Pauranik Katha: राधा मात्र एक नाम नहीं है, जिसे कृष्ण नाम के पहले लगाया जाता है। आज भी जब कहीं शाश्वत व आध्यात्मिक प्रेम की चर्चा होगी तो राधे-कृष्ण की मन-मोहक छवि ही मन-मष्तिष्क में आती है। राधा वास्तव में वह पवित्र नाम है, जहाँ द्वैत से अद्वैत का मिलन या विलय होता है। आप देखते हैं कि किसी भी मंदिर में श्री कृष्ण का दर्शन राधा रानी के साथ ही होता है। इस मामले में लोगों के मन में प्रायः यह प्रश्न उठता है कि खुद भगवान की ऐसी क्या मजबूरी थी कि उन्होंने राधा से विवाह न करके रुक्मिणी से विवाह किया। यह प्रश्न भी उठता है कि जैसे राम के साथ सीता, शिव के साथ पार्वती एवं विष्णु के साथ लक्ष्मी की पूजा होती है, उसी प्रकार कृष्ण के साथ उनकी पत्नी रुक्मिणी की पूजा न होकर मंदिरों में राधा की मूर्ति होती है तथा उन्हीं की पूजा भी होती है। कृष्ण भजन में भी राधा का ही नाम होता है। ऐसा क्यों?
यह विषय इतना गूढ़ है कि इसे बुद्धि तत्व से समझना और कुछ पंक्तियों में लिखना किसी के लिए भी संभव नहीं है। राधा-कृष्ण के प्रेम को जानने में तो जन्म-जन्मांतर लग जाते हैं। यहाँ पर मैंने तो संक्षेप में सिर्फ थोड़ा सा लिखने भर का प्रयास किया है। मैंने स्वयं अनुभव किया है कि सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र मात्र कृष्णमय नहीं, बल्कि राधा-कृष्णमय है। वृन्दावन और बरसाना के तो कण-कण में राधा हीं राधा है। यहाँ तो सम्बोधन भी राधे-राधे ही बोलकर किया जाता है। यहाँ कोई भी शुभ कार्य राधे नाम के बिना हो ही नहीं सकता है।
राधा का अर्थ ही है-“मोक्ष की प्राप्ति।” “रा” का एक अर्थ मोक्ष भी है तथा “धा” का अर्थ है प्राप्ति। राधा का एक अर्थ प्रीति और अनुराग भी है। राधा का कृष्ण से मिलन भक्तिमार्ग से आत्मा का परमात्मा से मिलन है। राधा-कृष्ण नाम ही शाश्वत प्रेम का प्रतीक है। एक कथा के अनुसार माता यशोदा ने एक बार राधा से उनके नाम की व्युत्पत्ति के विषय में पूछा तो राधा जी ने उन्हें आदर सहित बताया कि “रा” तो महाविष्णु हैं और “धा” विश्व के प्राणियों कि धाय है। पूर्वकाल में श्रीहरि ने ही उनका नाम राधा रखा था।
विवेचना हेतु सर्वप्रथम प्राचीन ग्रंथों पर दृष्टि डालनी होगी। राधा का जिक्र महाभारत, श्रीमद भागवत, हरिवंश पुराण तथा गीता में नहीं है। राधा का जिक्र पद्म-पुराण, ब्रह्मवैवर्त-पुराण तथा गर्ग-संहिता में अवश्य है। पद्म-पुराण एवं ब्रह्मवैवर्त-पुराण की रचना महर्षि वेदव्यास द्वारा तथा गर्ग-संहिता यदुवंशियों के कुलगुरु ऋषि गर्ग द्वारा की गयी है। राधा और कृष्ण के प्रेम का सबसे अधिक वर्णन गर्ग-संहिता में मिलता है। यदुवंशियों के कुलगुरु गर्ग मुनि अपने ही काल में हो रही कृष्ण-लीला में किसी भी काल्पनिक किरदार का चित्रण कैसे कर सकते हैं? यहीं से मिलता है राधा के सत्य होने का प्रमाण।
पद्म-पुराण की एक कथा के अनुसार जब भगवान श्री विष्णु ने द्वापर में श्री कृष्ण का अवतार लिया तब उन्होंने अन्य देवताओं को सहायता के लिए स्वयं अथवा अपने अंशरूप में पृथ्वी पर जन्म लेने का निर्देश दिया। तब भगवान श्री विष्णु की पत्नी श्री लक्ष्मी ने राधा रानी के रूप में यमुना जी के निकट रावल गांव में अवतरण लिया। इसी तरह त्रेता में भी माता लक्ष्मी ने सीता के रूप में अवतरण लेकर प्रभु श्री विष्णु के रामावतार में श्री राम का साथ दिया था। पद्म-पुराण में एक जगह कहा गया है कि राधा ही श्री कृष्ण की आत्मा हैं। जब राधा श्रीकृष्ण की आत्मा हैं तो स्वयं श्री कृष्ण परमात्मा हैं। महर्षि वेद-व्यास जी ने भी एक जगह लिखा है कि श्रीकृष्ण आत्माराम हैं और राधा उनकी आत्मा हैं। हरिवंश महाप्रभु ने तो राधा को कृष्ण से भी अधिक प्रधानता दी है।
