कोरोना काल के विषैले समय के वैचारिक मंथन से निकला ‘अमृत’ है यह पुस्तक
अपने देश को कम जानने की एक शास्वत समस्या तो अरसे से बनी ही हुई है, जिसका हल आज तक हमारे विद्यालय, परिवार और संस्थाएं नहीं खोज पाई हैं। इसलिए ‘भारत को जानो’ और ‘भारत को मानो’ जैसे अभियान देश में चलाने पड़ते हैं। राष्ट्रीय आंदोलन में समूचे समाज की गहरी संलग्नता के बाद ऐसा क्या हुआ कि आजादी मिलने के बाद हम जड़ों से उखड़ते चले गए। गुलाम देश में जो ज्यादा ‘भारतीय’ थे, वे ज्यादा ‘इंडियन’ बन गए। ‘स्वराज’ के बजाए ‘राज्य’ ज्यादा खास और बड़ा हो गया। देश में आजादी और लोकतंत्र की लड़ाई लड़ने वाले नायक ही गहरी अलोकतांत्रिक वृत्तियों के शिकार हो गए। ऐसे में भारतीय संविधान आज भी न जाने कितने भारतीयों के लिए अबूझ पहली बना हुआ है तो कोई चौंकाने वाली बात नहीं है।
जब हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, तब हमें अनेक बातों के विहंगावलोकन के अवसर मिले हैं। आजादी के अमृत महोत्सव के साथ ही यह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125 वीं जयंती का भी साल है। ठीक इसी समय देश के प्रख्यात पत्रकार, समाज चिंतक और विचारक रामबहादुर राय की किताब ‘भारतीय संविधान- एक अनकही कहानी’ हमारे सामने आती है। जिसने संविधान से जुड़े तमाम सवालों को फिर से चर्चा में ला दिया है।
भारत की त्रासदी है कि बंटवारे की राजनीति आज भी यहां फल-फूल रही है। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए भी हम इस रोग से मुक्त नहीं हो पाए हैं। यह सोचना कितना व्यथित करता है कि जब हम गुलाम थे तो एक थे, आजाद होते ही बंट गए। यह बंटवारा सिर्फ भूगोल का नहीं था, मनों का भी था। इसकी कड़वी यादें आज भी तमाम लोगों के जेहन में ताजा हैं। आजादी का अमृत महोत्सव वह अवसर है कि हम दिलों को जोड़ने, मनों को जोड़ने का काम करें। साथ ही विभाजन करने वाली मानसिकता को जड़ से उखाड़ फेंकें और राष्ट्र प्रथम की भावना के साथ आगे बढ़ें।
भारत चौदहवीं सदी के ही पुर्तगाली आक्रमण के बाद से ही लगातार आक्रमणों का शिकार रहा है। 16वीं सदी में डच और फिर फ्रेंच, अंग्रेज, ईस्ट इंडिया कंपनी इसे पददलित करते रहे। इस लंबे कालखंड में भारत ने अपने तरीके से इसका प्रतिवाद किया। स्थान-स्थान पर संघर्ष चलते रहे। ये संघर्ष राष्ट्रव्यापी, समाजव्यापी और सर्वव्यापी भी थे। इस समय में आपदाओं, अकाल से भी लोग मरते रहे। गोरों का यह वर्चस्व तोड़ने के लिए हमारे राष्ट्र नायकों ने संकल्प के साथ संघर्ष किया और आजादी दिलाई। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते समय सवाल उठता है कि क्या हमने अपनी लंबी गुलामी से कोई सबक भी सीखा है? हमारे संविधान की प्रेरणाएं कहां लुप्त हो गई हैं। अगर आजादी के इतने सालों बाद हमारे प्रधानमंत्री ने ‘संविधान दिवस’ को हर साल समारोह पूर्वक मनाने और उस पर विमर्श करने की बात कही है तो इसके खास अर्थ हैं।
पद्मश्री से अलंकृत और जनांदोलनों से जुड़े रहे रामबहादुर राय की यह किताब कोरोना काल के विषैले और कड़वे समय के वैचारिक मंथन से निकला ‘अमृत’ है। आजादी का अमृत महोत्सव हमारे राष्ट्र जीवन के लिए कितना खास समय है, इसे कहने की जरूरत नहीं है। किसी भी राष्ट्र के जीवन में 75 साल वैसे तो कुछ नहीं होते, किंतु एक यात्रा के मूल्यांकन के लिए बहुत काफी हैं। वह यात्रा लोकतंत्र की भी है, संविधान की भी है और आजाद व बदलते हिंदुस्तान की भी है। आजादी और विभाजन दो ऐसे सच हैं जो 1947 के वर्ष को एक साथ खुशी और विषाद से भर देते हैं। दो देश, दो झंडे, विभाजन के लंबे सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक असर से आज भी हम मुक्त कहां हो पाए हैं। आजादी हमें मिली किंतु हमारे मनों में अंधेरा बना रहा।
