Narendra Bhadoria
नरेन्द्र भदौरिया

महाराजा ललितादित्य (724 ईस्वी से 761) का साम्राज्य कश्मीर में था। उनके कालखण्ड के कश्मीर का विस्तार मध्य एशिया से बंगाल तक था। अरब के मुसलिम आक्रान्ता ललितादित्य के पराक्रम और युद्ध की रणनीति से बहुत भयभीत रहते थे। ललितादित्य ने राजा यशोवर्मन के राज्य को भी आपने में मिला लिया था। ललितादित्य को मुक्तापीठ उपाधि से सम्बोधित किया जाता था। वह कार्कोट क्षत्रिय राजवंश के राजा थे। ललितादित्य की तिब्बत के राजा से सन्धि हुई थी तब ये दोनों राज्य मिलकर हिमालय के सबसे शक्तिशाली शासक बनकर उभरे थे। ललितादित्य ने तिब्बत सीमा से बंगाल तक विस्तार करने के बाद दक्षिण में कोंकण तक विस्तार कर लिया था। ललितादित्य के कारण अरब देशों के आक्रान्ताओं का भारत की ओर ताक-झांक करना पूरी तरह बन्द हो गया था।

भारत के महान इतिहासकार आरसी मजूमदार के अनुसार ललितादित्य ने दक्षिण भारत में विजय प्राप्त करने के बाद अपना ध्यान भारत के उत्तर क्षेत्र पर केन्द्रित रखा। जिससे उनका साम्राज्य काराकोरम पर्वत श्रृंखला तक हो गया था। ललितादित्य पराक्रम के प्रतिमूर्ति थे। उनके कार्यकाल में कश्मीर की ओर मुसलमान आँख उठाकर नहीं देखते थे। ललितादित्य की एक बार चीन से ठन गयी थी। उनकी सेना ललितादित्य की ललकार पर पीकिंग (बीजिंग) तक पहुँच गयी थी। इतिहास में यह बात अंकित है कि 12 वर्ष तक चीन का बड़ा भू-भाग ललितादित्य के साम्राज्य का अंग रहा। इतिहासकारों के अनुसार ललितादित्य का साम्राज्य तिब्बत से द्वारिका और उड़ीसा के सागर तटों को छूता हुआ दक्षित भारत में फैला हुआ था। भारत का सम्पूर्ण क्षेत्र ही नहीं मध्य एशिया तक ललितादित्य की जयकार होती थी। तब ललितादित्य ने अपनी राजधानी का नाम प्रकरसेन रखा था। अरण्यक (ईरान) तक ललितादित्य के घोड़ों की चाप सुनाई देती थी। ऐसा महान शासक कश्मीर में फिर कभी नहीं हुआ।

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यह बात तो सभी को पता है कि ऋषि श्रेष्ठ कश्यप की तपस्थली के रूप में कश्मीर का नाम वैदिक साहित्य में महात्म्य के साथ वर्णित है। स्वतन्त्रता से पूर्व कश्मीर पर महाराजा हरीसिंह का शासन था। हरीसिंह बहुत लोकप्रिय राजा था। पर उनके शासन से पहले कश्मीर में मुसलमानों की घुसपैठ हो चुकी थी। बात चौदाहवीं शताब्दी की शुरुआत की है। मध्य एशिया से सूफी उपदेशक बनकर मीर सईद अली शाह हमदानी कश्मीर आया था। उसकी छल वाली बातों को लोग पहचान नहीं सके। इस्लाम के चंगुल में फंसने के कारण मुसलिम जनसंख्या तेजी से बढ़ने लगी। इस राज्य के बहुसंख्यक मुसलिम सुन्नी (लगभग 73 प्रतिशत) हैं। शिया मुसलमान 22 प्रतिशत हैं। इसके अलावा खानाबदोश चरवाहे, गुर्जर और बकरवाल समूह भी मुसलमान बनाये जा चुके हैं। स्वतन्त्रता के नाम पर जब भारत का विभाजन हुआ तब कश्मीर पर हिन्दु राजा हरीसिंह का शासन था। अनेक अच्छाइयों के बाद भी वह अनिर्णय की मनोदशा के शिकार थे। अंग्रेजों ने जब कश्मीर को भी देश की 564 रजवाड़ों की तरह स्वतन्त्र निर्णय लेने की छूट दी, तो हरीसिंह इस कूट चाल को समझ नहीं सके और असमन्जस में पड़ गये। वह सोचने लगे कि भारत या पाकिस्तान में मिलने से अच्छा है कि स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये रखा जाय। यह इतनी बड़ी भूल थी कि जब तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघ चालक माधव सदाशिव गोलवलकर उनको मनाते तब तक इतिहास के कई पन्ने पलट चुके थे।

