भरोसा करना कठिन है कि पं. दीनदयाल उपाध्याय (Pt. Deendayal Upadhyay) जैसे साधारण कद-काठी और सामान्य से दिखने वाले मनुष्य ने भारतीय राजनीति को एक ऐसा वैकल्पिक विचार और दर्शन प्रदान किया कि जिससे प्रेरणा लेकर हजारों युवाओं की एक ऐसी मालिका तैयार हुई, जिसने इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भारतीय राजसत्ता में अपनी गहरी पैठ बना ली। क्या विचार सच में इतने ताकतवर होते हैं या यह सिर्फ समय का खेल है? किसी भी देश की जनता राजनीतिक निष्ठाएं एकाएक नहीं बदलतीं। उसे बदलने में सालों लगते हैं। डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी (Dr Syamaprasad Mukherjee) से लेकर नरेंद्र मोदी तक पहुंची यह राजनीतिक विचार यात्रा साधारण नहीं है। इसमें इस विचार को समर्पित लाखों-लाखों अनाम सहयोगियों को भुलाया तो जा सकता है किंतु उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
पं. दीनदयाल उपाध्याय (Pt. Deendayal Upadhyay) राजनीति के लिए नहीं बने थे, उन्हें तो एक नए बने राजनीतिक दल जनसंघ में उसके प्रथम अध्यक्ष डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी (Dr Syamaprasad Mukherjee) की मांग पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक मा.स.गोलवलकर (गुरुजी) ने राजनीति में भेजा था। यह एक संयोग ही था कि डा. मुखर्जी और पं. दीनदयाल दोनों की मृत्यु सहज नहीं रही और दोनों की मौत और हत्या के कारण आज भी रहस्य में हैं। पं. दीनदयाल तो संघ के प्रचारक थे। आरएसएस की परिपाटी में प्रचारक एक गृहत्यागी सन्यासी सरीखा व्यक्ति होता है, जो समाज के संगठन के लिए अलग-अलग संगठनों के माध्यम से विविध क्षेत्रों में काम करता है।
इसे भी पढ़ें: सीएम का हेल्पलाइन नंबर 1076 किस काम का!
देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन बन चुके आरएसएस के लिए वे बेहद कठिन दिन थे। राजसत्ता उन्हें गांधी का हत्यारा कहकर लांछित करती थी, तो समाज में उनके लिए जगह धीरे-धीरे बन रही थी। शुद्ध सात्विक प्रेम और संपर्कों के आधार पर जैसा स्वाभाविक विस्तार संघ का होना था, वह हो रहा था, किंतु निरंतर राजनीतिक हमलों ने उसे मजबूर किया कि वह एक राजनीतिक शक्ति के रूप में भी सामने आए। खासकर संघ पर प्रतिबंध के दौर में तो उसके पक्ष में दो बातें कहने वाले लोग भी संसद और विधानसभाओं में नहीं थे। यही पीड़ा भारतीय जनसंघ के गठन का आधार बनी। डा. मुखर्जी उसके वाहक बने और दीनदयाल जी के नाते उन्हें एक ऐसा महामंत्री मिला जिसने दल को न सिर्फ सांगठनिक आधार दिया बल्कि उसके वैचारिक अधिष्ठान को भी स्पष्ट करने का काम किया।
पं. दीनदयाल को गुरु ने जिस भी अपेक्षा से वहां भेजा वे उससे ज्यादा सफल रहे। अपने जीवन की प्रामणिकता, कार्यकुशलता, सतत प्रवास, लेखन, संगठन कौशल और विचार के प्रति निरंतरता ने उन्हें जल्दी ही संघ और जनसंघ के कार्यकर्ताओं का श्रद्धाभाजन बना दिया। बेहद साधारण परिवार और परिवेश से आए दीनदयालजी भारतीय राजनीति के मंच पर बिना बड़ी चमत्कारी सफलताओं के भी एक ऐसे नायक के रूप में स्थापित होते दिखे, जिसे आप आदर्श मान सकते हैं। उनके हिस्से चुनावी सफलताएं नहीं रहीं, एक चुनाव जो वे जौनपुर से लड़े वह भी हार गए, किंतु उनका सामाजिक कद बहुत बड़ा हो चुका था। उनकी बातें गौर से सुनी जाने लगी थीं। वे दिग्गज राजनेताओं की भीड़ में एक राष्ट्रऋषि सरीखे नजर आते थे।
उदारता और सौजन्यता से लोगों के मनों में, संगठन कौशल से कार्यकर्ताओं के दिलों में जगह बना रहे थे तो वैचारिक विमर्श में हस्तक्षेप करते हुए देश के बौद्धिक जगत को वे आंदोलित-प्रभावित कर रहे थे। वामपंथी आंदोलन के मुखर बौद्धिक नेताओं की एक लंबी श्रृखंला, कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन से तपकर निकले तमाम नेताओं और समाजवादी आंदोलन के डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण जैसे प्रखर राजनीतिक चिंतकों के बीच अगर दीनदयाल उपाध्याय स्वीकृति पा रहे थे, तो यह साधारण घटना नहीं थी।
इसे भी पढ़ें: गो संरक्षण के नाम पर यह भी हत्या ही है!
