Pitru Paksha: भारतीय जीवन संस्कृति की अति महत्वपूर्ण विशेषता है अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान की भावना। इसी सम्मान की अभिव्यक्ति के लिए हमारी सांस्कृति यात्रा में पितृपक्ष के रूप में वर्ष के पंद्रह दिन एक वार्षिक पड़ाव के रूप में आते है। इन दिनों में भारत की संस्कृति में विश्वास करने वाला प्रत्येक मनुष्य अपने पितरों को याद करता है। यह अद्भुत परंपरा है, जो सृष्टि के साथ ही विधान के रूप में चली आ रही है। सृष्टि में इस पृथ्वी नाम के उपग्रह पर मनुष्य जो जीवन व्यतीत करता है, उसके बाद भी उसकी जीवन यात्रा चलती रहती है। सूक्ष्म रूप ग्रहण करने के बाद पृथ्वी वाला शरीर छोड़ चुके प्राणी की उस अनंत यात्रा को सफल और सुगम बनाने के लिए आवश्यक होता है कि उसके वंशज उसे श्रद्धा और सम्मान के साथ उस यात्रा के योग्य सुविधा संपन्न करे। इसी कार्य के लिए हमारे यहाँ पितृ पक्ष का विशिष्ट महत्व होता है।
पितृ पक्ष को श्राद्ध पक्ष के रूप में जाना जाता है, पितृ पक्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को चालू होता है और सर्वपितृ अमावस्या पर 16 दिनों के बाद समाप्त होता है। पितृ पक्ष में हिन्दू अपने पूर्वज (पितृ) की पूजा करते हैं, खासकर उनके नाम पर भोजन दान और तर्पण के द्वारा। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार पितृ पक्ष के 16 दिनों में पितरों को यमलोक से मुक्त किया जाता है और उन्हें पृथ्वी पर जाने की इजाजत होती है।
पितृ पक्ष का आखिरी दिन ‘सर्वपित्रू अमावस्या या महालय अमावस्या’ के रूप में जाना जाता है, पितृ पक्ष का यह सबसे महत्वपूर्ण दिन है। अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए हमारी सभ्यता ने प्रति वर्ष 15 दिन निर्धारित किया है। इन दिनों में श्रध्दापूर्वक पितरों को याद कर उनके लिए विधि पूजन, पिंड दान और तर्पण का विधान हमारे शास्त्रों में बताया गया है। पितर दो प्रकार के होते है-
आज़ान पितर
जिन पितरो की अंतिम क्रिया और संस्कार पूरी विधि और श्रद्धापूर्वक की जाती है वे आज़ान पितर कहलाते हैं। इन पितरों को अपने वंशजों से पूर्ण श्रद्धा मिलती है और ये तृप्त होकर आज़ान पितर बन कर स्थापित होते हैं। वहां से फिर अपने अपने प्रारब्ध के अनुसार इनकी मुक्ति या पुनर्जन्म की व्यवस्था बनाती है। इन्हें अपने वंशजों से किसी प्रकार की अतृप्ति नहीं होती।
मर्त्यपितर
वे पितर जिनका श्रद्धा कर्म और अंतिम क्रिया विधि पूर्वक नहीं होती है, वे सदैव अतृप्त होकर मर्त्य पितर के रूप में भटकते रहते है। इनको आज़ान बनाने का अवसर नहीं मिलपाता और ये सदैव अपने वंशजों की प्रतीक्षा में रहते है। पितरलोक में इनको स्थान ही नहीं मिलता। ये पितरलोक में प्रवेश के लिए अपने वंशजों द्वारा श्राद्ध कर्म किये जाने की हमेशा प्रतीक्षा करते हैं।
शास्त्रो के अनुसार जब मनुष्य का अंतिम संस्कार विधिपूर्वक करने के बाद उसकी संतान के द्वारा पिंडोदक और पिंडछेदन की क्रिया सम्पन करा दी जाती है, तब उस आत्मा को आज़ानपितर के रूप में पितरलोक में स्थान मिल जाता है और अपने वंशजों से उसकी कोई अन्य अपेक्षा शेष नहीं रह जाती। पितरों के प्रति इसी श्रद्धा की पूर्ति के लिए शास्त्रों ने विधान तय कर इस कार्य के लिए उत्तर भारत में गया जी नामक स्थान को निर्धारित किया है, जहां प्रतिवर्ष पितृपक्ष में लोग अपने पितरों को अपनी श्रद्धा पूर्ण कर आज़ान पितर के रूप में पितरलोक में स्थापित करने जाते हैं।
तर्पण और श्राद्धकर्म के लिए श्रेष्ठ समय
पितृ शांति के लिए तर्पण का श्रेष्ठ समय संगवकाल यानी सुबह 8 से लेकर 11 बजे तक माना जाता है। इस दौरान किया गया जल से तर्पण पितरों को तृप्त करने के साथ पितृदोष और पितृऋण से मुक्ति भी देता है। इसी प्रकार शास्त्रों के अनुसार तर्पण के बाद बाकी श्राद्ध कर्म के लिए सबसे शुभ और फलदायी समय कुतपकाल होता है। ज्योतिष गणना के अनुसार यह समय हर तिथि पर सुबह 11.36 से दोपहर 12.24 तक होता है। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि इस समय सूर्य की रोशनी और ताप कम होने के साथ-साथ पश्चिमाभिमुख हो जाते है। ऐसी स्थिति में पितर अपने वंशजों द्वारा श्रद्धा से भोग लगाए कव्य बिना किसी कठिनाई के ग्रहण करते हैं।
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श्राद्ध की विधि
जिस तिथि को आपको घर में श्राद्ध करना हो उस दिन प्रात: काल जल्दी उठ कर स्नान आदि से निवृत्त हो जाये। पितरों के निम्मित भगवान सूर्य देव को जल अर्पण करे और अपने नित्य नियम की पूजा करके अपने रसोई घर की शुद्ध जल से साफ़ सफाई करे, और पितरों की सुरुचि यानि उनके पसंद का स्वादिष्ट भोजन बनाये। भोजन को एक थाली में रख लें और पञ्च बलि के लिए पांच जगह 2-2 पूरी या रोटी जो भी आपने बनायीं है, उस पर थोड़ी सी खीर रख कर पञ्च पत्तलों पर रख ले। एक उपला यानि गाय के गोबर का कंडे को गरम करके किसी पात्र में रख दें। अब आप अपने घर की दक्षिण दिशा की तरफ मुख करके बैठ जाये। अपने सामने अपने पितरों की तस्वीर को एक चौकी पर स्थापित कर दें। एक महत्वपूर्ण बात जो यह है की पितरों की पूजा में रोली और चावल वर्जित है। रोली रजोगुणी होने के कारण पितरों को नहीं चढ़ती, चंदन सतोगुणी होता है। अतः भगवान शिव की तरह पितरों को भी चन्दन अर्पण किया जाता है। इसके अलावा पितरों को सफेद फूल चढ़ाए जाते हैं, तो आप भी अपने पितरो को चन्दन का टीका लगाये और सफ़ेद पुष्प अर्पण करें। उनके समक्ष धूप और शुद्ध घी का दीपक जलाये। हाथ जोड़ कर अपने पितरों से प्रार्थना करें।
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