खुली आँख थी या कि तुम सो रहे थे,
कहीं उड़ गया था तुम्हारा सुआ क्या?
घटना घटी देखकर पूछते हो!
हुआ क्या? हुआ क्या? हुआ क्या? हुआ क्या?

निजी स्वार्थ में इस तरह रंग गए हो,
किसी दूसरे रंग में जी न पाए।
सदा दूसरों को दिया कष्ट तुमने,
किसी की विवशता समझ भी न पाए।।
कपट लोभ लालच छुपाया सभी से,
बताना तुम्हें था बताती बुआ क्या?
बहाने बना कर उलट पूछते हो!
हुआ क्या? हुआ क्या? हुआ क्या? हुआ क्या?

नशे के विकट जोश में होश खोकर,
स्वयं को स्वयंभू गुणागार माना।
परम वैभवी दिव्यता छोड़ बैठे,
दुराचार को ही सदाचार जाना।।
अकड़ में तने ही रहे हिमशिखर से,
तुम्हारे अहम ने कभी नभ छुआ क्या?
तुम्हें सब पता है मगर पूछते हो!
हुआ क्या? हुआ क्या? हुआ क्या? हुआ क्या?

विषय की विकारी मनोरम्यता में,
रमे तो किसी की रजा भूल बैठे।
मनोकामना को न मारा कभी भी,
मगर तुम समय की सजा भूल बैठे।।
करोड़ों जुए में गए जीत लेकिन,
कभी जिन्दगी में न समझा, जुआ क्या?
कहानी तुम्हारी तुम्हीं पूछते हो,
हुआ क्या? हुआ क्या? हुआ क्या? हुआ क्या?

परिणाम आने लगे सामने तो,
इधर फेरकर मुँह कहाँ खो रहे हो?
सुधा सी सरस भावना छोड़कर क्यों?
गरल सी दुखों की फसल बो रहे हो?
दिखावा किया खूब मेहनत का बेशक,
आँसू चुए थे पसीना चुआ क्या?
आने लगीं खामियाँ पूछते हो,
हुआ क्या? हुआ क्या? हुआ क्या? हुआ क्या?

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”

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