भारत के प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू महाराजा हरीसिंह से बहुत चिढ़ते थे। वह चाहते थे कि शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंपकर हरीसिंह पीछे हट जाएं। नेहरू ने कश्मीर जाकर स्वयं घोषणा की थी कि यदि जम्मू-कश्मीर के हिन्दुओं को इस राज्य में रहना है तो शेख अब्दुल्ला की पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर लें। नेहरू ने शेख अब्दुल्ला से अपनी निकटता बताते हुए कहा था कि कश्मीर का भला केवल वही कर सकते हैं। नेहरू की इस बेढंगी अदूरदर्शी नीति के कारण बलूचिस्तान, बाल्टिस्तान, गिलगित, चित्राल और हुंजा घाटी पर पाकिस्तान की सेना ने कबीलों के भेष में धावा बोलकर नियन्त्रण कर लिया। जिस भूमि को पाकिस्तान ने हथिया लिया उसका क्षेत्रफल 78 हजार वर्ग किमी है।

खान अब्दुल गफ्फार खाँ को सरहदी गांधी कहा जाता था। गांधी और नेहरू से वह रोते हुए अनुनय करते रह गये कि उन्हें पाकिस्तानी भेड़ियों के हाथों में न सौंपा जाय। पर नेहरू ने एक नहीं सुनी। अंग्रेजों के जाने के बाद भी सरहदी गांधी का अधिकांश समय जेलों में बीता। मृत्यु से पहले इस वीर गफ्फार खाँ ने कहा था- इस जन्म में मैं अपने लोगों को न्याय नहीं दिला सका। गांधी-और नेहरू के साथ मिलकर लड़ता रहा। जब स्वतन्त्रता मिली तो कांग्रेस के इन महान नेताओं ने मेरी पीड़ा को भुला दिया। बलूचिस्तान से लेकर चित्राल तक लाखों लोग पाकिस्तान की क्रूरता से आज भी जूझ रहे हैं। नेहरू के उत्तराधिकारी अब उनका नाम सुनना तक पसन्द नहीं करते। गांधी और नेहरू के वंशज होने की दुहाई देने वाले राहुल और उनके समर्थक एक ओर भारत में अपनी नागरिकता से जुड़े प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं। तो दूसरी ओर कश्मीर में जाकर अलगाववादियों के स्वर में स्वर मिलाते हैं।

जम्मू और कश्मीर को भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री नेहरू की अदूरदर्शिता के कारण अन्तरराष्ट्रीय विवाद का विषय बनाया गया। नेहरू ने शेख अब्दुल्ला और उनके बेटे फारूख और पौत्र उमर की हिन्दु विरोधी नीतियों को कभी रोकने या प्रतिकार करने का प्रयत्न नहीं किया। पाँच लाख से अधिक हिन्दु परिवारों को कश्मीर घाटी से हिंसा के बल पर उसी तरह खदेड़ा गया जिस तरह विभाजन के समय 30 लाख से अधिक हिन्दुओं की हत्या करके एक करोड़ से अधिक हिन्दुओं को पाकिस्तान के दोनों टुकड़ों से खदेड़कर भारतीय सीमा में ढकेल दिया गया था। नेहरू सरकार ने कश्मीर के सम्बन्ध में संविधान के प्रावधानों के विपरीत धारा 370 जोड़कर अलगाववादी मुसलिम संगठनों को यह छूट प्रदान की थी कि वह अपनी इच्छा अनुसार भारतीय भू-भाग में प्रवेश करते रहें। धारा-25 के अन्तर्गत सीमा पार करके मुसलमानों को पाकिस्तान से आकर भारत में बसने की छूट थी तो दूसरी ओर कश्मीर घाटी में जन्म के समय से रह रहे हिन्दुओं को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया था।

