वर्ष 1961 में ‘रंगभारती’ की स्थापना के साथ मैंने लोकगीतों की रक्षा का अभियान शुरू कर दिया था। उत्तर प्रदेश के ‘ब्याह’, ‘बेड़ा सोहर’, ‘चैती’ एवं घरेलू लोकगीतों की रक्षा व उनके प्रचार के लिए मैं हरसंभव प्रयास कर रहा था। किसी से कोई आर्थिक मदद प्राप्त हुए बिना मैं अपने पैसे से इस कार्य में लगा हुआ था। संसाधनों की कमी की जटिल समस्या मेरे सामने विद्यमान थी। जब मैंने पहली बार मीरजापुरी कजली सुनी तो उसकी सम्मोहित करने वाली धुनों ने मुझ पर जादू कर दिया। किन्तु जब मुझे यह जानकारी हुई कि आधुनिक सभ्यता के दुश्प्रभाव से जिस प्रकार अन्य लोकगीत नष्ट होते जा रहे हैं, धीरे-धीरे वैसी ही स्थिति मीरजापुरी कजली की भी हो रही है तो मुझे बहुत दुख हुआ। मेरे अथक प्रयास के बावजूद मीरजापुरी कजली की रक्षा के लिए जब सरकारी तंत्र नहीं सक्रिय हुआ तो मैंने अपने दम पर जितना संभव हो सके, मीरजापुरी कजली की रक्षा व प्रचार का बीड़ा उठाया तथा इस कार्य में जुट गया।
‘रंगभारती’ के ‘सप्तरंग ऑरकेस्ट्रा’ द्वारा उत्तर प्रदेश के तमाम नगरों के अलावा मुम्बई, जयपुर आदि में भी ‘एक शाम किशोर कुमार के नाम’ शीर्षक आयोजन हुआ करते थे। ‘रंगभारती’ के वे कार्यक्रम बहुत अधिक लोकप्रिय थे तथा उनमें भारी जनसैलाब उमड़ता था। मैंने इस स्थिति का फायदा उठाया तथा अपने उन कार्यक्रमों में प्रथम चरण के रूप में लोकगीतों का, विशेष रूप से मीरजापुरी कजली का, कार्यक्रम सम्मिलित कर लिया। लोकगीतों में घरेलू लोकगीतों को अधिक प्रश्रय देता था। मैं मीरजापुर के कजली गायकों एवं अन्य लोकगायकों को दूर-दूर तक ले गया। इससे मेरे आयोजन का व्ययभार तो बढ़ गया, लेकिन अपने स्तर से सीमित साधनों के बावजूद मैंने लोकगीतों की, विशेष रूप से मीरजापुरी कजली की, रक्षा का जो बीड़ा उठाया, उसकी सफलता से मन को बड़ी संतुष्टि हुई।
मैंने लखनऊ के रवीन्द्रालय में बड़े पैमाने पर लोकगीतों तथा मीरजापुरी कजली के कई वृहत आयोजन किए। रवीन्द्रालय में हमारे एक कजली-आयोजन में मीरजापुर की प्रसिद्ध कजली गायिका उर्मिला श्रीवास्तव ने धूम मचा दी थी। उनकी यह कजली बड़ी लोकप्रिय हुई थी-‘पिया मेंहदी लिआय द मोतीझील से, जाइके साइकील से ना।’ उर्मिला श्रीवास्तव की मंडली को भी मैं दूर-दूर तक ले गया था। उनकी गायी कजलियों का एक कैसेट निकला था। सावन-भादों में मैं जब वह कैसेट बजाता था तो पानी निश्चित रूप से बरसता था। वैसे भी, कजली और वर्षा का चोलीदामन का साथ होता है।
मैं गृहनगर प्रयागराज में स्थित अपने परीभवन के केसर सभागार में भी प्रायः लोकगीतों के आयोजन करने लगा। उन आयोजनों में मैं मीरजापुर के कजली-गायकों को विशेष रूप से बुलाता था। मेरे आयोजन में बड़े-बड़े न्यायाधीश, मंत्री व उच्चाधिकारी भी आते थे तथा लोकगीतों का भरपूर आनंद लेते थे। अन्य तमाम विशिष्ट लोगों के अलावा देश के तत्कालीन वरिष्ठतम आईसीएस अधिकारी डॉ. जनार्दन दत्त शुक्ल का भी आगमन होता था। वह जब लखनऊ से इलाहाबाद(प्रयागराज) आते थे तो मेरे यहां अवश्य आते थे। लोकगीतों के प्रति उनके लगाव को ध्यान में रखकर मैं परीभवन के केसर सभागार में लोकगीतों का कार्यक्रम रख लिया करता था। उन कार्यक्रमों में विभिन्न लोकगायकों को आमंत्रित किया करता था, जिनमें मीरजापुरी कजली के गायक भी होते थे।
प्रयागराज में एक लोकगायक गन्ना महाराज थे, जिनके पास घरेलू लोकगीतों का बहुत खजाना था। उनकी आवाज बड़ी तेज थी और जब वह अपनी मंडली के साथ बुलंद स्वर में लोकगीत गाते थे तो लाउडस्पीकर की जरूरत नहीं पड़ती थी। वह कई प्रचलित कजलियां भी गाते थे, जैसे- ‘कइसे खेलै जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घिरि आईं ननदी’, ‘अरे रामा सावन बीता जाय बलम घर आए ना हारी’, ‘घर से निकसी ननद-भउजइया, जुलुम दूनों जोड़ी रे हारी’। डॉ. जनार्दन दत्त शुक्ल को गन्ना महाराज का यह लोकगीत भी बहुत पसंद था, जिसकी वह फरमाइश किया करते थे-‘अंगना में चुएला जमुनिया, भितरे चलो ओ बालमा।’
मीरजापुरी कजली की सुविख्यात गायिका मैना देवी को एक बार मैं वाराणसी नगर महापालिका (अब नगर निगम) के प्रेक्षागृह में आयोजित ‘रंगभारती’ के कार्यक्रम में ले गया था। मैना देवी का दूर-दूर तक बड़ा नाम और प्रतिष्ठा थी। हमारे आयोजन में जब वह मंच पर कजली गाने आईं तो तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूंज उठा था। मैना देवी मीरजापुरी कजली की तो उस्ताद थीं ही, बनारसी कजली भी गाती थीं। मीरजापुरी कजली व बनारसी कजली में हल्का अंतर होता है। हमारे कार्यक्रम में मैना देवी ने जब बनारसी कजली सुनानी शुरू की तो हॉल में धूम मच गई थी। बनारसी कजली भी उपेक्षा का शिकार है, इसलिए उस रात मैना देवी के मुंह से बनारसी कजली सुनकर लोगों की ह्रदयतंत्री झंकृत हो उठी थी और मैना देवी के सामने ‘एक और’, ‘एक और’ की फरमाइश की झड़ी लग गई थी।
आगरा के मशहूर प्रेक्षागृह सूर सदन में आयोजित ‘रंगभारती’ के आयोजन में विभिन्न लोकगीतों एवं मीरजापुरी कजली सुनकर आयोजन के बाद एक बंगाली परिवार मेरे पास आया था और बोला था-‘‘हम तो बंगाल के लोकगीतों एवं रवीन्द्र संगीत के अतिप्रशंसकों में थे, लेकिन आज मालूम हुआ कि उत्तर प्रदेश में भी लोकगीतों की अद्भुत सम्पदा है।’’ मैंने उनसे कहा था कि आगरा ब्रज क्षेत्र का अंग है तथा ब्रज के लोकगीतों का भी अद्भुत आनंद है। मैंने अनेक जगह ब्रज के लोकगीतों के कार्यक्रम भी कराए थे।
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‘रंगभारती’ द्वारा प्रयागराज में गंगा-यमुना में अकसर नौका-गोष्ठियों के आयोजन किए जाते थे। चांदनी रात में उन नौका-गोष्ठियों के आयोजन बहुत अधिक पसंद किए जाते थे। उनमें कभी संगीत की महफिल सजती थी तो कभी काव्यपाठ की। एक बार सावन में मैंने ‘रंगभारती’ द्वारा नौकाओं पर ‘कजली उत्सव’ का आयोजन किया था। उस अवसर पर कई नौकाओं पर सवार काफी लोगों ने नौकाविहार के साथ कजलियों का आनंद लिया था। एक नाव पर गायक-वादकगण आसीन थे तथा लाउडस्पीकर लगा हुआ था, जिससे किनारे तक आवाज जा रही थी।
नौकाएं जिधर जाती थीं, किनारे पर मौजूद लोग भी कजलियों का आनंद लेते थे और नृत्य करने लगते थे। धीरे-धीरे किनारे पर भीड़ बढ़ जाती थी। कजरारी घटा घिरी हुई थी तथा उस मनोहारी वातावरण में गायकों ने सुरीली कजलियों से नौकाओं पर आयोजित उस ‘कजली उत्सव’ को अविस्मरणीय बना दिया था। बाद में रात में मूसलाधार बरसात हुई थी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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