बात श्रीरामजी के कालखण्ड की है। एक बार ब्रह्मा जी को सृष्टि के विस्तार की चिन्ता हुई। वस्तुत: त्रिदेवों- अर्थात भगवान विष्णु, शंकरजी और ब्रह्माजी को सदा से सृष्टि के सृजन, पालन और संहार का अधिकार रहा है। ब्रह्मा सृजनकर्ता हैं। उन्हें एक दिन यह प्रतीति हुई कि जिनका सृजन स्वयं किया उनमें से अधिकांश तप करने में लीन हो गये। सृष्टि के विस्तार से विरत रहे। तब उन्होंने महर्षि अत्रि को बुलाकर कहा कि सृष्टि के विस्तार में उनका सहयोग करें। अत्रि एक महान ऋषि होने के साथ समस्त विद्याओं के ज्ञाता थे। उन्हें सर्वज्ञ ऋषि कहा जाता था। ब्रह्माजी के परामर्श पर ऋषिवर कर्दम ने अपनी बेटी अनसुइया का विवाह अत्रि से करना स्वीकार किया। कर्दम उस समय प्रजापति थे। उनकी पत्नी का नाम देवहुति था। देवहुति को भी अपनी सुयोग्य बेटी अनसुइया का विवाह महर्षि अत्रि से करने में हर्ष की अनुभूति हुई।
राम के जीवन से सम्बन्धित रामायण और अन्य विभिन्न ग्रन्थों में अत्रि और अनसुइया की कहानियां मिलती हैं। अनसुइयाजी ने अपने आश्रम पर श्रीराम-लक्ष्मण के साथ पधारी सीताजी को पतिव्रत धर्म सहित अनेक कर्तव्यों और संस्कृति का ज्ञान कराया था। अनसुइयाजी विलक्षण प्रतिभा की धनी थीं। वह भारत की महान नारियों में उच्च आदर्शों की धनी होने के नाते पूज्य हैं। अत्रि और अनसुइया के पुत्रों में पूज्य दतात्रेय का नाम प्रमुख है। दतात्रेय को भारत के बहुत बड़े भू-भाग के निवासी हजारों वर्षों से एक महान देवता के रूप में पूजते आ रहे हैं। ग्रन्थों में वर्णन मिलता है कि दतात्रेय जैसे पुत्र की प्राप्ति के लिए अत्रि और अनसुइया ने विशिष्ट अनुष्ठान किये थे। महर्षि अत्रि की एक बात अनेक ग्रन्थों में बतायी गयी है कि माता-पिता को उत्तम सन्तान पाने के लिए निर्मल चित्त से अपने इष्ट देवता और कुल देवता की आराधना करनी चाहिए।
स्वयं अत्रि ने अपने बड़े भाई ऋषिवर सनत्सुजात से श्रेष्ठ पुत्र प्राप्ति के लिए सांगोपांग मन्त्र रहस्य और उपासना पद्धति का ज्ञान प्राप्त करके कठिन साधना की थी। इस साधना में अनसुइया ने अति का भरपूर साथ दिया था। अत्रि और अनसुइया की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और शंकर तीनों उनके समक्ष प्रकट हुए थे। पति-पत्नी दोनों उस समय तप में इतने लीन थे कि त्रिदेवों के आगमन का आभास उन्हें नहीं हुआ। तब इन देवों ने पहले दोनों को पुकारा फिर सिर पर स्पर्श किया। इतने पर भी उनकी साधना नहीं टूटी तो हाथ पकड़कर खड़ा कर दिया। इतना ही नहीं भगवान विष्णु ने उनके अन्तस में प्रवेश करके आत्मा को अपनी अनुपस्थिति का आभास कराया। तब जाकर अत्रि और अनसुइया ध्यान मुद्रा से बाहर आये। त्रिदेवों के चरणस्पर्श किये। कुछ देर तक दोनों के कण्ठ अवरुद्ध रहे। त्रिदेवों ने उनके कण्ठ का स्पर्ष किया। ब्रह्मा ने अपने कमण्डल से पवित्र जल छिड़का तब उनके कण्ठ स्तुति गाने लगे।
