Narendra Bhadauria
नरेन्द्र भदौरिया

किसी भी राष्ट्र की उन्नति के लिये उस देश के नायकों की राष्ट्रवाद के प्रति अवधारणा का बड़ा महत्व होता है। अमेरिका में एक महान विचारक हुए हैं- सैमुअल फिलिप्स हंटिंगटन (Samuel P Huntington)। इनका जन्म 18 अप्रैल, 1927 को हुआ था। हंटिंगटन ने एक ऐसी पुस्तक लिखी है, जिसको पढ़कर अमेरिका ही नहीं दक्षिणी अमेरिकी देशों और यूरोपियों देशों में विचारकों के कान खड़े हो गये। हंटिंगटन (Samuel P Huntington) की पुस्तक का नाम है हू वी आर (आखिर हम हैं कौन) इस पुस्तक में उन्होंने अमेरिकी लोगों के चिंतन को झकझोरते हुए कहा कि राष्ट्रवाद की उदारता ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। विचार करना चाहिए आखिर हम कौन हैं- हमने अपने स्वत्व अर्थात अपने आत्मबोध को भुला दिया। उदारता की होड़ में अपनी पहचान से समझौता कर लिया। मान्यताओं को पीछे ढकेलने लगे। इसने हमारा स्वत्व हमसे छीन लिया।

हंटिंगटन (Samuel P Huntington) एक अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक, सलाहकार और अकादमिक थे। उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय (Harvard University) में पचास साल से ज़्यादा बिताए, जहां वे हार्वर्ड के सेंटर फॉर इंटरनेशनल अफेयर्स के निदेशक और प्रोफ़ेसर थे। जिमी कार्टर की अध्यक्षता के दौरान, हंटिंगटन नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के लिए सुरक्षा योजना के व्हाइट हाउस समन्वयक थे। दक्षिण अफ्रीका में 1980 के रंगभेद युग के दौरान, उन्होंने पीडब्लू बोथा की सुरक्षा सेवाओं के सलाहकार के रूप में कार्य किया। उनकी चर्चित पुस्तक “हू आर वी? द चैलेंजेस टू अमेरिकाज नेशनल आइडेंटिटी” (कौन हैं हम? अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौतियाँ) (2004) ने अमेरिका से आह्वान किया कि वह “लातिनो और इस्लामी प्रवासियों के खतरों” से अपने आप को बचाने के लिए “प्रोटेस्टेंट धर्मों” को अपनाए और इन प्रवासियों को अंग्रेज़ी भाषा अपनाने के लिए बाध्य करे। उन्हें डर था कि ऐसा न करने पर अमेरिका भविष्य में दो अलग गुटों में बँट सकता है।

भारत को स्वतंत्रता के नाम पर जो खण्ड जवाहर लाल नेहरू के हवाले किया गया, उसके लिए राष्ट्रवादी सिद्धांत तय करने का आधिकार कांग्रेस की तत्कालीन नेहरू मण्डली को मिला। नेताओं का यह एक ऐसा समूह था, जिसके प्रस्तावों पर सभी अभिमत नेहरू के आभामण्डल से प्रभावित रहने लगे। यही कारण है कि डॉ भीमराव अम्बेडकर जैसे ज्ञानी को अन्तत: स्वयमेव बाहर होना पड़ा। नेहरू ने भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत को धूल खाने के लिए बस्ते में बंद कर दिया। उन्होंने उदारवाद की ऐसी चटनी तैयार की जिसमें राष्ट्रीयता की सोच ढीली पड़ गयी।

नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने मुसलिम तुष्टीकरण को ही राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय एकता का आधार मान लिया। अंग्रेजों ने इसे अपनी फूट डालो और राज करो की कुटिल नीति की विजय माना। 1909 में मुसलमानों के लिए अलग प्रतिनिधित्व वाली अंग्रेजों की फूट की नीति को कांग्रेस का समर्थन मिल गया। 1916 तथा 1919 में भी इस तरह मुसलमानों को हिन्दू समाज से काटने वाली चुनावी राजनीति के साथ भी कांग्रेस के नेता खड़े हो गये।

नेहरू और उनकी मण्डली की इसी सोच से मुसलिम अलगाववाद की शुरुआत हुई। मुसलमान अपने पैतृक समाज से कटने लगे। अपने हिन्दू पूर्वजों से मुसलमानों को अलग करने का घृणित तथा राष्ट्रविरोधी कृत्य मुल्ला-मौलवियों के साथ मिलकर अंग्रेजनुमा कांग्रेसियों ने भी करना प्रारम्भ कर दिया। सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तॉ हमारा जैसे राष्ट्रप्रेम से भरे हुए गीत लिखने वाले मोहम्मद इकबाल ने भी पैतरा बदलकर नये गीत की रचना की- मुसलिम हैं हम, वतन है सारा जहॉ हमारा। हिन्दोस्तां हमारा, चीनो अरब हमारा। तेगो के साये में पलकर हम जवॉ हुए हैं, खंजर हिलाल का है, कौमी निशां हमारा।

इसी इकबाल ने 1930 में इण्डियन मसलिम लीग का अध्यक्ष बनने के बाद एक स्वतंत्र मुसलिम राज्य का अलगाववादी फिरकापरस्त राजनीतिक शगूफा छोड़ दिया। यह पृथकतावादी मानसिकता अंग्रेजों द्वारा पोषित और तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं द्वारा समर्थित मुसलिम तुष्टीकरण वाली राष्ट्रघाती नीति का परिणाम सिद्ध हुआ। नेहरू जैसा नेता इस नीति का अनुगामी बन गया। इस नीति ने भारत कभी राष्ट्र था ही नहीं इसे मान लिया।

