

नवसंवत्सर का स्वागत। काल सुंदर रथ पर सवार है। यह हर बरस मधुमय नवसंवत्सर लाता है। काल सर्वशक्तिमान देवता हैं। अथर्ववेद (9-53) के ऋषि भृगु ने उनकी महिमा गायी है, “काल-अश्व विश्वरथ का नियन्ता है। वह सहस्त्र आंखों वाला है। सबको देखता है। समस्त लोक कालरथ के चक्र हैं। ज्ञानी इस रथ पर बैठते हैं। यह काल सात चक्रों का वाहक है। इसकी सात नाभियां हैं। इसकी धुरी में अमृत है। ज्ञानी इस काल को विभिन्न रूपों में देखते हैं।” कैसे देखते हैं?
भृगु ने बताया है “काल से ही सृष्टि सर्जक प्रजापति आये। काल स्वयंभू है। वह स्वयं किसी से नहीं जन्मा। काल से ही विश्वजन्मा। काल में तप हैं। काल में मन है। काल में ज्ञान है। काल विश्व पालक और सबका पिता तथा पुत्र है। काल में पृथ्वी की गतिशीलता है। काल से ही सूर्योदय और सूर्यास्त हैं। काल में ही भूत, भविष्य और वर्तमान हैं।” सृष्टि का उद्भव शून्य से नहीं हो सकता। सृष्टि रचना के पहले कोई एक आदि द्रव्य है। इसी आदि द्रव्य में सृष्टि का समूचा पदार्थ-जड़ और समस्त ऊर्जा-चेतन एकत्रित है। फिर आदि द्रव्य में परिवर्तन हुआ, जो अव्यक्त था, अप्रकट था वह व्यक्त हुआ। प्रत्येक परिवर्तन का मूल गति है। गति से ही काल बोध है। वैदिक ‘निरूक्त’ में यास्क ने काल का सम्बंध गति से जोड़ा है।
काल अखण्ड सत्ता है। काल पिता है, वही पुत्र भी है। काल की अनुकम्पा आयु है, काल का कोप मृत्यु है। काल में सर्जन है, काल में ही विसर्जन है। भारतीय कालबोध ऋग्वेद से भी पुराना है। यही कालबोध प्राचीन काल में ईरान पहुंचा। अथर्ववेद में जो ‘काल’ है। वही ईरानी ग्रंथ अवेस्ता में ‘जुर्वान’ है। जैसे अथर्ववेद का काल प्रतिष्ठित देवता है, वैसे ही अवेस्ता का जुर्वान भी एक देव है। भारतीय काल सबका नियंता है और प्रजापति का पिता है। इसके भीतर प्रकाश और अंधकार है। दिवस और रात्रि है। ‘जुर्वान’ भी अनंत है। संसार के रचयिता अहुरमज्दा उसकी संतान हैं। अहुरमज्दा भारतीय प्रजापति हैं। इस विचार के अनुसार जब न आकाश था, न पृथ्वी, न कोई जीव तब ‘जुर्वान’ था। यहां सीधे ऋग्वेद के सृष्टि सूक्त की प्रतिध्वनि है।
भारतीय नववर्ष की शुरुवात किसी ऋषि, महात्मा या महापुरूष की जन्मतिथि से नहीं होती। बेशक इस तिथि में अनेक महापुरूष उगे, अनेक निर्वाण को प्राप्त हुए। युधिष्ठिर विक्रमादित्य सहित अनेक पूर्वजों ने अपने नवसंवत्सर भी चलाये। अंग्रेजी कालगणना ईसा से शुरू होती है। लेकिन प्रथम नवसंवत्सर का प्रथम आलोक, प्रथम दिवस और प्रथम तिथि की गणना अनूठी है। सृष्टि जिस क्षण शुरू होती है, उसी समय संवत्सर का प्रारम्भ हो जाता है। संवत्सर का प्रारम्भ सार्वभौमिक है। नवसंवत्सर व्यक्त सृष्टि का प्रथम ऊषाकाल है। यह सम्पूर्ण जगत् का प्रथम सूर्योदय है। सृष्टि ब्रह्म का प्रथम सुप्रभात है। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय नववर्ष है। वैदिक संवत्सर की धारणा अद्वितीय है।
प्रकृति अजन्मा है। ऋग्वेद (10.82.6) के अनुसार “सृष्टि के आदि से ही विद्यमान वह एक अज-अजन्मा है। इसी अज की नाभि में सभी भुवन समाहित थे।” ‘अज’ आधुनिक ब्रह्माण्ड विज्ञानियों का ‘कासमोस’ है। अज गतिशील हुआ। गति से परिवर्तन आया। विज्ञान की दृष्टि से प्रत्येक सृजन/परिवर्तन के पीछे एक ऊर्जा है। प्रकृति की शक्तियां उगीं। ऋषियों के अनुसार वे देवता थीं। ऋषि कहते हैं, “व्यापक जलों में देवता थे-यद् देवा सलिले सुसंरब्धा अतिष्ठत्। उनके नृत्य से तेज गति वाले रेणु अणु-परमाणु प्रकट हुए।” (10.72.6) ऋग्वेद (10.190.1, 2) में कहते हैं “तप से ऋत व सत्य (व्यक्त जगत्) प्रकट हुए। अंधकार-रात्रि और अगाध जल समुद्र आये। समुद्रों से संवत्सर प्रकट हुआ-समुद्रादर्ण वादधि संवत्सरों अजायत्।” सृष्टि के साथ काल उगा। इसी काल का प्रथम दर्शन संवत्सर है।
सृष्टि छान्दोग्य है। इसका अन्तस् छन्दस् है। छन्द की अपनी लय होती है। प्रकृति सदा से है। यह लय में प्रकट होती है और प्रलय में अप्रकट। प्रलय में भी लय बची रहती है। ऋग्वेद के एक मंत्र में कहते हैं कि “वह वायुहीन स्थिति में भी अपने दम पर सांस ले रहा था-आनादीवातं स्वधया तदेंक। ‘स्वधा’ प्रकृति की अनंत प्राण ऊर्जा है। इसलिए वायु नहीं है तो भी सांस जारी है। ऋग्वेद का ‘वह एक-तदेकं’ बड़ा दिलचस्प है। इसी ‘वह एक’ को विद्वान-विप्र इन्द्र, मित्र, अग्नि मातरिश्वन गरूण आदि देव नामों से पुकारते हैं लेकिन वह ‘एकं सद्’-एक ही सत्य है-एकंसद् विप्रा बहुधा वदन्ति। (ऋ0 1.164.46) सृष्टि सृजन परिवर्तन की ही सतत् प्रवाही कार्रवाई है। परिवर्तन के भीतर गति होती है। जहां गति है, वहीं समय है।
सृष्टि और प्रलय सतत् प्रवाही हैं। लेकिन प्रलयकाल में भी समूची ऊर्जा का नाश नहीं होता। प्रलय के बाद फिर से सृष्टि होती है। गति का मूल ऊर्जा है। ऊर्जा अविनाशी है। गति का नाश नहीं होता। समय भी अविनश्वर है। सृष्टि बार-बार आती है। यह चक्र की तरह है। सीधी रेखा नहीं। भारतीय दर्शन में इसीलिए ‘कालचक्र’ है। उसका पहिया घूमता है और बार-बार सृष्टि व प्रलय लाता है। प्रकृति में द्वैत दिखाई पड़ते हैं-यहां रात-दिन हैं। जीवन-मृत्यु हैं। प्रकाश-अंधकार हैं। रात्रि ऋत है, दिन सत्य है। दिन ज्ञान है, रात्रि तमस हैं। दिन सक्रियता है, रात्रि विश्रांति है। सृष्टि अपने छन्द्स में गतिशील है। काल रथ का पहिया घूम रहा है। पूर्वजों में कालबोध था। कालबोध ही इतिहासबोध है।
भारतीय काल गणना के पहले कालबोध है। फिर काल गणना है। इस गणना में सृष्टि की आयु एक अरब 95 करोड़, 58 लाख, 85 हजार एक सौ तेरह वर्ष हो चुकी है। वैज्ञानिक अनुमान भी यही हैं। इस संवत्सर का केन्द्र सूर्य हैं, पूरा सौर-परिवार है। ऋग्वेद (1.164) में कहते हैं “सूर्य को हमने सात पुत्रों-किरणों (वर्णो) के साथ देखा है। इनके मध्यम भाई वायु हैं, उनके तीसरे भाई अग्नि हैं। ऋत का 12 अरों वाला चक्र इस द्युलोक में घूमता है। यह चक्र कभी जीर्ण नहीं होता। इसके 720 पुत्र इस चक्र में हैं।” यहां ऋत प्रकृति की व्यवस्था है और अरे 12 माह हैं। एक वर्ष में दिन रात मिलाकर 720 अहोरात्र हैं। विश्वदर्शन, काव्य सृजन या चिन्तन की किसी भी पद्धति में काल का ऐसा अध्ययन विवेचन और विश्लेषण नहीं मिलता। सृष्टि सर्जन के पहले काल बोध नहीं है, संवत्सर भी नहीं है। संवत्सर और सृष्टि साथ-साथ।
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टाइम और काल (समय) पर्यायवाची नहीं है। काल अखण्ड है, टाइम इसके खण्ड का माप है। ऋग्वेद में कहते हैं, “जो अब तक हो चुका और भविष्य में जो होगा वह सब अदिति हैं। वह सब यही पुरूष है।” वैदिक अनुभूति में समूची कालसत्ता अखण्ड है। यूरोपीय दृष्टि में भूत-पास्ट एक टेन्स-तनाव है। भूत का अस्तित्व वर्तमान में स्मृति है। इसी तरह फ्यूचर टेन्स भविष्य का आकर्षण है। तनाव मस्तिष्क गत कार्रवाई है। प्रजेन्ट फ्यूचर या पास्ट टेन्स कालगणना नहीं है। भारतीय कालबोध का क्षण सृष्टि की शुरूवात है। फिर युग है। महाभारत युद्ध के 36 वर्ष बाद यानी ईसा पूर्व 3103 वर्ष से कलियुग चल रहा है। युगाब्ध की दृष्टि से भारत की 52वीं सदी है। विक्रमसंवत् की दृष्टि से यह 2082 सम्वत् है। लेकिन ईसा की दृष्टि से यह 21वीं सदी ही है। भारत की प्रतीति, अनुभूति वैज्ञानिक है। भारतीय नवसंवत्सर, अंतरराष्ट्रीय नववर्ष पर सबको शुभकामनाएं।
(लेखक पूर्व विधानसभा अध्यक्ष रह चुके हैं।)
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