नरेन्द्र मोदी की नेतृत्व वाली सरकार ने 05 अगस्त, 2019 को एक एतिहासिक प्रस्ताव प्रस्तुत किया। यह प्रस्ताव जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन का था। जिसे जम्मू-कश्मीर राज्य पुनर्गठन अधिनियम 2019 नाम दिया गया। इसी प्रस्ताव के साथ इस राज्य से सम्बन्धित 370 को हटाने का प्रस्ताव पारित हो गया। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख दो केन्द्र शासित क्षेत्र गठित हो गये। इस तरह इतिहास ने लम्बी प्रतीक्षा के बाद करवट ली। कांग्रेस और कई विपक्षी दलों ने धारा 370 बनाये रखने के लिए बहुत शोर मचाया। मामला सुप्रीम कोर्ट में ले जाया गया। जहाँ मुख्य न्यायाधीश डीवाई चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पाँच जजों की पीठ ने सर्व सम्मति से जम्मू-कश्मीर और लद्दाख सम्बन्धी प्रस्तावों को वैध ठहराया। साथ ही धारा 370 हटाने पर भी मुहर लगा दी। इस तरह जम्मू-कश्मीर राज्य की कुटिल कहानी का अन्त हुआ।

यह ऐसी कहानी थी जिनके माध्यम से इस राज्य को कट्टरपन्थी आतंकी मुसलिम संगठनों के हाथों में सौंप दिया गया था। वर्ष 1947 से लेकर 2020 तक अनगिन निरापराध लोगों की हत्याएं हुईं। दसियों लाख लोग बेघर हो गये। ऐसे जघन्य पाप के लिए यदि किसी एक व्यक्ति और संगठन को इतिहासकार दोषी ठहराएं तो अनुचित नहीं होगा। भारत ही नहीं सारे संसार में यह बात उजागर हो चुकी है कि स्वतन्त्रता मिलने के बाद स्वर्गीय करमचन्द गांधी की आत्मा को सर्वाधिक पीड़ा जिन बातों से परलोक जाकर हुई होगी उनमें जम्मू-कश्मीर सम्बन्धी प्रकरण प्रमुख होगा। गांधी यदि समय रहते नेहरू को सचेत करते तो कश्मीर मामले में कूटनीतिक भूलों को सम्भाला जा सकता था। ऐसे समय में बापू का मौन व्रत देश को बड़ी टीस दे गया। सम्भव है वह महात्मा अपने प्रिय नेहरू की हठधर्मिता के कारण मौन रह गया।

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शेख अब्दुल्ला की नेहरू से गहरी दोस्ती थी। यह मैत्री 1930 से प्रगाढ़ हुई थी। अब्दुल्ला ने जो पार्टी बनायी थी पहले उसका नाम कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस रखा गया था। बाद में नेहरू के परामर्श से मुसलिम शब्द हटाकर नेशनल कांन्फ्रेंस नाम कर लिया था। आगे चलकर इसे देसी राज्य प्रजा परिषद से जोड़ दिया गया। नेशनल कॉन्फ्रेंस महाराजा हरिसिंह के विरुद्ध आन्दोलन चलाती रही। वर्ष 1946 में कांग्रेस आन्दोलन से प्रेरणा लेकर शेख अब्दुल्ला ने ‘महाराजा कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन छेड़ दिया। शेख गिरफ्तार कर लिए गये और उन्हें तीन साल की सजा हुई। जवाहरलाल नेहरू स्वयं को कश्मीरी पण्डित कहते थे। पर इस राज्य के कश्मीरी पण्डितों को नेहरू के कारण भयानक दुर्दिन देखने पड़े।

जून 1946 में नेहरू अपने गिरफ्तार मित्रों (खासकर शेख अब्दुल्ला) को प्रोत्साहित करना चाहते थे, लेकिन राजनीतिक आन्दोलन के भय से राज्य सरकार ने नेहरू के प्रवेश पर रोक लगा दी। फिर भी नेहरू नहीं माने और गिरफ्तारी दी। कांग्रेस वर्किंग कमेटी इसके पक्ष में नहीं थी कि नेहरू राज्य का कानून तोड़ें। शेख अब्दुल्ला से मित्रता के पीछे नेहरू ने कांग्रेस का अनुशासन तोड़कर नेशनल कांफ्रेंस का साथ दिया। उनके इस आचरण से सरदार पटेल, राजगोपालाचारी, के.एम. मुंशी सहित कई बड़े नेता खिन्न हुए थे। सरदार पटेल ने 11 जुलाई 1946 को डीपी मिश्र (मध्यप्रांत, जो अब मध्यप्रदेश है) को लिखे पत्र में अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए कहा था कि इसके बहुत दूरगामी बुरे परिणाम होंगे।