अंग्रेजों को 1857 में जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के कारण मुंह की खानी पड़ी थी, उसके विरुद्ध सौ वर्ष के लम्बे अन्तराल में अंग्रेज रणनीतिकारों ने गहन अभियान चलाया। भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा के विरुद्ध प्रचार अभियान तो चलाया ही। भारतीय गन्थों की चोरी करके अपने देश ले जाने, उन्हें विकृत करने, भारत में संस्कृत, भाषा और प्राचीन इतिहास की पढ़ायी अवरुद्ध करने के लिए काम किया। भारतीय महापुरुषों को शैक्षिक तन्त्र से दूर किया गया। 1857 की क्रान्ति को कुण्ठित लोगों का क्षणिक प्रयास बताया गया।

अंग्रेजों की इस अभियान में कांग्रेस के नेतृत्व के कुछ अग्रणी लोगों ने बढकर हिस्सा लिया। नेहरू और उनकी मण्डली ने तुष्टिकरण को अपनी सत्ता के स्थायित्व का अस्त्र बनाया। लोकमान्य तिलक, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, अरविन्द घोष, स्वामी दयानन्द और स्वामी विवेकानन्द जैसे मनीषियों की अखण्ड भारत की सर्वांगीण स्वतन्त्रता के लिए की गई तपस्या, बलिदान, संघर्ष सब तुष्टिकरण की नीति की बलि चढ़ गये। किसी भी कीमत पर राजनीतिक स्वराज्य प्राप्त करने के लिए बेताब हुए नेताओं ने कभी नहीं सोचा कि उनके इन इरादों से भारत न केवल भौगोलिक दृष्टि से टुकड़ों में बॅट जाएगा। अपितु देश का समाज, संस्कृति, परम्पराऍ सबकुछ टुकड़ों में विभाजित हो जाएगा। इस कपटपूर्ण नीति के निर्धारण के अगुवा वही नेता बने जिन्हें अंग्रेजों के समक्ष घुटने टेकने में कभी संकोच नहीं रहा। उनके प्रति इनकी मैत्री ऐसी थी मानो वह रतीय नहीं अंग्रेजों के ही पाले हुए एजेंट हों।

ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह अभिमत अब पुष्ट हो चुका है कि अंग्रेजों से येन केन प्रकारेण तत्काल स्वतन्त्रता पाने की हठवादिता नेहरू और जिन्ना सहित दोनों पक्षों के कई नेताओं के मानस की उपज थी। इसीलिए 1947 की स्वतन्त्रता के प्रस्ताव में अनेक भारी कमियॉ आज भी चिन्हित होती हैं। इसके दुष्परिणाम भारत को भुगतने पड़ रहे हैं। भारत का विशाल भूखण्ड नेहरू की अनदेखी के चलते क्षुद्र पाकिस्तानी नेतृत्व के जबड़ों में जा फंसा। तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व ने कभी नहीं सोचा कि किसी ठोस सांस्कृतिक आधार के बिना प्राप्त हुई राजनीतिक स्वतन्त्रता के बाद क्या होगा? एक समय विश्वगुरु रहे भारत को विदेशी हमलावरों के आगे पराभव की स्थिति का सामना क्यों करना पड़ा?

ज्ञान-विज्ञान, उज्ज्वल संस्कृति, विश्वविख्यात शिक्षा केन्द्र, अतुलनीय योद्धा, अपार धन सम्पदा, ऊंचा समाजशास्त्र, आध्यात्मिक शूरवीर इत्यादि सबकुछ होते हुए भी हम उन कपटी विदेशियों के समक्ष बौने क्यों हो गये? जो संख्या बल में हमारे सामने बहुत थोड़े थे। कांग्रेसी स्वतन्त्रता सेनानियों ने न केवल इस चिन्तन से ही अपने को दूर रखा, अपितु इस राष्ट्रवादी चिन्तन करने वाले नेताओं, संस्थाओं, गैर कांग्रेसी स्वतन्त्रता सेनानियों को दूर हटाने, उनका तिरस्कार करने और उन्हें स्वतन्त्रता संग्राम में बाधा डालने वाले तत्व प्रचारित करने में कभी संकोच नहीं किया। यह सब एक अपराध की तरह नयी पीढ़ियों के लिए सदा खलने वाला तथ्य है।

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कांग्रेस की इस कपटी सोच के परिणाम अब सर्वविदित हो चुके हैं। वस्तुत: यह भूल नहीं भारत राष्ट्र के प्रति जानबूझकर किया गया घात सिद्ध हुआ है। परिणाम सबके सामने है। सदियों पुराने राष्ट्र का विभाजन, आतंकी पाकिस्तान का निर्माण, अलगावाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, भाषावाद, विदेश प्रेरित आतंकवाद, तुष्टीकरण पर आधारित वोट बैंक की राजनीति, समाजिक जीवन में भ्रष्टाचार, अनैतिकता, पाश्चात्य, रीति रिवाजों का बोलबाला, अन्धे भौतिकवाद में जकड़ी जा रही युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति धर्म से विमुख होती जा रही है। विचारणीय प्रश्न है कि क्या भारत को मिली स्वतंत्रता के यही निहितार्थ थे, जिसके लिए करोड़ों लोगों ने आत्म बलिदान किया। अपने जीवन को राष्ट्र के लिए हर प्रकार से अर्पित कर दिया। जो लोग इसके दोषी हैं, उनकी अमरता के नारे आखिर नयी पीढ़ी क्यों लगाए? पीढ़ी दर पीढ़ी उनके वंशजों को अपने कन्धों पर क्यो ढोये? भारत की समझदार पीढ़ियां इसका विवेचन अवश्य करेंगी। जिन्हें दण्डित किया जाना चाहिए उनके वंशजों को भारत माता के कन्धों का बोझ अब नहीं बनने देना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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