Acharya Vishnu Hari Saraswati
आचार्य श्रीहरि

उद्धव ठाकरे की दुर्गति अब नहीं देखी जाती। महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में जनता ने उसकी ऐसी दुर्गति ही नहीं की थी बल्कि राजनीतिक तौर पर हाशिये पर भी खड़ा कर दिया था। अब वह अपनी विरासत की ओर लौटने के लिए रास्ते तलाश रहे हैं। अवसर देख रहे हैं और जिनकों जमींदोज करने, सफाया करने, गुजरात खदेड़ने के दावे करते थे, धमकियां देते थे, उनसे ही दया की भीख मांग रहे हैं। गठबंधन करने के लिए गुहार लगा रहे हैं।

मुबंई महानगर परिषद की शक्ति को अक्षुण रखने की उनकी राजनीतिक अभिलाषा भी पूरी नहीं होगी? मुबई महानगर परिषद के चुनाव में भाजपा उद्धव ठाकरे से गठबंधन करने के लिए शायद ही तैयार होगी। मुबंई महानगर परिषद की सत्ता जहां गयी, फिर उद्धव ठाकरे की बची-खुची राजनीतिक शक्ति का भी संहार हो जायेगा। हिन्दुत्व की विरासत ही उद्धव ठाकरे को प्रभावशाली बना सकती है। पर हिन्दुत्व तो अब पूर्ण रूप से भाजपा की थाथी है।

राजनीतिक अहंकार और अति महत्वाकांक्षा का दुष्परिणाम जितना उद्धव ठाकरे ने झेला है उतना अन्य किसी राजनीतिज्ञ ने शायद ही झेला होगा। बाल ठाकरे के सामने न तो सोनिया गांधी की कोई औकात थी और न ही उनके बच्चों राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की कोई औकात थी। सोनिया गांधी, राजीव गांधी और इंदिरा गांधी के खिलाफ जब बाल ठाकरे दहाड़ते थे तब पूरा देश बाल ठाकरे की जय-जय कार करता था। लेकिन उद्धव ठाकरे ने सोनिया गांधी और उनके बच्चों राहुल गांधी, प्रियंका गांधी की चरणवंदना की और उनके शर्तों पर गठबंधन किया। सरकार चलाने के लिए मुस्लिम परस्ती दिखायी।

जब जनता ने हवाहवाई कर दिया तब उद्धव ठाकरे अपने बेटे आदित्य ठाकरे के साथ मिलने देवेन्द्र फडनवीस के पास पहुंच गये। उद्धव ठाकरे की ऐसी दुर्गति देख कर आश्चर्य होता है, राजनीतिक विशेषज्ञों के लिए भी घोर आश्चर्य की बात है। उद्धव ठाकरे अपने राजनीतिक इन कारनामों से कई कहावतों का सच कर दिखाये हैं। जैसे माया मिली न राम, क्या वर्षा जब कृषि सुखाय, अब पछताए होत क्या जब खेत चुग गयी चिंडिया आदि-आदि। सब कुछ गंवा कर वे होश में आये हैं। अब उनके पास न तो बाल ठाकरे की विरासत रही और न ही उनका कोई जमीनी आधार कायम रहा।

हिन्दुत्व वोटों की विरासत पर भाजपा का कब्जा हो गया। कांग्रेस के चक्कर में उन्होंने जो सेक्युलर और मुस्लिम वोटों और समर्थन का ख्वाब देखा था, वह भी असफल साबित हुआ। भाजपा का सामना करने के लिए राजनीतिक संघर्ष में उद्धव ठाकरे कांग्रेस को पछाड़ पायेंगे या नहीं? क्योंकि उद्धव ठाकरे न तो संघर्ष के प्रतीक हैं और न ही उनमें राजनीतिक चातुर्य है। अपनी विरासत और अपने जनाधार को छोड़ने वाले राजनीतिज्ञ और राजनीतिक पार्टियां कभी भी मजबूत नहीं हो सकती है और न ही जनता की आकांक्षी बन सकती हैं। सत्ता के लायक समर्थन भी एकत्रित नहीं कर सकती हैं। क्योंकि विरासत और जनाधार ही किसी नेता और किसी पार्टी की राजनीतिक पूंजी होती है।

कांग्रेस की दुर्गति को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। कांग्रेस ने असली धर्मनिपेक्षता छोड़ी, नकली धर्मनिरपेक्षता पर सवार हो गयी। मुस्लिम परस्ती उसकी नीति हो गयी। केन्द्रीय सत्ता से कांग्रेस दूर हो गयी। राज्यों की सत्ता से भी दूर होती चली गयी। फिर भाजपा का उदाहरण भी देखना चाहिए। कई बार सत्ता में रहने के बाद भी भाजपा अपने जनाधार और अपनी विरासत पर विश्वास बनाये रखी। उसने कभी नहीं कहा कि हिन्दुत्व हमारा लक्ष्य और एजेंडा नहीं हैं। भाजपा ने इसी लक्ष्य और एजेंडा पर 1977 की जनता पार्टी और 1989 की वीपी सरकार से हटना स्वीकार किया पर अपनी विरासत से समझौता करना उसे स्वीकार नहीं हुआ। सुखद परिणाम यह निकला कि भाजपा केन्द्रीय सत्ता की मजबूत शासक बन गयी।