नेहरू इतने पर ही नहीं रुके वह शेख अब्दुल्ला के वकील बन गये। अब्दुल्ला से जेल में जाकर मिले। उन्हें पता चल चुका था कि सरदार पटेल ने गांधीजी से भी मिलकर कहा है कि नेहरू मर्यादा तोड़ रहे हैं। यह अच्छा नहीं है। उनके इस व्यवहार से कश्मीर के सन्दर्भ में नीतियां बनाने में बड़ी अड़चन आएगी। नेहरू के प्रति मोह के कारण बापू उस समय कुछ नहीं बोले। तब सभी से यह कहा गया था कि बापू इन दिनों मौन व्रत कर रहे हैं। नेहरू को पटेल की नाराजगी का पता चल चुका था। तब उन्होंने सरदार पटेल को 20 जुलाई, 1946 को पत्र लिखकर कहा था कि मैं 24 जुलाई को कश्मीर अवश्य जाऊंगा। वहाँ मुझे अपने मित्र की सहायता करनी है। अपनी प्रवृत्तियों को बेरिस्टर के कार्य तक मर्यादित रखूंगा।

उस समय कश्मीर के महाराजा के प्रधानमंत्री थे रामचन्द्र कॉक। तब कॉक ने नेहरू से अनुरोध किया था कि वह महाराजा का विरोध करने के नाम पर शेख अब्दुल्ला का इतना पक्ष क्यों ले रहे हैं। इस पर नेहरू और कुपित हो गये थे। नेहरू ने महाराजा के विरुद्ध खुलकर उतरने का मन बना लिया था। कॉक से कहा था कि यह मेरे निजी रिश्तों की बात है। इसमें किसी का हस्तक्षेप मुझे स्वीकार्य नहीं है। जून 1947 में देश की विभाजन योजना घोषित हुई। इसके साथ ही कश्मीर की परिस्थितियों में बड़ा नाटकीय मोड़ आया। लॉर्ड माउण्टबेटन ने महाराजा से कहा कि सत्ता के हस्तांतरण के लिए निश्चित तिथि 15 अगस्त 1947 से पहले निर्णय करना होगा। आप अपने राज्य का विलय दो देशों भारत-पाकिस्तान में से किसी एक के पक्ष में कर सकते हैं। अन्यथा एक और विकल्प स्वतन्त्र राज्य घोषित करने का है।

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महाराजा ने बाद में बताया था कि माउण्टबेटन का संकेत था कि वह पाकिस्तान के पक्ष में निर्णय करें। इसी विन्दु पर हरीसिंह के अनिश्चय की स्थिति ने पाकिस्तान ने भारत के बड़े भू-भाग पर अधिकार कर लिया। माउण्टवेटन के परामर्श का फल था अथवा नेहरू की अपनी सूझ कि उन्होंने पाकिस्तानी आक्रमण को रोकने के लिए कोई पहल नहीं की। जब पूरे देश में हाहाकार मचने लगा तब आधी-अधूरी तैयारियों के साथ सेना कश्मीर की ओर रवाना की गयी। अग्रिम मोर्चे तक सेना पूरी तरह पहुँचने भी नहीं पायी थी कि माउण्टबेटन के संकेत पर नेहरू संयुक्त राष्ट्र संघ चले गये। इसके लिए उन्होंने अपने मन्त्रिमण्डल से राय तक नहीं ली थी। स्पष्ट है कि वह माउण्टवेटन और जिन्ना के बीच बनी सम्मत्ति के आधार पर काम कर रहे थे। राष्ट्र संघ में उनका जाना कश्मीर को अन्तरराष्ट्रीय विवाद बनाने के लिए पर्याप्त सिद्ध हुआ। नेहरू ने अपनी पार्टी कांग्रेस के माथे पर देश विरोधी पग उठाने का टीका लगा दिया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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