भीतर है मेरे,
रहता हूँ दूर मैं उनसे,
बस कर्म के गहरे फेरे।

जो प्रेम बाँधकर रखती है,
मुझे दुनिया के दस्तूरों में,
वह प्रकट नहीं हो पाता है,
इन दूरियों और फितूरों में।

वह भी विरह है, जब पास,
होकर भी पास नहीं हो तुम,
जब होठों पर न आ पाए,
वह बात जो मन में हो गुम।

मेरा गीत इसलिए विरही,
मेरी कलम इसलिए रोती है,
क्योंकि मैं प्रेम का ऋणी हूँ,
और यह पीड़ा बड़ी होती है।

जब घर का प्यार अधूरा हो,
कवि के अपने जीवन में,
वह विरह का गीत लिखेगा,
उसी व्यथा को अंतरमन में।

(कलम की सहमती)

समझ गई, कवि! तेरी पीड़ा,
तू दूरियों से हारता है,
तू जिसे विरह कहता है,
वह असमर्थता का भार है।

पर इतना विश्वास दिला दे,
तू प्रेम को देगा मान कभी,
जब दूरी मिटेगी जीवन से,
तब हर्ष की पहचान होगी।

(कवि का जवाब)

हाँ, कलम! मैं शपथ लेता हूँ,
जिस दिन मैं मुक्त हो जाऊँगा,
मैं इस दूरी को तोड़कर,
प्रेम का, गीत सुनाऊंगा।

तब श्रृंगार भी होगा सच्चा,
प्रीति का गान भी होगा,
पर जब तक हूँ बँधा हुआ,
तब तक यह दर्द ही होगा।

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