विभाजन ने सारी खुशियों पर ग्रहण लगा दिए। इन कहानियों के बीच एक और कहानी चल रही थी, संविधान सभा की कहानी। देश के लिए एक संविधान रचने की तैयारियां। कांग्रेस- मुस्लिम लीग के मतभेदों को बीच भी ‘आजाद होकर साथ-साथ जीने वाले भारत’ का सपना तैर रहा था। वह सच नहीं हो सका, किंतु संविधान ने आकार लिया। अपनी तरह से और हिंदुस्तान के मन के मुताबिक। संविधान सभा की बहसों और संविधान के मर्म को समझने के लिए सही मायने में यह किताब अप्रतिम है। यह किताब एक बड़ी कहानी की तरह धीरे-धीरे खुलती है और मन में उतरती चली जाती है। किताब एक बैठक में उपन्यास का आस्वाद देती है, तो पाठ-दर पाठ पढ़ने पर कहानी का सुख देती है। यह एक पत्रकार की ही शैली हो सकती है कि इतने गूढ़ विषय पर इतनी सरलता से, सहजता से संचार कर सके। संचार की सहजता ही इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है।
संविधान जैसे जटिल विषय पर उसके मूलभाव से छेड़छाड़ किए बिना उसके सत्व और तत्व तक पहुंचना साधारण नहीं है। यह तभी संभव है जब विषय में आपकी गहरी रूचि हो, इसके लिए आपने गहरा स्वाध्याय किया हो और मन से आप इस काम को करना चाहते हों। इस किताब को पढ़ते हुए मुझे लगा कि लेखक ने बहुत दिल से यह किताब लिखी है। दिल से इसलिए क्योंकि भाषा, भाव और कथ्य सब लेखक की आत्मीय उपस्थिति को व्यक्त करते हैं। इस किताब के बहाने रामबहादुर राय ‘कथा व्यास’ की भूमिका में हैं, जो निरपेक्ष भाव से भावों को व्यक्त करता जा रहा है। जिसने हमारे देश की संविधान सभा में शामिल अप्रतिम भारतीय मेघा के प्रज्ञावान विचारवंतों के विचारों को जिस तरह प्रस्तुत किया है, वह कथारस में वृद्धि ही करता है।
इस किताब में संविधान सभा की बहसें हमारे सामने एक चलचित्र की तरह चलती हैं। बहुत मर्यादित और गरिमामय टिप्पणियों के साथ। शायद लेखक चाहते हैं कि उनके पाठक भी वही भाव और स्पंदन महसूस कर सकें, जिसे संविधान सभा में उपस्थित महापुरूषों ने उस समय महसूस किया होगा। रामबहादुर की कलम उस ताप को ठीक से महसूस और व्यक्त करती है। जैसे राजेंद्र प्रसाद जी को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष बनाते समय सच्चिदानंद सिन्हा और अंत में बोलने वाली भारत कोकिला सरोजनी नायडू के वक्तव्य को पढ़ते हुए होता है। देश के पहले राष्ट्रपति बने राजेंद्र प्रसाद के व्यक्तित्व का जैसा परिचय इस अध्याय में मिलता है कि पाठक में अपने नायकों के प्रति अतिरिक्त श्रध्दा उमड़ने लगती है और किताब को पढ़ते समय अपने अज्ञान पर भी दुख होता है।
इसके साथ ही संविधान सभा की इन बैठकों के बहाने उस पूरे समय, भारतीय राजनीति और उसके सवालों से गुजरने का अवसर मिलता है। जिसमें सामाजिक न्याय के सवाल हैं, मुसलमानों के अधिकारों के सवाल हैं और तमाम संवैधानिक सवाल तो हैं ही। महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के विविध पक्ष और विचार इस पुस्तक के बहाने सामने आते हैं। विभाजन की भयानक त्रासदी के पाठ हमें मिलते हैं, जिससे पता चलता है कि किस तरह बिना योजना के हुए विभाजन ने भारत को एक विभीषिका के सामने ला खड़ा किया। एक करोड़, बीस लाख लोगों का विस्थापन, 10 लाख लोगों की हत्याएं, अनुमानतः 75 हजार महिलाओं से बलात्कार, हत्या और धर्मपरिवर्तन जैसी बातें हिलाकर रख देती हैं। इतिहासकार सुधीर चंद्रा की किताब ‘गांधी- एक असंभव संभावना’ हमें इस दौर से गुजरते गांधी के मन की बात बताती है। जबकि राय साहब की किताब उस समय के सभी नायकों की बेबसी और अंग्रेजी शासकों की दुष्टता को खोलकर रख देती है।
इतिहास के संदर्भ देखें तो 7 मई,1947 को जब कांग्रेस लगभग बंटवारे का फैसला कर चुकी थी तब गांधी ने शाम को कहा-“ जिन्ना साहब पाकिस्तान चाहते हैं। कांग्रेस ने भी तय कर लिया है कि पाकिस्तान की मांग पूरी की जाए… लेकिन मैं तो पाकिस्तान किसी भी तरह मंजूर नहीं कर सकता। देश के टुकड़े होने की बात बर्दाश्त ही नहीं होती। ऐसी बहुत सी बातें होती रहती हैं जिन्हें मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता, फिर भी वे रूकती नहीं, होती ही हैं। पर यहां बर्दाश्त नहीं हो सकने का मतलब यह है कि मैं उसमें शरीक नहीं होना चाहता, यानी मैं इस बात में उनके बस में आने वाला नहीं हूं।… मैं किसी एक पक्ष का प्रतिनिधि बनकर बात नहीं कर सकता। मैं सबका प्रतिनिधि हूं।.. मैं पाकिस्तान बनने में हाथ नहीं बंटा सकता।”
