श्रीमन नारायण भगवान विष्णु को मानव रूप धारण करके श्रीराम के नाम से अवतरित होने का निर्णय हो चुका था। त्रेता युग के इस महाअवतार श्रीराम के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि पूरी कालावधि में यत्किंचित यह प्रकट नहीं करना था कि वह नारायण का अवतार हैं। इसके साथ ही कठिनाइयों से भरे पूरे जीवन काल में उन्हें मनुष्य रूप में मर्यादाओं के मापदण्ड स्थापित करने थे। श्रीराम ने इन दोनों बातों का दृढ़ता से पालन किया।
श्रीराम को नर रूप में अवतार लेकर महाविनाशकारी राक्षस राज रावण और उसके मायावी राक्षसों का अन्त करना था। इसके लिए श्रीराम को कोई चमत्कारिक उपाय नहीं अपनाने की मर्यादा रेखा खींची गयी थी। रावण को उसकी तपस्या के कारण यह वरदान प्राप्त था कि कोई दैवीय शक्ति उसे मार नहीं सकेगी। इतना ही नहीं मायावी और पशु योनि में जन्में किसी जीव के माध्यम से भी उसकी मृत्यु नहीं होने का वरदान मिल चुका था। ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके रावण ने अजर-अमर होने का वरदान प्राप्त कर लिया था। साथ ही शिवजी से भी उसे अभयदान मिला था। असुरों का यह राजा इन्हीं दो दैवीय शक्तियों के वरदानों के कारण इतना अहंकारी बन गया था कि वह देवताओं, ऋषियों किसी को नहीं छोड़ता था। उन्हें अपनी राजसभा में सिर झुकाकर खड़े रहने के लिए बाध्य कर देता था। पृथ्वी सहित किसी लोक में रावण को नियन्त्रित करने वाला तब कोई नहीं था। रावण के अत्याचारों का कोई अन्त होता जब दिखायी नहीं दिया तब समस्त देवताओं ने श्रीमन नारायण विष्णु भगवान को मानव रूप में अवतार लेकर उसका अन्त करने के लिए मनाया। रावण मनुष्य को सबसे निरीह मानता था। इसीलिए उसने वरदान मांगते समय मानव से निर्भय होने की मांग नहीं की थी।
ब्रह्मा और शिवजी ने मानव के रूप में विष्णु भगवान को अवतरित होने का सुझाव यही मानकर दिया था कि रावण के समक्ष श्रीराम जब एक साधारण मनुष्य के रूप में खड़े दिखायी देंगे तो वह उनकी शक्तियों को पहचान नहीं सकेगा। शास्त्रों में एक बात कई स्थानों पर वर्णित है कि युद्ध से पहले रावण को पता चल गया था कि श्रीराम साधारण नर नहीं हैं। वह नारायण का अवतार हैं। रावण जब समुद्र तट पर श्रीराम के हाथों श्रीरामेश्वरम (भगवान शिव) की मूर्ति स्थापना में पुरोहित बनकर गया तब श्रीराम-लक्ष्मण की जोड़ी को देखते ही पहचान गया था कि वह दोनों अवतारी पुरुष हैं। तब उसने श्रीराम से दक्षिणा के रूप में एक वरदान मांगा था कि जब रणभूमि में वह दोनों भाई उसके समक्ष युद्ध के लिए सन्नद्ध दिखायी पड़ें तब उन्हें देखकर वह भूल जाय कि दोनों असाधारण शक्तियों वाले अवतारी पुरुष हैं। श्रीराम ने तो पहले से ही साधारण मानव के रूप में यह जीवन स्वीकार किया था। इसलिए उन्हें ऐसा वरदान देने में तनिक संकोच नहीं हुआ। श्रीराम-रावण युद्ध के समय ही नहीं किसी अवसर पर भी राम ने अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। इस अवतार की यही सबसे बड़ी विशेषता थी।