वैदिक साहित्य में अत्रि और अनसुइया की इस तपस्या को बड़ा महत्व दिया गया है। दोनों ने त्रिदेवों की जो स्तुति की वह भी अतुलनीय है। स्तुति से प्रसन्न होकर त्रिदेवों ने अत्रि और अनसुइया से कहा- हम जानते हैं कि उत्तमोत्तम सन्तान प्राप्त करने के लिए तुमने अतुलनीय तप किया है। तुम्हारी अभिलाषा पुनीत है। इसलिए हम तीनों के अंशरूप अवतार तुम्हारे घर पुत्र रूप में जन्म लेंगे। निश्चित अवधि के उपरान्त यह अवतार प्रकट हुए। ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा, शिव शंकर के अंश से दुर्वासा और विष्णु के अंश से श्रीभगवान की संज्ञा प्राप्त दतात्रेय का जन्म हुआ। भगवान दतात्रेय की संकल्प शक्ति से सृष्टि में स्थिरता युक्त सातत्य बना रहता है। उन्हीं के कोप से प्रलय होती है। यह तीनों शक्तियां अनसुइया और अत्रि के आंगन में बाल लीला करते हुए बड़े हुए। इनकी लीला को देखने के लिए महर्षि अत्रि और अनसुइया के घर प्रतिदिन देवगणों और ऋषियों का मेला लगा रहता। इनकी दीक्षा में माता-पिता को दिव्य ऋषियों का सहयोग मिला। सभी ने वेदों का अध्ययन किया। दुर्वासा एक महान ऋषि बनकर देवत्व और ऋषित्व का कीर्ति स्तम्भ बने। चन्द्रमा को पृथ्वी पर सृष्टि के सृजन में सहयोग का दायित्व मिला। पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए वह अपने दायित्व का निर्वाहन सृष्टि के समापन तक करते रहेंगे।
देवतुल्य दतात्रेयजी को सर्वज्ञ तत्व ज्ञानी बनकर उभरने का अवसर मिला। सनातन संस्कृति में गुरु मर्यादा की रक्षा के साथ ही समस्त ऋषियों, महार्षियों, मुनियों, ज्ञानियों के संरक्षण और संवर्धन का दायित्व स्वयं दतात्रेय ने स्वीकार किया। दतात्रेय के जीवन से जुड़ी अनेक कथाएं वैदिक साहित्य में मिलती हैं। वह एक महान योगी थे। धर्म के प्रणेयता बनकर उभरे। धर्म के रहस्यों का उद्घाटन और व्याख्या से जुड़े अनेक ग्रन्थ दक्षिण भारत की भाषाओं में प्रचलित हैं। संस्कृत भाषा में इनसे जुड़ा साहित्य प्रचुर मात्रा में है।
एक कहानी है कि दतात्रेय के मन में एक दिन वैराग्य का भाव जाग उठा। माता-पिता और अन्य सभी का साथ छोड़ने की बात मन में उठी। वह वन में जाकर एक गहरी झील में चलते चले गये। गहन जल में विलीन दतात्रेय के सम्बन्ध में सभी डर गये। सर्वत्र चिन्ता व्याप्त हो गयी। अत्रि और अनसुइया को आभास था कि दतात्रेय कोई सामान्य बालक नहीं हैं। धर्म की कीर्ति स्तम्भ होने के साथ सिद्ध योगी हैं। उनकी बुद्धि परिपक्व है। परम सत्ता के प्रति संशय रहित हैं। उनके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। दतात्रेय के प्रिय मित्र उनके साथ खेलने वाले साथ बिना खाए-पिये तीन दिनों तक रात-दिन बैठे रहे। अपने साथियों की पीड़ा का आभास दतात्रेय को था। तभी तो उनके साथियों की दशा अपनी दिव्य शक्तियों के बल पर उन्होंने बिगड़ने नहीं दी। कई लोगों ने माता-पिता के पास जाकर कहा कि वह अपनी शक्तियों से किशोर वय के दतात्रेय को गुहार लगाएं। तब माता अनसुइया झील के निकट पहुँचीं।