अपनी विरासत के साथ उद्धव ठाकरे ने कैसा व्यवहार किया? उद्धव ठाकरे ने हिन्दुत्व की कब्र खोदने के लिए क्या-क्या न किया? हिन्दुत्व विरोधी कांग्रेस की गोद में जा बैठे। गांधी परिवार से मिलने और उनकी चरणवंदना करने सोनिया गांधी के दरबार तक पहुंच गये। सोनिया गांधी ही नहीं बल्कि प्रियंका गांधी और राहुल गांधी तक का गुनगान करना पड़ा। हिन्दुत्व को छोड़ कर कांग्रेस की नीति पर चल निकले। शरद पवार और अन्य उन लोगों के साथ गठबंधन कर बैठे जो सरेआम हिन्दुओं को गाली देते थे।

कांग्रेस का पूरा तंत्र वीर सावरकर विरोधी है, वीर सावरकर पर घृणा की दृष्टि रखता है। अपमान का हथकंडा चलाता है। जबकि वीर सावरकर हिन्दुत्व के आन, बान और शान हैं। मराठियों के लिए वीर सावरकर एक अस्मिता की पहचान है। सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है, प्रेरक हस्ताक्षर है। क्या किसी को यह मालूम नहीं है कि राहुल गांधी और उनका कुनबा वीर सावरकर को अपमानित करने का कोई कसर नहीं छोड़ता है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के दौरान भी वीर सावरकर पर कीचड़ उछाली गयी। इसका सर्वाधिक नुकसान उद्धव ठाकरे को हुआ। वीर सावरकर समर्थक मराठियों ने उद्धव का साथ छोड़ दिया। विनाश काले विपरीत बुद्धि का उदाहरण देख लीजिये। हनुमान चलीसा का पाठ करने वाले को पकड़वा कर जेलों में डाला और उत्पीड़न किया।

नवनीत राणा जब अपनी घोषणा के अनुसार हनुमान चलीसा पढ़ने के लिए उनके आवास पर गयी तो फिर उद्धव ठाकरे ने नवनीत राणा को जेल भेजवा दिया। राजनीतिक चातुर्य होता तो उद्धव ऐसे कदम उठाते नहीं, ऐसे कदम उठाने से बचते। उद्धव जेल भिजवाने की जगह प्रेरक कदम भी उठा सकते थे। वे खुद कह सकते थे कि हमारे आवास के बाहर क्यों, हमारे आवास के अंदर लाकर हनुमान चलीसा पढो। इस तरह की नीति से नवनीत राणा के अभियान का भी इतिश्री हो जाता और हिन्दुत्व विरोधी नीति भी प्रकट नहीं होती। लेकिन राजनीति चातुर्य का न होना भारी पड़ गया। संदेश यह गया कि उद्धव ठाकरे को हनुमान चलीसा पढ़ने से भी नफरत है और अब ये भी लालू, अखिलेश, राहुल आदि के पदचिन्हों पर चलकर हिन्दुत्व की कब्र खोदने की नीति पर चल निकले हैं।

कांग्रेस के साथ जाना विनाश काले विपरीत बुद्धि थी। सोनिया गांधी और उनका कुनबा खुश था कि बाल ठाकरे का बेटा उनकी चरण वंदना कर रहा है। यह उम्मीद भी बेकार थी कि मुस्लिम उन्हें स्वीकार करेंगे और सिर्फ मुस्लिम समर्थन से सरकार बना लेंगे। यह दावा और खुशफहमी का संहार कब का हो चुका है। नरेन्द्र मोदी ने ऐसी खुशफहमी को बार-बार तोड़ने का पराक्रम दिखा रहे हैं।

वर्ष 2014, 2019 और 2024 में भी मुस्लिम वोट बैंक के समर्थन के बिना नरेन्द्र मोदी ने केन्द्र में सरकार बनायी। उद्धव ठाकरे को मुस्लिम वोट का समर्थन भी नुकसान गया। उनके समर्थक हिन्दू वोटर भाजपा की ओर चले गये। अपनी सरकार को चलाने के लिए और कांग्रेस को खुश करने के लिए उद्धव ने कई मुस्लिम परस्त नीतियां लागू करने और मुस्लिम हिंसा के प्रति उदासीनता बरती, पत्रकार अर्णव गोस्वामी को जेल में डाल कर नरेन्द्र मोदी को भी औकात दिखाने और सोनिया गांधी के कुनबे को खुश रखने का उनका दांव भी कुख्यात हो गया था। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के खिलाफ असभ्य और अस्वीकार बयानबाजी कर व्यक्तिगत दुश्मनी की श्रृंखलाएं भी चलायी थी।

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उद्धव ठाकरे की पार्टी पूरे महाराष्ट्र में प्रभावशाली नहीं है। मुबंई में तो उद्धव ठाकरे का प्रभाव है। पर मुबंई से बाहर उद्धव ठाकरे की पहुंच और शक्ति कमजोर ही है। बाल ठाकरे के समय भी शिव सेना मुबंई से बाहर कमजोर ही होती थी। बाल ठाकरे के समय भी मुबंई से बाहर भाजपा की शक्ति ही मजबूत होती थी। अब भाजपा तो मुबंई में भी मजबूत हो गयी। उद्धव की पूरी कोशिश यह है कि भाजपा को खुश कर मुबंई की अपनी शक्ति को स्थायी और सक्रिय रखना है।

मुबंई महानगर निगम पर अभी शिवसेना का कब्जा है। मुबंई महानगर निगम के चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन चाहते हैं। भाजपा अब शायद ही उद्धव ठाकरे को वाकओवर देकर भस्मासुर बनायेगी? अगर मुबंई महानगर निगम की भी सत्ता चली गयी तो फिर उद्धव ठाकरे राजनीतिक तौर निष्प्राण हो जायेंगे। हिन्दुत्व ही उद्धाव ठाकरे को प्राण दे सकता है, पर हिन्दुत्व तो भाजपा से अलग होगा नहीं। फिर उद्धव ठाकरे राजनीति में फिर से प्रभावशाली कैसे होंगे?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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