अयोध्या में कौशल्या और दशरथ के पुत्र के रूप में जब श्रीराम बालक बनकर प्रकट हुए तब उन्हें देखने के लिए सृष्टि की समस्त दैवीय शक्तियां आकुल हो उठी थीं। श्रीराम मानव रूप में प्रकट होंगे। तो उनके धरती पर प्रवास के समय और कितने देवताओं और देवियों को पृथ्वी लोक पर अवतरित होने का आशीर्वाद मिलेगा। ब्रह्मा और शिवजी के समक्ष यह प्रश्न बहुत जटिल था। हर कोई भारत की अयोध्या नगरी में मानव की भूमिका में पहुँचकर श्रीनारायण की मानव लीलाओं का अवलोकन करना चाहता था। श्रीमन नारायण ने जगत जननी लक्ष्मी और शेषनाथ के अतिरिक्त तीन और भ्राताओं के प्रति अपना मत दे दिया। देवी लक्ष्मी को सीता के रूप में सबसे कठिन दायित्व के लिए विष्णु जी ने हामी भरी थी।
शेषनाग को लक्ष्मण की भूमिका में अवतार लेने की सम्मति शिवशंकर ने दे दी। ब्रह्मा जी ने शेषनाग को प्रस्तुत करके श्रीनारायण विष्णु जी को बताया कि शेषनाग आपके लघु भ्राता बनकर कठिन चुनौतियों के समय साथ रहेंगे। ब्रह्मा जी ने शेषनाग को बताया कि आपको मानव रूप धारण करके छाया की तरह श्रीराम रूप नारायण के सहायक की भूमिका निभानी होगी। शेषनाग इस बात से प्रसन्न थे कि उनको पूरे समय श्रीराम के चरणों की सेवा के साथ माता महालक्ष्मी की सेवा करने का सौभाग्य मिलेगा। माता सीता स्वयं जटिल जीवन जिएंगी। उनकी भूमिका इतनी कठिन होने वाली थी कि अब तक ऐसी परिस्थिति का सामना महालक्ष्मी को पहले कभी नहीं करना पड़ा था। सीता जी अजन्मा रूप में भूमि से उत्पन्न हुई थीं। उनका पालन-पोषण जनक जैसे अपूर्व शक्तियों वाले राजा और उनकी पत्नी सुनयना ने किया।
इस अवतार के अन्य पात्र भी बहुत चुनकर तय किये गये। कैकेई के पुत्र भरत की भूमिका का सारा विवरण जब ब्रह्मा जी ने समझाया तो अनेक देवियां और देवता घबराने लगे। भरत की भूमिका अत्यन्त जटिल थी। जब कोई देवता इसके लिए उपयुक्त नहीं लगा तब श्रीराम ने सुदर्शन चक्र को इस रूप में मानव जन्म लेने का परामर्श दिया। ब्रह्मा जी और शिवशंकर ने इसे मान्य कर लिया। पर भरत की माता की भूमिका किसे दी जाय। यह प्रश्न अनुत्तरित था। तब स्वयं नारायण ने बताया कि एक तपस्विनी को उन्होंने माता नहीं होते हुए भी माता सा सम्मान देने का वरदान सतयुग में दिया था। उस तपस्विनी को वचन दिया था कि जब त्रेता में मैं मानव रूप में जन्म लूंगा तब वह मेरी सौतेली मां बन सकेगी। सौतेली मां होकर भी सर्वाधिक स्नेह वर्षा मेरे ऊपर करेगी। इस तरह मां तुल्य जीवन जीने का अवसर उसे मिलेगा। इसके साथ ही मैंने उसकी एक इच्छा पूर्ण करने का वचन दिया था कि उस अवतार के समय मेरे सबसे पुनीत कार्य में वह सहायक बनेगी। तब तपस्विनी ने सहर्ष सम्मति देते हुए कहा था कि भले इस कार्य के लिए मुझे घोर निन्दा सहन करनी पड़े पर अपने दायित्व का निर्वाह करेगी। वाल्मीकि रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने इस तथ्य को संक्षिप्त रूप में प्रकट किया है।
शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि नारायण के शंख पाञ्चजन्य को लघु भैया शत्रुघ्न के रूप में अवतरित होने की कृपापूर्ण स्वीकृति स्वयं त्रिदेवों ने सर्व सम्मति से दी थी। शत्रुघ्न को लक्ष्मण का कनिष्ठ बनकर एक ही कोख से जन्म पाने का अवसर मिला था। तब बात उठी कि लक्ष्मण और शत्रुघ्न की मां बनने का सौभाग्य किसे दिया जाय। स्वयं नारायण ने एक और ऋषि कन्या के जीवन पर प्रकाश डाला। सतयुग में यह कन्या बहुत समय तक श्रीनारायण के दर्शनों के लिए तप करती रही। तब उसे श्रीविष्णु ने दर्शन दिया। ऋषि पुत्री ने वरदान मांगा था कि उसे एक जन्म में माता की तरह आत्मीयता मिले। श्रीनारायण ने तब इसे त्रेता युग में एक राजकुमारी के रूप में जन्म लेने की बात बतायी थी। सभी जानते हैं कि सुमित्रा काशी नरेश के घर जन्मी थीं। उनका वरण राजा दशरथ ने दूसरी रानी के रूप में किया था। सुमित्रा बहुत सुशील और सर्वगुण सम्पन्न थीं। उन्होंने महारानी कौशल्या की सेवा में सारा जीवन लगा दिया था। सुमित्रा एक भक्त के रूप में अयोध्या के राजघराने में रहती थीं। राजा दशरथ और पूरा कुटुम्ब रानी सुमित्रा को बहुत स्नेह और आदर देते थे।
यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि माता कौशल्या पूर्व जन्म में स्वायंभुव मनु की पत्नी सतरूपा थीं। उन्होंने श्रीमन नारायण विष्णु को पुत्र रूप में पाने के लिए घोर तप किया था। तब उन्हें भगवान ने वरदान दिया था कि त्रेता में वह उनके पुत्र के रूप में अवतार लेंगे। कौशल्या के सन्दर्भ में महर्षि वाल्मीकि ने केवल इतना उल्लेख किया है कि वह एक कौशलेन्दु नामक राजा की दुहिता अर्थात बेटी थीं। पद्म पुराण में वर्णन है कि कौशल्या दक्षिण कौशल राज्य में एक राजकुमार की बेटी थीं। उनकी माता का नाम अमृतप्रभा था। कौशल्या बहुत आभावान महारानी थीं। वह त्रेता युग की सबसे आदर्श नारी मानी गयी हैं।
श्रीराम के जीवन से जुड़े किसी ग्रन्थ में महारानी कौशल्या के प्रति कोई अप्रिय बात नहीं मिलती। वह अप्रतिम ज्ञानी तो थीं ही धीरज और धर्म की ऐसी मर्मज्ञ थीं कि किसी समालोचक ने उनके जीवन पर कोई विपरीत टिप्पणी नहीं की। श्रीराम अपनी माता के हृदय में सदा बसे रहे। तभी तो कौशल्या का जीवन कभी विचलन के दोष से ग्रस्त नहीं हुआ। संवेदनाओं को अपने भीतर समा लेने के अवसर देने में माता कौशल्या ने कभी चूक नहीं की। अपने बेटे को वनवास देने की बात जानते हुए भी उनके मुख से कभी एक शब्द कैकेई के विरुद्ध नहीं निकला। कैकेई से कभी तनिक सा रोष कौशल्या ने प्रकट नहीं किया। इसीलिए विज्ञजन कहते हैं कि माता कौशल्या अपने हृदय में श्रीराम की गुरुता को सदा धारण किये रहीं। उनका मन कभी अधीर नहीं हुआ। वह प्रतिपल प्रतिपालक श्रीमन नारायण को अपनी अंक में विहार करता देखती और अनुभव करती रहीं। ऐसी माता कौशल्या सदा अविचलित रहीं।
