अचानक किसी दिन
कविता के साए मंडराने लगते
देह के अज्ञात में
तब वह अज्ञात सी जेहन में
पुकार लगाती, दस्तक देती
फिर एक आवाज़ गूंजती
कठफोड़वे की ठक ठक सी
कि किसी खंडहर के सन्नाटों में
पक्षी के परों की
फड़फड़ाहट का कंपन
गुंजायमान होते हुए
तरंगित चौंकाता सा
देर तक रह जाता
निस्तब्ध में सजीव सा
रचे जाने को आतुर
एक उनींदेपन में
प्यास होकर
– वत्सला पांडेय
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