माता अनसुइया ने अपने प्रिय बालक को गुहारते हुए कहा- मुझे भरोसा है कि तुम किसी योग विद्या का अभ्यास कर रहे हो। तुम्हारी साधना में बाधा डालना मेरा उद्देश्य नहीं है। तद्यपि तुम्हारे साथियों की उद्दिग्नता का आभास तुम्हें भी होगा। अच्छा होगा कि इनके बीच आकर अपने स्पर्श से इन्हें भी कुछ विद्याओं का अभ्यास कराओ। माता और साथियों के अह्वान पर दतात्रेय ने सोचा कि मैं तो सबका साथ छोड़कर दूर जाना चाहता था इसीलिए गहरे जल में प्रवेश किया था। पर मेरा प्रयास अनुचित सिद्ध हुआ। लोगों का मोह मेरे मार्ग में बाधक बन गया। मेरे योग का प्रभाव देखकर लोगों का आकर्षण और बढ़ जाएगा। फिर भी उन्होंने माँ की गुहार व्यर्थ नहीं जाने दी। उनकी इच्छा मात्र से झील के बीच से एक मार्ग बाहर की ओर आता दिखायी दिया। जिस पर चलकर दतात्रेय अपनी दिव्य प्रतिभा के साथ प्रकट हुए। सभी ने उनका भाव विभोर होकर स्वागत किया।
माँ अनसुइया ने देखा कि उनका पुत्र दतात्रेय योग साधना में प्रवीण सिद्ध हो चुका है। माँ की दृष्टि दिव्य शक्ति से युक्त थी इसलिए दतात्रेय की वास्तविक स्थिति उन्हें दिखायी दी। जबकि वहां उपस्थित अनेक लोगों को भ्रमित करने वाली छवि देखने को मिली। उन्होंने देखा कि दतात्रेय के वाम अंग में एक सुन्दर नारी सुशोभित है। इससे वहां उपस्थित मित्र और अन्य लोग भ्रमित हो गये। उन्हें लगा कि दतात्रेय न होकर कोई और प्रकट हुआ है। दतात्रेय ने अपनी माता को नमन करते हुए संकेत से उन्हें विदा किया। तो दूसरी ओर अपने साथियों के ह्दय से अपनी पहले की दिव्य छवि मिटाने का उपक्रम किया। मित्रों में भी जो वास्तव में बुद्धिमान और समर्थ के धनी थे वह जान रहे थे कि माया का यह स्वांग आशक्त लोगों को दूर करने का है। योगियों के जीवन में माया प्रभाव नहीं डालती। उन्हें तो योग मुद्रा में ही विश्रान्ति और परम सुख की प्राप्ति होती है। योगी जन अपने जीवन के उत्कर्ष के मार्ग से विरत नहीं होते।
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भगवान दतात्रेय अमरत्व की स्थिति में सृष्टि के अन्त तक विद्यमान रहेंगे। वह देवगणों के बीच भी पूज्य हैं। मानव मात्र के लिए आराध्य माने जाते हैं। संसार के अनेक देशों में भगवान दतात्रेय के उपासक हैं। उन्होंने अलर्क, प्रहलाद, यदु सहित अनेक महान भक्तों को तत्व ज्ञान का उपदेश दिया था। विद्या के अभिलाषी जिज्ञासु जानते हैं कि सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान की प्राप्ति में यदि तनिक भी बाधा बन रही हो तो भगवान दतात्रेय की साधना करनी चाहिए। इससे सर्वथा कल्याण होता है। भगवान दतात्रेय के जीवन से सम्बन्धित अनेक वृतान्त मार्कण्डेय और स्कन्द पुराणों में विस्तार से मिलते हैं।
प्राय: सिद्ध गुरुजन अपने सुयोग्य शिष्यों को भगवान दतात्रेय के जीवन के प्रसंगों और साधना की विधाओं का अध्ययन करने को कहते हैं। श्रीमद भागवत महापुराण के 11वें स्कन्द में दतात्रेय के 24 गुरुओं की बड़ी सुन्दर कथा का वर्णन मिलता है। ज्ञान के माध्यम से अपने कल्याण के इच्छुक शिष्यों को दतात्रेय के जीवन से सीख लेने चाहिए। उनके बारे में कहा जाता है कि वह गोदावरी नदी के तटवर्ती क्षेत्रों में वेश बदलकर घूमने पहुँच जाते हैं। ऐसे क्षेत्रों के निवासी इस आस्था से बंधे हैं कि कभी न कभी उनके घर भिक्षा लेकर कल्याण करने के उद्देश्य से पधारेंगे। उनका यह विश्वास अटूट हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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