यह बात बताती है गुरुजी का चयन कितना सही था। उनके साथ खड़ी हो रही सर्वश्री अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख, जेपी माथुर, सुंदरसिंह भंडारी, कुशाभाऊ ठाकरे जैसे सैकड़ों कार्यकर्ताओं की पीढ़ी को याद करना होगा, जिनके आधार पर जनसंघ से भाजपा तक की यात्रा परवान चढ़ी है। दीनदयाल जी इन सबके रोलमाडल थे। अपनी सादगी, सज्जनता, व्यक्तियों का निर्माण करने की उनकी शैली और उसके साथ वैचारिक स्पष्टता ने उन्हें बनाया और गढ़ा था। पांचजन्य, राष्ट्रधर्म और स्वदेश जैसे पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के माध्यम से उन्होंने एक नया वैचारिक क्षितिज तैयार किया। अनेक लेखक और पत्रकारों को अपनी वैचारिक धारा से जोडने का काम किया। उनकी प्रेरणा तमाम लोग राजनीति में आए तो तमाम लोग लेखन और पत्रकारिता से भी जुड़े।
एकात्म मानववाद के माध्यम से सर्वथा एक भारतीय विचार को प्रवर्तित कर उन्होंने हमारे राजनीतिक विमर्श को एक नया आकाश दिया। यह बहुत से प्रचलित राजनीतिक विचारों के समकक्ष एक भारतीय राजनीतिक दर्शन था, जिसे वे बौद्धिक विमर्श का हिस्सा बना रहे थे। उसके लिए उनके मुंबई जनसंघ के अधिवेशन में दिए गए मूल चार भाषणों की ओर देखना होगा। अपने इस विचार को वे व्यापक आधार दे पाते इसके पूर्व उनकी हत्या ने तमाम सपनों पर पानी फेर दिया। जब वे अपना श्रेष्ठतम देने की ओर बढ़ रहे थे, तब हुयी उनकी हत्या ने पूरे देश को अवाक् कर दिया।
इसे भी पढ़ें: फिर भी नहीं रुक रही संतों की हत्या
पं. दीनदयाल ने अपने प्रलेखों और भाषणों में ‘एकात्म मानववाद’ शब्द पद का उपयोग किया है। भाजपा ने 1985 में इसे इसी नाम से स्वीकार किया, किंतु नानाजी देशमुख की पहल से बौद्धिक वर्गों के बीच ‘एकात्म मानवदर्शन’ नामक शब्दपद स्वीकृति पा चुका है। आज भी पं. दीनदयाल की स्मृतियां उन लाखों लोगों को शक्ति देती हैं जो आज भी सादगी, सौजन्यता और जनधर्मी राजनीति पर भरोसा करते हैं। पं. दीनदयाल आज की राजनीतिक गिरावट के दौर में एक प्रकाश पुंज की तरह प्रेरणा दे सकते हैं। राजनीति को उन बुनियादी वसूलों से जोड़ने का हौसला दे सकते हैं, जहां सत्ता का उपयोग सेवा के लिए ही किया जाता है और जनप्रतिनिधि खुद को शासक नहीं सेवक ही समझता है।
(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं)