पिछले कुछ दशकों में भारत की राजनीति जातिगत समीकरणों एवं गठजोड़ों से ग्रस्त रही है। वैसे, कांग्रेस पार्टी में भी दलित, ब्राम्हण एवं मुस्लिम का गठजोड़ था। लेकिन वह गठजोड़ किसी नारे के आधार पर नहीं था, बल्कि उसका सृजन स्वाभाविक रूप से हो गया था। जब कांग्रेस पार्टी पर मुस्लिम वोट बैंक का भूत बुरी तरह सवार हुआ और पार्टी को उसका फायदा मिलने लगा, तो अन्य पार्टियों ने भी उस फार्मूले का अनुसरण शुरू कर दिया। उसी क्रम में चौधरी चरण सिंह का जाट-मुस्लिम गठजोड़ बना। लेकिन वह गठजोड़ भी किसी नारे के आधार पर नहीं निर्मित हुआ था।
बाद में मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव ने नारे के रूप में यादव-मुस्लिम गठजोड़ को जन्म दिया। उन्होंने मुसलमानों का अधिक से अधिक तुष्टिकरण करना शुरू किया, जिसके परिणामस्वरूप मुस्लिम समुदाय थोक में उनका वोट बैंक बन गया और वे मुसलमानों के जबरदस्त मसीहा माने जाने लगे। मुलायम सिंह यादव एवं लालू प्रसाद यादव के इस फार्मूले को मायावती ने लपका और दलित-मुस्लिम गठजोड़ अस्तित्व में आया। इस प्रकार ज्यों-ज्यों ‘मुस्लिम वोट बैंक’ मजबूत होता गया, उसी क्रम में मुस्लिम-तुष्टिकरण भी बढ़ता चला गया। धीरे-धीरे मुस्लिम-तुष्टिकरण ने इतना वीभत्स रूप ले लिया कि उसके परिणामस्वरूप हिन्दू बुरी तरह उपेक्षित होने लगा।
कांग्रेसी राज में हिंदुओं की उपेक्षा जवाहरलाल नेहरू ने शुरू की थी, जो अब इतनी अधिक बढ़ गई कि हिंदू देश में दूसरे दरजे के नागरिक के समान हो गया। ‘हिन्दू’ शब्द साम्प्रदायिकता का तथा ‘मुस्लिम’ शब्द सेकुलर का पर्याय माना जाने लगा। दलित-मुस्लिम गठजोड़ का जो यह नारा शुरू हुआ, उसे डॉ. अम्बेडकर के विचारों के अनुरूप बताया गया। लेकिन हकीकत इसके बिलकुल विपरीत थी। जब जिन्ना के इस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया गया कि हिंदू और मुसलमान दो अलग कौमें हैं, जो एकसाथ नहीं रह सकतीं तथा मजहब के आधार पर देश का बंटवारा कर दिया गया, तो डॉ. अम्बेडकर आबादी की पूरी तरह अदला-बदली के पक्ष में थे।
उनका मत था कि इससे भविष्य में देश में शांति रहेगी। प्रसिद्ध विदुषी मीना चौबे की पुस्तिका ‘राष्ट्रवाद के प्रश्न और डॉ. अम्बेडकर’ में ‘डॉ. अम्बेडकर और मुसलमान’ अध्याय में स्पष्ट उल्लिखित है कि डॉ. अम्बेडकर दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सख्त विरोधी थे। वह देश के विभाजन के समय मुसलमानों द्वारा दलित हिंदुओं पर किए जा रहे अत्याचार को लेकर क्षुब्ध एवं व्यथित थे।
डॉ. ब्रजलाल वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘डॉ. भीमराव अम्बेडकर’ में लिखा है कि डॉ. अम्बेडकर ने समाचारपत्रों में यह वक्तव्य जारी कर पाकिस्तान में रह रहे दलित भाइयों से कहा था- ‘वे जबरदस्ती मुस्लिम बनाए जाने से बचने के लिए जैसे भी संभव हो, भारत आ जाएं। यदि वे सवर्ण हिंदुओं से अपनी नाराजगी की वजह से मुसलमानों पर भरोसा व विश्वास कर लेंगे, तो यह उनकी बहुत बड़ी भूल होगी। इसी प्रकार डॉ. अम्बेडकर ने हैदराबाद के निजाम को भारत का दुश्मन बताते हुए वहां के दलितों को निर्दिष्ट किया था कि वे निजाम का साथ न दें।
1057 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने सेना में मुसलमानों का जो वर्चस्व बढ़ा दिया था, उससे डॉ. अम्बेडकर चिंतित थे। उन्होंने ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक में चेतावनी देते हुए लिखा कि वर्तमान भारतीय सेना में मुसलमानों की प्रमुखता है। वे मुसलमान मुख्य रूप से पश्चिमोत्तर प्रांत के हैं, जिसका अभिप्राय यह हुआ कि विदेशी आक्रमणों से भारत की रक्षा की जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी गई है। डॉ. अम्बेडकर ने सवाल किया कि देश की गुलामी से मुक्ति के लिए हिंदू कब तक ऐसे पहरेदारों पर निर्भर रहेंगे?
