मणिपुर में पिछले ढाई महीने से जारी हिंसा, महिलाओं के साथ हुए दुराचार और संसद में मणिपुर (Manipur Violence) के हालात पर हो रहे हंगामे के साथ विपक्ष द्वारा मोदी सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर इस सप्ताह गुजराती अखबारों ने अपनी राय प्रमुखता से रखी है।
आनंद से प्रकाशित सरदार गुर्जरी लिखता है
ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी कि संसद का मानसून सत्र बहुत अच्छा चलेगा। मणिपुर में चल रही उथल-पुथल और कुछ महीने बाद राज्य में चुनाव इसके दो ठोस कारण थे। संसद का सत्र ऐसे सवाल उठाने का बेहतर मौका है। विपक्ष ने मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का ऐलान कर दिया है। लेकिन संसद में बहस के लिए सरकार की अपनी रणनीति है। मणिपुर पर चर्चा के साथ-साथ वह राजस्थान और पश्चिम बंगाल में महिलाओं के खिलाफ अपराध से जुड़े तथ्य भी सामने रखने की तैयारी में हैं। अखबार आगे लिखता है, विपक्ष शासित राज्यों में हो रहे अत्याचारों को विपक्ष नजरअंदाज कर रहा है। लेकिन अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान दुराचार की ये तमाम घटनाएं भी सामने आएंगी, तब विपक्ष पर भी सवाल उठेंगे।
जब चर्चा होगी तो मणिपुर के अन्य तथ्य भी सामने आएंगे। दुर्भाग्य की बात है कि मणिपुर में राष्ट्र विरोधी तत्वों की हरकतों पर विपक्ष का ध्यान नहीं जाता। बहस के दौरान ये तथ्य भी रिकॉर्ड पर आएंगे। फिर खुलेगी विरोधी गुट के नैरेटिव की पोल। अंत में एक और तथ्य, विपक्ष ने एक बार फिर अविश्वास प्रस्ताव के जरिए प्रधानमंत्री को बड़ा हथियार दे दिया है। जब वह बहस का जवाब देंगे तो लगभग पूरे देश की नजरें उन पर होंगी। स्वाभाविक है कि वह अपनी बातों से देश को प्रभावित करने की कोशिश करेंगे।
राजकोट से प्रकाशित अकीला लिखता है
मणिपुर पिछले कुछ समय से राष्ट्रीय राजनीति में सुर्खियों में बना हुआ है। जहां महिलाओं को नग्न अवस्था में पूरे गांव में घूमने के लिए मजबूर किया गया। यह राष्ट्रीय शर्म की बात है। विपक्ष प्रधानमंत्री से मणिपुर में कड़ी कार्रवाई करने और हस्तक्षेप करने का आग्रह कर रहा है। ये जिद गलत नहीं है। राज्य में सत्ताधारी दल खासकर बीजेपी ऐसी घटनाओं के खिलाफ आक्रामक नहीं है। यह उनकी राजनीतिक मजबूरी लगती है। वहीं विपक्ष भी दूध का धुला नहीं है। मणिपुर में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार से विपक्ष शर्मिंदा है। पश्चिम बंगाल में महिलाओं के मुद्दे पर विपक्ष को शर्म नहीं आती…क्योंकि पश्चिम बंगाल में विपक्ष की नेता तृणमूल की सरकार है। विपक्ष ने मणिपुर की घटना का उल्लेख कर रहा है तो बीजेपी ने पश्चिम बंगाल की घटना को उठाया है। दोनों में से किसी को भी महिलाओं की दशा की परवाह नहीं है। ये सब राजनीतिक खेल हैं। यह गंदी राजनीतिक प्रवृत्ति है। ऐसी राजनीति राष्ट्रीय शर्म है। लेकिन इसे तोड़ेगा कौन…?