सारी योजना बनाने वाले शिवशंकर ने तत्काल ब्रह्मा जी के पूछने पर नहीं बताया कि उनके अंशावतारों की भूमिका क्या रहेगी। ब्रह्माजी को महादेव ने आश्वस्त किया कि ऐसे किसी प्रयोजन की अनदेखी उनकी ओर से नहीं की जाएगी। जिसके लिए बहुत चिन्तित होना पड़े। शिवजी का यह वचन ब्रह्मा जो को बहुत भाया। वह आशय समझ चुके थे कि समस्त योजना पर महादेव की दृष्टि केन्द्रित रहेगी। श्रीराम के इस मनुज अवतार को जिसने प्रतिपल सहेजने का विषम कार्य किया वह और कोई हो ही नहीं सकता था। श्रीहनुमान को शिवशंकर का अंशावतार कहा जाता है। श्रीहनुमान से अधिक श्रीराम काज की पूर्णता के निमित्त आकुल और कोई नहीं था। हर परिस्थिति में श्रीराम के बोलने या इच्छा प्रकट करने से पहले श्रीहनुमान सिद्ध स्थिति में उपस्थित हो जाते थे। यही तथ्य इस बात के प्रमाण हैं कि भगवान शिव शंकर ने श्रीराम को अपनी शक्तियों से आच्छादित रखा। भगवान विष्णु की इस नर लीला को समझने के लिए इसीलिए सर्वप्रथम महादेव का सुमिरन करना पड़ता है। श्रीराम के सन्दर्भ में ऋषियों का कथन है कि वह महादेव के आराधक थे। जबकि महादेव श्रीराम नाम का सुमिरन करते रहे।
लंका के पराक्रमी रावण को पता चल गया था कि उसके अवसान की योजना बन चुकी है। उसने अपने किसी साथी को यह रहस्य नहीं बताया। पर ब्रह्मा जी की कठिन तपस्या करके उनसे मिलने का समय मांग लिया। उदार मना ब्रह्मा जी ने उससे भेंट की। इतना ही नहीं सारा प्रकरण बता दिया। यह भी कह दिया कि तुम्हारे राक्षस कुल के संग वो सभी मारे जाएंगे जो अब तक तुम्हारा सहयोग करते आ रहे हैं। रावण को ब्रह्माजी से संवाद के बाद सुधि हो आयी कि उसने भगवान शिव और ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त करते समय यह तो सोचा ही नहीं था कि कोई मानव इतना शक्तिशाली हो सकता है जो मेरे कुल का सर्वनाश कर डाले। रावण को एक युक्ति सूझी। उसने पहले ब्रह्मा जी फिर शिवजी की स्तुति करके बड़ी विनम्रता से एक बात कही कि श्रीराम से मैं लडूंगा पर युद्ध काल में उनकी स्मृति बिगड़ जाय। वह जैसे चाहें मुझसे लड़ें पर उनको यह बात भूल जाय कि वह परम शक्तिशाली श्रीमन नारायण हैं। शिवजी और ब्रह्मा जी दोनों रावण के कथन पर मौन साध गये। वस्तुत: रावण ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया था कि ब्रह्मा जी अथवा शिवजी यह वचन कैसे दे सकते हैं कि वह श्रीमन नारायण की बुद्धि को बांध कर उसकी सहायता करेंगे। यह स्वयं श्रीराम का व्रत था कि उन्होंने मानवीय शक्तियों के आधार पर ही रावण की आसुरी शक्तियों का समूल नाश करने का वचन निभाया।
रावण के मस्तिष्क में यह बात कौंधती रही। वह एक दिन अपने नाना सुमाली के पास गया। सुमाली बहुत देर मौन रहा। फिर कहा- रावण तनिक सोचो आपसे किसी को ऐसा वरदान पाना हो तो कहीं और जाने से कुछ नहीं होगा। वह साक्षात नारायण हैं। उनसे कुछ पाना है तो उस दिन की प्रतीक्षा करो। जब कभी पहली बार उनसे सामना हो तब यह आकांक्षा उन्हीं के समक्ष प्रकट कर देना। श्रीराम परम शीलवान हैं। अहंकार रहित हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि रावण को श्रीराम ने श्रीरामेश्वरम की स्थापना के निमित्त आग्रह पूर्वक बुलवाया था। समारोह के उपरान्त रावण ने श्रीराम से यही कहा था कि रण क्षेत्र में जब आप मेरे समक्ष खड़े हों तो यह भूल जाएं कि आप नारायणी शक्तियों के पुंज हैं। रावण ने एक बात और कही कि युद्ध में मेरा मन आपको सामान्य मानव से अधिक किसी और रूप में स्वीकार नहीं करे। श्रीराम ने तथास्तु कह कर महा पराक्रमी रावण की मनोकामना पूर्ण कर दी थी।