उन्होंने तो अपने सम्प्रदाय का नाम ही राधावल्लभ संप्रदाय रखा। यहाँ बता दें कि वल्लभ का अर्थ होता है- प्रिय। राधा-चालीसा में तो कहा गया है कि जब तक राधा का नाम नहीं लिया जाय तब तक श्री कृष्ण का प्रेम नहीं मिलता है। वैष्णव संप्रदाय में राधा रानी को तो भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति स्वरूपा भी माना गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड अध्याय 48 तथा गर्ग संहिता की एक कथा के अनुसार राधा और कृष्ण का विवाह उनके बचपन में ही हो गया था। जहाँ यह विवाह हुआ था ल, वह स्थान भांडीरवन था जो अब संकेत तीर्थ कहलाता है। यह स्थान बरसाना और नंदगांव के बीच में है। यह विवाह स्वयं ब्रह्मा जी ने विशाखा तथा ललिता की उपस्थिति में कराया था। यहाँ हर वर्ष राधा के जन्म-दिन अर्थात राधाष्टमी से लेकर अनंत चतुर्दशी के दिन तक मेला लगता है।
जब श्रीकृष्ण कंश-वध हेतु मथुरा चले गए थे तो राधा जी अपने स्थान पर अपनी छाया को स्थापित करके स्वयं गोलोक चली गयी थीं। राधा जी की जो छाया रह गयी थी, उसी का विवाह रायण नामक गोप से हुआ। रायण श्रीकृष्ण की माता यशोदा के भाई थे। वे भी श्रीकृष्ण के अंशभूत गोप ही थें। अपने स्थान पर अपनी छाया को स्थापित करने की कथा प्राचीन ग्रंथों में अन्य कई जगहों पर भी की गयी है। जैसे- राम कथा में जब भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीता के अनुरोध पर सुनहरे मृग को पकड़ने के लिए जा रहे थे तो माता सीता ने अपने स्थान पर अपनी छाया को स्थापित कर स्वयं अग्नि-देव के साथ चली गयी थीं तथा लंका-विजय के पश्चात् अग्नि-परीक्षा के उपरांत प्रकट हुईं। अपने स्थान पर अपनी छाया को स्थापित करने की एक कथा और भी मुझे याद है और वह कथा सूर्यदेव की पत्नी संज्ञा देवी की है शनिवार को हमने ग्रुप में डाली भी थी। एक बार उन्होंने भी तपस्या हेतु जाते वक्त अपनी जगह अपनी छाया को स्थापित किया था।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार राधा का जन्म भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को हुआ था। महर्षि गर्ग के अनुसार राधा भी कृष्ण की तरह अनादि और अजन्मी है। अर्थात उनका जन्म भी माता के गर्भ से नहीं हुआ था। एक पौराणिक कथा के अनुसार गोलोक धाम में एक बार राधा जी ने कुपित होकर श्रीदामा को गोलोक से बाहर पृथ्वी पर जाने तथा राक्षस हो जाने का श्राप दिया तो क्रोध में श्रीदामा ने भी प्रत्युत्तर में राधा जी को श्राप दिया कि परमात्मा श्रीकृष्ण से पृथ्वीलोक पर आपका भी वियोग हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण ने वहां प्रकट होकर श्रीदामा को आश्वासन दिया कि तुम पृथ्वी पर शंखचूड़ नामक दानवराज बनकर राज करोगे और बाद में भगवान शिव के हाथों मृत्यु प्राप्त कर पुनः गोलोक धाम आ जाओगे। फिर देवी राधा से कहा कि आप पृथ्वी पर माता कृति और वृषभानु की पुत्री के रूप में जन्म लेने के बाद मेरे आस-पास हीं रहेंगी। बाद में श्राप के कारण कुछ समय तक मेरा विछोह स्वरुप आपका लौकिक विवाह रायण नामक गोप से होगा। सांसारिक दृष्टि में आप रायण की पत्नी कहलाएंगी परन्तु वह भी मेरा ही अंश होगा।