अहमदाबाद से प्रकाशित लोकसत्ता जनसत्ता लिखता है
मणिपुर में भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने नशे के खिलाफ अभियान चलाया। राज्य सरकार का दावा है कि 2017 के बाद से 18,600 से अधिक ऐसे खेतों को नष्ट कर दिया गया है। इनमें अधिकांश खेत कुकी समुदाय के बताये जाते हैं। म्यांमार के साथ सीमा साझा करने वाला मणिपुर वर्षों से महंगाई की समस्या से जूझ रहा है। म्यांमार दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा अफीम उत्पादक देश है। मुख्यमंत्री बीरेन सिंह का अभियान दोनों समुदायों के बीच संघर्ष की एक वजह बन गया।
सूरत से प्रकाशित गुजरात मित्र लिखता है
मणिपुर में जारी हिंसा के बीच एक बेहद शर्मनाक घटना घटी, जिसने पूरी दुनिया में भारत का सिर झुका दिया है। इस अमानवीय घटना पर भारत में अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने भी टिप्पणी की है।
राजकोट से प्रकाशित आजकाल लिखता है
मणिपुर मुद्दे पर केंद्र सरकार को घेरने के बाद कांग्रेस ने अलग अंदाज में सरकार को घेरने की कोशिश की है। लोकसभा में एनडीए के पास प्रचंड बहुमत है, इसलिए यह प्रस्ताव खारिज होना तय है। अविश्वास प्रस्ताव में विपक्ष की हार निश्चित है, लेकिन यह समझ में नहीं आता कि कांग्रेस अपने हाथों खुद को अपमानित क्यों करवा रही है।
अहमदाबाद से प्रकाशित गुजरात समाचार लिखता है
मणिपुर पर प्रधानमंत्री की चुप्पी तोड़ने के लिए विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव लाना पड़ा, यह भी भारतीय लोकतंत्र का चमत्कार है। बहुमत होना एक बात है, लेकिन बड़े नेताओं का मणिपुर के उग्र वर्तमान पर चुप रहना कोई साधना नहीं बल्कि एक तरह का नैतिक अपराध है। दोनों पक्षों की जिद के कारण अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया गया है। सवाल ये है कि इस अविश्वास प्रस्ताव से विपक्ष को क्या फायदा होगा? हालांकि, संसद के मंच पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच इस तरह की झड़प कोई नई बात नहीं है। इस परिघटना को सकारात्मक दृष्टि से देखें तो यह एक स्वस्थ लोकतंत्र का संकेत है। लेकिन पिछले दिनों मणिपुर में जिस तरह के दृश्य दिखे, उसे देखते हुए इस तरह की कवायद निराशाजनक है। बेहतर होता कि विपक्ष और सरकार समय रहते बातचीत के जरिये किसी सहमति पर पहुंचकर मणिपुर पर विस्तार से चर्चा करते और अविश्वास प्रस्ताव अनावश्यक होता। माना जा रहा है कि अविश्वास प्रस्ताव लाने के पीछे विपक्ष का मकसद मणिपुर के मुद्दे पर पीएम मोदी को सदन में घेरने के अलावा कुछ नहीं है।
अहमदाबाद से प्रकाशित संदेश लिखता है
एकता की चर्चाओं के बीच जिस तरह से विपक्षी दल अभी भी बंटे हुए हैं, उसे देखकर लगता है कि इस बार भी सरकार को झटका नहीं लगेगा। आंकड़ों के खेल में पलड़ा सरकार की तरफ झुका हुआ है।
मुंबई से प्रकाशित जन्मभूमि लिखता है
अगले हफ्ते जब लोकसभा में मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर बहस शुरू होगी तो क्या आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति की बजाय रचनात्मक-सकारात्मक सुझाव होंगे? विपक्ष ने सीधे तौर पर प्रधानमंत्री पर निशाना साधा है। विपक्ष की जिद सिर्फ प्रधानमंत्री का जवाब सुनने पर है- इसमें कोई शक नहीं कि विपक्ष बहस की अहमियत समझेगा।
अहमदाबाद से प्रकाशित नवगुजरात समय लिखता है
मणिपुर में हुई हिंसा पर देश की संसद में निष्पक्ष बहस होनी चाहिए, इस बारे में कोई बहाना नहीं चल सकता। अखबार लिखता है, मणिपुर में महिलाओं के साथ भीड़ द्वारा किए गए दुष्कर्म ने एक राष्ट्र के रूप में भारतीय व्यवस्था पर एक गहरा निशान छोड़ा है। फिर मूल प्रश्न यह है कि मणिपुर में हिंसा के लिए जिम्मेदार कौन है?
मुंबई से प्रकाशित मुंबई समाचार लिखता है
राष्ट्रीय महिला आयोग भी राजनीतिक रंग में रंगा हुआ है। राष्ट्रीय महिला आयोग की इस तरह की कार्यप्रणाली का ताजा उदाहरण मणिपुर और कर्नाटक की घटनाओं के मामले में अपनाया गया रुख है। मणिपुर में में 4 मई की घटना को लेकर सरकार ने ढाई महीने तक कुछ नहीं किया, लेकिन राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी कुछ नहीं किया। लेकिन कर्नाटक में उडुपी की घटना के बाद राष्ट्रीय महिला आयोग तुरंत सक्रिय हो गया। उडुपी की घटना भी गंभीर है। इस मामले में राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा सक्रियता दिखाने और अपना सदस्य भेजने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन वही सक्रियता मणिपुर के मामले में दिखानी चाहिए या नहीं?
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आनंद से प्रकाशित सरदार गुर्जरी लिखता है
क्या विपक्षी नेता मणिपुर के लोगों के घावों को भर पाएंगे या वे घावों को और बढ़ा देंगे? हिंसा पर लगाम लगाने में नाकामी को लेकर राज्य की बीजेपी सरकार स्वाभाविक तौर पर विपक्ष के निशाने पर है। संवाद और समन्वय से ही कोई समाज, प्रदेश या देश बनता है। मणिपुर में शांति कायम करने में लगे किसी भी भारतीय नागरिक, लोक सेवक या नेता को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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