प्रकाश सिंह
लखनऊ: चुनाव में सियासी समीकरण बनते बिगड़ते रहते हैं, पर सफल राजनीतिज्ञ उसे माना जाता है, जो हवा के रुख को अपनी तरफ मोड़ ले। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव इस बार भी प्रदेश में सपा सरकार की वापसी कराने से चूक गए हैं। हालांकि इस बार सत्ता विरोधी लहर के साथ सपा के पक्ष में मजबूत माहौल था, लेकिन इस माहौल को अखिलेश यादव भूना नहीं पाए। 400 पार का नारा लगाने वाली समाजवादी पार्टी 111 सीटों पर सिमट गई। ऐसे में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के नेतृत्व पर सवाल उठना लाजिमी है। क्योंकि सपा की रैलियों में भी जबरदस्त भीड़ देखी गई। अखिलेश यादव रैलियों में आनी वाली भीड़ को वोट में तब्दील नहीं कर सके तो इसके लिए कोई और नहीं बल्कि वह खुद जिम्मेदार हैं।
सपा पर गुंडों की पार्टी होने का जो तमगा लगा था, उसे अखिलेश यादव ने टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव प्रचार तक सिद्ध कर डाला। वह जनता को विश्वास दिलाते रह गए कि यह नई सपा है, लेकिन उनके द्वारा लिए गए फैसलों ने जनता को यह एहसास करा दिया कि यह नई नहीं बल्कि वही सपा है। यही वजह है कि जबरदस्त लहर के बावजूद भी सपा यूपी की सत्ता से बाहर हो गई है। बीजेपी जहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के काम को मुद्दा बनाकर जहां चुनाव लड़ रही थी, वहीं चुनावी जनसभाओं में अखिलेश यादव का अहंकार साफ झलक रहा था।
अखिलेश यादव खुद की कमियों को दूर करने की जगह सवाल उठाने वाले पत्रकारों तक को बिकाऊं कहने में भी कोई परहेज नहीं किया। इमानदारी से काम करने वाले अधिकारियों को सत्ता का दलाल बता डाला। इतना ही नहीं निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता पर उन्होंने सवाल खड़ा कर दिया था। समा समर्थकों की गुंडई का आलम यह रहा कि बांदा में जिलाधिकारी की गाड़ी तक रोककर उसकी तलाशी ली। सैकड़ों मुकदमा में सलाखों के पीछे बंद आजम खान को उन्होंने मंच से निर्दोश बताने की कोशिश की। मुख्तार अंसारी के बेटे अब्बास अंसारी का अधिकारियों से हिसाब किताब करने का वीडियो वायरल होने के बाद भी उन्होंने कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं दिखाई।
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अखिलेश यादव ने हर वो हरकत की जिसके चलते प्रदेश की जनता ने वर्ष 2017 के चुनाव में उन्हें सत्ता से बाहर किया था। इस बार भी समाजवादी पार्टी की हार का सबसे बड़ा कारण यही है। सपा जनता के बीच गुंडों, अपराधियों की पार्टी वाली छवि को तोड़ नहीं पाई, बल्कि चुनाव के समय और उग्र होकर जनता के रुझान पर पानी फेर दिया। फिलहाल जनता ने साफ संदेश दे दिया है कि जातिवाद से ऊपर उठकर विकास करेगा वह उसी के साथ रहेगी। वहीं सपा को भी तगड़ा मैसेज मिल गया है कि क्या अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा सुरक्षित है। यदि नहीं तो सपा अध्यक्ष के पद के लिए पार्टी को मंथन करना चाहिए, क्योंकि परिवारवाद की राजनीति को जनता अब नकार चुकी है।
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