एक अन्य स्थान पर डॉ. अम्बेडकर ने लिखा कि हम देश की रक्षा के लिए ऐसी सेना पर निर्भर नहीं रह सकते, जिसमें मुसलमानों का वर्चस्व हो, क्योंकि मुसलमान हिंदुओं को काफिर मानते हैं। डॉ. अम्बेडकर ने वर्ष 1919 का स्मरण कराते हुए लिखा कि हमें नहीं भूलना चाहिए कि जब खिलाफत-आंदोलन चल रहा था, उस समय भारत के मुसलमान अफगानिस्तान के अमीर को भारत पर हमला करने का न्योता देने गए थे। उल्लेखनीय है कि विभाजन के बाद जब कबायलियों के वेश में पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर हमला कर दिया था, उस समय जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरी सिंह की सेना में जो मुस्लिम सैनिक थे, वे मजहब के नाम पर गद्दारी कर पाकिस्तानी हमलावरों से जा मिले थे।
वरिष्ठ समाजवादी नेता मधु लिमये ने अपनी पुस्तक ‘डॉ. अम्बेडकर एक चिंतन’ में लिखा है कि डॉ. अम्बेडकर खिलाफत-आंदोलन के सख्त विरोधी थे तथा उस आंदोलन के प्रति उनकी तनिक भी सहानुभूति नहीं थी। गांधी ने खिलाफत-आंदोलन का जो समर्थन किया था, उसकी डॉ. अम्बेडकर ने कटु आलोचना की थी, क्योंकि उनका मत था कि सुल्तान खलीफा को बनाए रखने के लिए तुर्कों पर जोर डालना बिलकुल अनुचित था। माना जाता है कि देश में मुस्लिम-तुष्टिकरण की पुख्ता नींव खिलाफत-आंदोलन के समर्थन के कारण ही पड़ी।
डॉ. अम्बेडकर मुस्लिम-तुष्टिकरण की नीति के घोर विरोधी थे। इसी कारणवश उन्होंने ‘लखनऊ पैक्ट’ व ‘नेहरू कमेटी’ की निंदा की थी। ‘लखनऊ पैक्ट’ द्वारा मुसलमानों को सीटों पर पहली बार आरक्षण दिया गया था। 19 जनवरी, 1919 को डॉ. अम्बेडकर ने लिखा कि जिस योजना से हिंदुओं का अहित हो, वह किस काम की? उन्होंने रपट का विरोध इसलिए किया था कि उससे अस्पृश्यों के अधिकारों का हनन तो हो ही रहा है, सारे हिंदुओं को भी उससे खतरा है तथा भविष्य में सारा हिंदुस्तान मुसीबत में पड़ सकता है। उन्होंने अखण्ड भारत का पुरजोर समर्थन किया था।
डॉ. अम्बेडकर मानते थे कि हिंदू संगठित नहीं हैं और यही हिंदुओं के पराभव का मूल कारण है। यदि हिंदू संगठित हो जाएं तो मुस्लिम-समस्या का हल तत्काल निकल आए। किन्तु संगठित होने के लिए हिंदुओं को अपने भीतर से बुजदिली व कायरता को निकाल देना होगा। मुसलमान पर जब हमला होता है तो वह जानता है कि सारे मुसलमान उसकी रक्षा को आ जाएंगे, जबकि हिंदुओं में परस्पर विश्वास की वह भावना व शक्ति नहीं है। जब तक जातिप्रथा है, हिंदू संगठित नहीं होंगे और जब तक वे संगठित नहीं होंगे, कमजोर एवं डरपोक रहेंगे।
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डॉ. अम्बेडकर मुस्लिम-समस्या को मुसलमानों की मनोवृत्ति से जोड़कर देखते थे। एसआर रामास्वामी की पुस्तक ‘प्रखर राष्ट्रभक्त डॉ. अम्बेडकर’ के अनुसार डॉ. अम्बेडकर की मान्यता थी कि मुसलमानों की मानसिकता सुधार-विरोधी है। उनके यहां सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। उनके लिए उनका मजहब सर्वोच्च होता है। मुसलमान की निष्ठा मुस्लिम शासन वाले राष्ट्र के प्रति ही रहती है। मुसलमानों में आक्रामक मनोवृत्ति विद्यमान होती है। हिंदुओं की दुर्बलता का लाभ उठाकर गुंडागर्दी करना उनके स्वभाव में है।
डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि चूंकि मुसलमानों की यह मानसिकता कभी नहीं परिवर्तित की जा सकती है, इसलिए हिंदू समाज को सदैव मुसलमानों से सतर्क रहना चाहिए। गैर मुसलमानों से एकता के लिए इस्लाम में कोई जगह नहीं है तथा मुसलमान गैरमुसलमानों के साथ भाईचारे से नहीं रह सकता है। मुसलमानों का भ्रातृत्व केवल मुस्लिम समाज तक सीमित होता है। अन्य लोगों के प्रति मुसलमान घृणा व शत्रुता का भाव रखते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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