श्रीराम ने सम्पूर्ण जीवन में कभी अपने को श्रीमन नारायण का अवतार घोषित नहीं किया। कभी दशरथ नन्दन, तो कभी सूर्यकुल में जन्मा सामान्य व्यक्ति कहा। ऐसा अवसर उत्पन्न ही नहीं होने दिया कि अपने को अवतार कहना पड़ता। कभी कुलगुरू वशिष्ठ का शिष्य बताया तो कभी महर्षि विश्वामित्र ने उनको अपना शिष्य कहकर बात सम्भाली। उनके प्रिय भ्राताओं ने भी श्रीराम की लीक पकड़े रखी। अवतार की बात किसी की वाणी से प्रकट नहीं हुई। श्रीराम के जीवन में मर्यादा का उल्लंघन होते किसी ने नहीं देखा।
द्वापर युग के अवतार श्रीकृष्ण
त्रेता युग के अवतार श्रीराम के समक्ष यह मर्यादा थी कि वह सामान्य मानव बनकर असाध्य लक्ष्य को प्राप्त करें। दूसरी ओर द्वापर युग में श्रीकृष्ण का अवतार सर्वथा अलग परिस्थितियों में हुआ। द्वापर युग में राक्षसी शक्तियों से अधिक दुष्टवृत्ति के मानव समूह अत्याचार के पर्याय बने हुए थे। मथुरा की कारागार में जन्में देवकी नन्दन श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में बारम्बार यह बात दोहरायी कि मैं परमात्मा का साक्षात अवतार हूँ। कुरुक्षेत्र की रणभूमि से पहले नन्द बाबा के घर से लेकर वृन्दावन हो चाहे यमुना नदी में रह रहे कालिया नाग को नाथने के समय, उन्होंने सबके समक्ष यह सिद्ध किया कि वह अवतारी पुरुष हैं।
इन्द्र के कोप से अपनी प्रजा को बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत उठा लिया था। तब देवराज इन्द्र सहित सभी देवताओं ने नतमस्तक होकर उनकी दिव्य शक्तियों को मान्य किया था। अर्जुन के सारथी बनकर श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र की पारी पलट दी थी। पर द्वारिका के अपने ही परिवार यहाँ तक कि पुत्रों से मुंह मोड़ लिया था। श्रीकृष्ण ने गीता के प्रत्येक अध्याय में अपनी शक्तियों का चमत्कार किया है। वह अजर अमर हैं। सर्व शक्तिमान हैं यह बताने में श्रीकृष्ण ने कभी तनिक संकोच नहीं किया। कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि दो अवतारों में इतना विरोधाभाष क्यों। उन्हें सोचना चाहिए कि दोनों युगों की परिस्थितियों में भिन्नता थी। श्रीराम ने सृष्टि के लिए घोर शत्रु सिद्ध हो रहे रावण को दिये गये वचन का उल्लंघन कुल सहित उसके सर्वनाश के उपरान्त भी नहीं किया। किसी को दिया गया वचन ऐसी मर्यादा है जिसे भंग नहीं करना चाहिए। यह शिक्षा श्रीराम ने अपने अवतारी जीवन से सभी को दी है। जबकि श्रीकृष्ण ने अपने कृतीत्व से यह सिद्ध किया कि अत्याचारी के अन्त के लिए छल-बल, युक्ति और सिद्धि सभी का प्रयोग किया जा सकता है। अन्यायी, अधर्मी और अत्याचारी कभी मर्यादाओं का आदर नहीं करते। उनका सर्वनाश जिस विधि से हो करना चाहिए। ऐसे अधर्मियों और आक्रान्ताओं का सामना करते समय यदि भारत के सनातनी समाज ने श्रीकृष्ण के वचनों और कृतीत्व पर ध्यान दिया होता तो तुर्क, मुगल या अरबी आक्रान्ताओं का आधिपत्य भारत पर कभी न हो पाता।
श्रीराम की माता कौशल्या ही नहीं समस्त माताएं, पिता एवं गुरुजनों को सब कुछ पता था। पर सभी ने श्रीराम की मर्यादा की आन की रक्षा की। वह बाल्यकाल से मर्यादाओं की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहे। जीवन को इस तरह जिया जो अंहकार से पूर्णतया रहित रहा। उन्हें पता था शत्रु रावण उनसे यही वचन पाने के लिए हठ करेगा। इसलिए बाल्यकाल से वैसा ही जीवन अपना लिया। अपने संकल्प को कभी तोड़ना नहीं चाहिए। यह आन ही जीवन का मौलिक गुण बन जाती है। श्रीराम अपने लघु भ्राता को अंक में लेकर विलाप करते रहे पर संजीवनी चमत्कार से नहीं हनुमान जी के श्रम से आने दी। ऐसे परम पुरुष को नारायण का अवतार कहलाने से अधिक आनन्द मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम कहलाने में मिलता रहा। उनके इसी स्वरूप में हम सब उनके भगवान के रूप का दर्शन करते हैं। श्रीकृष्ण का कार्यकाल त्रेता नहीं द्वापर का है। जहाँ सर्वत्र अराजकता अन्याय और अधर्म है। इसलिए द्वापर युग के अवतार की भूमिका सर्वथा भिन्न रही। श्रीकृष्ण नहीं होते तो प्रति क्षण अन्याय-अधर्म में लीन मानव उनकी एक भी बात नहीं सुनते। इसीलिए कहा जाता है कि अवतार हर युग की परिस्थितियों के कारण भिन्न होते हैं। श्रीमन नारायण विष्णु ने समुद्र मन्थन के समय राक्षसों को अमृत से वंचित करने के लिए सुन्दर नारी का रूप धारण किया था। भागवत पुराण के अनुसार भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर राक्षस राजा बलि से दान स्वरूप त्रैलोक्य की सत्ता प्राप्त करके पुन: देवराज इन्द्र को सौंप दी थी। राजा बलि राक्षस होते हुए भी अत्याचारी नहीं था। पर उसने सृष्टि के विधान को तोड़ दिया था। इसलिए उसके समक्ष वीरता का प्रदर्शन करने की आवश्यकता नहीं थी।
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तनिक विचार कीजिए यदि श्रीकृष्ण ने युक्ति, बुद्धि से पाँच पाण्डवों की रक्षा न की होती तो क्या धर्मराज युधिष्ठिर के नेतृत्व में पाँचों भाइयों की सात अक्षोहिणी सेना 100 कौरव भाइयों की 11 अक्षोहिणी सेना से कभी पार पा सकती थीं। श्रीकृष्ण ने तो अपनी विशाल सेना को दुर्योधन के अधीन कर दिया था। जिससे कि कौरव यह न कह सकें कि उन्होंने पाण्डवों को ही अपना माना। कितने अचरज की बात है कि महाभारत और गीता की बात करने वाला सनातन हिन्दु समाज लगभग एक हजार वर्षों तक श्रीकृष्ण के आदर्शों से कुछ नहीं सीख सका। कभी मोहम्मद गौरी, गजनवी, बाबर, अलाउद्दीन जैसे पापी और अन्तत: कपटी अंग्रेज भारत माता के गौरव को लूटने और रौंदने आते रहे। भारत के बहुसंख्य लोग इनका सामना करके परास्त कर सकते थे। पर वह कभी मर्यादा तो कभी भक्ति की चर्चाओं में उलझ कर समाज को दिशा नहीं दे पाये। तभी तो भारत दीर्घ काल तक त्रासदी सहता रहा। भारत के लिए यही युगधर्म है कि काल की परिस्थितियों के अनुरूप श्रीराम और श्रीकृष्ण की मर्यादाओं का स्मरण करके अपना आचरण सुनिश्चित करें। जय श्रीराम, जय श्रीकृष्ण।।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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