राधा-कृष्ण का प्रेम दैहिक एवं लौकिक न होकर शाश्वत एवं पारलौकिक है। महर्षि वेदव्यास, गर्ग ऋषि, जयदेव आदि की रचना का सही अर्थ न निकालकर कुछ आधुनिक साहित्यकारों ने राधा-कृष्ण के प्रेम को लौकिक दृष्टि से देखते हुए एक व्याहता स्त्री से श्रीकृष्ण का प्रेम दिखलाया है। अगर हम श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण जीवन-काल को देखें तो इसे मुख्यतया तीन भागों में बाँट सकते हैं:-
सर्वप्रथम बाल्यकाल, जिसमें समस्त कृष्ण-लीला का वर्णन ऋषि-मुनियों, भक्तों एवं कवियों ने किया है। यह काल भगवान ने गोकुल और वृन्दावन में बिताया। भक्तिकाल का साहित्य तो इन्हीं लीलाओं से ओत-प्रोत है। इस काल के श्री कृष्ण की पहचान वंशीवाले कृष्ण के रूप में की जाती है। राधा-कृष्ण के प्रेम का युग भी यही काल था। भक्तिकाल या पूर्वमध्यकाल जिसकी अवधि संवत 1343 से 1643 तक मानी जाती है, में राधाकृष्ण भक्ति का तो निरंतर विस्तार होता गया। चैतन्य महाप्रभु, निम्बार्क सम्प्रदाय, राधावल्लभ सम्प्रदाय, सखीभाव सम्प्रदाय, जयदेव आदि ने तो इस भाव को और भी पुष्ट किया। चूंकि भक्ति-काल का समस्त साहित्य राधा-कृष्ण के शाश्वत प्रेम से भरा है इसलिए मंदिरों की मूर्तियां भी राधा-कृष्ण की ही है, न कि रुक्मिणी-कृष्ण की।
कंश-वध के बाद जीवन का दूसरा भाग गुरु-कुल में बीता तथा तीसरा भाग श्रीकृष्ण का योद्धा चरित्र एवं कुशल राजनीतिज्ञ का है। इस काल में इन्होंने द्वारका पर शासन किया, कई युद्ध लड़े तथा सबसे चर्चित कार्य महाभारत का युद्ध था। अर्जुन को गीता-ज्ञान देते समय की छवि तो श्रीकृष्ण की अकेली छवि है, इसमें राधा या रुक्मिणी कोई भी नहीं हैं। संसार में अधिकतर मंदिरों में भगवान श्रीकृष्ण राधा रानी के साथ पूजित हैं तो कुछ मंदिरों में बालरूप में अकेले और कुछ में अपने बड़े भाई बलराम जी के साथ। परन्तु, कुछ मंदिरों में अपनी पत्नी रुक्मिणी के साथ भी पूजित हैं। इनमें से दो मंदिर की जानकारी मुझे भी है- ये मंदिर हैं मथुरा का द्वारकाधीश मंदिर तथा महाराष्ट्र के पंढरपुर गाँव का विट्ठल-रुक्मिणी मंदिर।
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श्री राधा कोई अवतार नहीं हैं। परब्रह्म श्रीकृष्ण का वाम अंग ही श्रीराधा का स्वरूप है। ये ब्रह्म के समान ही गुण और तेज से सम्पन्न हैं। इन्हें परावरा, सारभूता, परमाद्या, सनातनी, परमानन्दरूपा, धन्या, मान्या और पूज्या कहा जाता है। ये नित्यनिकुंजेश्वरी रासक्रीड़ा की अधिष्ठात्री देवी हैं। रासमण्डल में ही इनका आविर्भाव हुआ। गोलोकधाम में रहने वाली श्रीराधा ‘रासेश्वरी’ और ‘सुरसिका’ भी कहलाती हैं। नीले रंग के दिव्य वस्त्र धारण करने वाली और सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से सम्पन्न हैं। ये भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति और दास्य प्रदान करने वाली तथा सम्पूर्ण सम्पत्तियों को देने वाली हैं। श्री राधा प्रभु श्री कृष्ण की आत्मा है। प्रेम को समझाने के लिए ही उनका और कृष्ण का अवतार हुआ था। दोनों एक ही है… आप कह सकते हैं कि दोनों रूप कृष्ण के ही है। राधा वो तत्व है जो हर मनुष्य में प्रेम के रूप में वास करती है। राधा जी किसी का अवतार नहीं वो खुद ही देवी है। प्रेम का स्वरूप है। बरहमवेवर्त पुराण के अनुसार कृष्ण ही परब्रह्म है और राधा उनकी शक्ति कही गई है। देवी भागवत के अनुसार राधा मूल प्रकृति के पांच मुख्य रूप में से एक है यह प्रेम का और सौंदर्य का रूप है।
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