गांधी का मनोगत बहुत स्पष्ट है किंतु हालात ने उन्हें विवश कर दिया था। वे न तो बंटवारा रोक पाते हैं न ही आजादी के जश्न के पहले जगह-जगह हो रही सांप्रदायिक हिंसा। देश के बंटवारे से उनकी पीड़ा हम जानते हैं किंतु गांधी एक गहरी आध्यात्मिक लोकतांत्रिकता को जी रहे थे। वे बहुत साफ कहते हैं “जब मैंने कहा था कि हिंदुस्तान के दो भाग नहीं करने चाहिए तो उस वक्त मुझे विश्वास था कि आम जनता की राय मेरे पक्ष में है; लेकिन जब आम राय मेरे साथ न हो तो क्या मुझे अपनी राय जबरदस्ती लोगों के गले मढ़नी चाहिए?” महात्मा गांधी की पूरी जिंदगी जूझते और सवालों के जवाब देते बीती है। आज जब वे नहीं हैं तब भी उनसे सवाल किए जा रहे हैं।
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ऐसे तमाम सवाल आज भी अनुत्तरित ही हैं। हमारे राष्ट्रनायक कैसा देश बनाना चाहते हैं और अंततः वह बना कैसा। इस किताब की सबसे बड़ी बात है कि संविधान से जुड़ी हर बहस इसमें शामिल है। संविधान को लेकर पल रहे अतिवादी विचारों को भी लेखक ठीक नहीं मानता। लेखक ने इस पुस्तक में तथ्यों के सहारे बहुत महत्वपूर्ण स्थापनाएं दी हैं। किताब की लंबी भूमिका में वे अपने मनोगत को भी ठीक से रखते हैं और किताब की भावभूमि के बारे में बताते हैं। उनकी रूचि,स्वाध्याय,विपुल साहित्य के अवगाहन, निरंतर संवादों ने उन्हें समृद्ध किया है। एक पत्रकार के नाते देश के शिखर पुरूषों से उनके संपर्क, संवाद और सतत प्रवास ने भी उनकी चेतना को नयी दृष्टि दी है। अपने उदार लोकतांत्रिक व्यक्तित्व के चलते उनका दायरा वैसे भी बहुत व्यापक है।
वे जिस तल पर उतर कर संवाद करते हैं, वह आज के समय में दुर्लभ है। ऐसे विरल व्यक्तित्व हमारे समय में कम ही हैं, जिन्होंने भारत और उसके संविधान को समझने में इस तरह से समय लगाया है। मुझे भरोसा है किताब के पाठक इससे सिर्फ संविधान के बारे में ही नहीं, भारत के बारे में भी नई दृष्टि पाएंगें। जो हमारे मन को ज्यादा उदार, ज्यादा समावेशी, ज्यादा मानवीय और संवेदनशील बनाएगी। अब जबकि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 26 नवंबर को प्रतिवर्ष संविधान दिवस मनाने की घोषणा की है, तब हमें अपने संविधान पर संवाद के अनेक अवसर वैसे ही सुलभ हो गए हैं। इस मंथन के बीच यह किताब हमारे जीवन में भी जगह पाएगी।
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भारतीय संविधान के बारे में हमारे प्रधानमंत्री ने 27 नवंबर,2015 को लोकसभा में बहुत ठीक ही कहा था-“आज के समय में संविधान हमारे पास है। अगर इसके बारे में कोई भ्रम फैलाते होंगे तो गलत है। कभी भी कोई संविधान बदलने के बारे में सोच नहीं सकता है। मैं मानूंगा कि अगर ऐसा कोई सोच रहा है तो वह आत्महत्या ही कर रहा है, क्योंकि उन महापुरूषों ने जो सोचा, आज की अवस्था में कोई कर ही नहीं सकता। हमारा तो भला इसमें है कि इसे अच्छे ढंग से कैसे हम गरीब, दलित, पीड़ित- शोषित के काम लाएं। हमारा ध्यान उसमें होना चाहिए।” यह विड़ंबना ही है कि संविधान दिवस को राष्ट्रीय स्तर पर उत्सव की तरह मनाने और उसे सर्वोच्चता देने वाले प्रधानमंत्री के दौर में ही संविधान पर खतरे की बात भी विध्नसंतोषी राजनीति द्वारा उछाली जा रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि ‘भारतीय संविधान’ की किताब देश के जन-मन में सबसे ऊंची जगह बनाएगी। साथ ही हमारे राष्ट्रनायकों के सपनों को भी पूरा करने में सहायक बनेगी।
(समीक्षक भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं)