Pauranik Katha: एक बार पृथ्वी पर जल-वृष्टि न होने के कारण चारों ओर सूखा आकाल पड़ गया था। ताल-तलैया और सरोवर सूख गए थे। कुओं में भी पानी नहीं रह गया था। कहीं भी हरियाली देखने को नहीं मिलती थी। मनुष्य, पशु और पक्षी जल के अभाव में तड़प रहे थे।

किन्तु महर्षि गौतम के आश्रम पर उस भीषण अकाल का नाम-निशान भी नहीं था। आश्रम के आस-पास घनी हरियाली तो थी ही, सरोवर में भी स्वच्छ जल लहराया करता था। जब चारों ओर जल का अभाव हो गया तो दूर-दूर के पशु-पक्षी सरोवर के पास आकर रहने लगे और सरोवर के पानी को पीकर सुख से जीवन बिताने लगे।

मनुष्यों को भी जब उस सरोवर का पता चला तो झुंड के झुंड गौतम ऋषि के पास पहुंचे और उनसे विनीत स्वर में बोले- ऋषिवर, हम सब पानी के बिना दुख पा रहे हैं। अनुमति दीजिए, ताकि हम सब आपके सरोवर के जल का उपयोग कर सकें। गौतम ने कहा- आश्रम आप सबका है, सरोवर भी आप सबका ही है। आप स्वतंत्रतापूर्वक सरोवर के जल का उपयोग कर सकते हैं।

बस, फिर क्या था, झुंड के झुंड लोग तरह-तरह की सवारियों पर अपना सामान लादकर सरोवर के पास आकर बसने लगे। कुछ ही दिनों में सरोवर के आस पास चारों ओर अच्छा-खासा नगर बस गया। सरोवर के जल से सबको नया जीवन मिलने लगा। सब गौतम ऋषि के तप और त्याग की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। पर मनुष्यों में कुछ ऐसे भी लोग थे, जो दुष्ट प्रकृति के थे। उन्होंने जब जन-जन के मुख से गौतम ऋषि की प्रशंसा सुनी, तो उनके मन में गौतम ऋषि के प्रति ईर्ष्याग्नि जल उठी। उन्हें गौतम ऋषि की प्रशंसा नहीं सुहाई। वे कोई ऐसा उपाय सोचने लगे जिससे गौतम ऋषि को नीचा देखना पड़े।

उनके इस प्रयत्न में कुछ ऋषि-मुनि भी सम्मिलित हो गए। पर गौतम ऋषि को नीचा दिखाना सरल काम नहीं था, क्योंकि वे बड़ी निष्ठा से सदा मानव की भलाई में लगे रहते थे। जब दुष्ट स्वभाव के मनुष्यों का किसी तरह वश नहीं चला, तो वे सब मिलकर गणपति की सेवा में उपस्थित हुए। सबने हाथ जोड़कर निवेदन किया- हे गणपति महाराज, ऋषि गौतम गर्व से फूलकर पथ-भ्रष्ट हो रहे हैं। कोई ऐसा उपाय कीजिए, जिससे उनका गर्व धूल में मिल जाए।

गणपति ने कहा- आश्चर्य है, आप लोग गौतम ऋषि के संबंध में मन में ऐसी धारणा रखते हैं। गौतम ऋषि तो तप और त्याग की मूर्ति हैं। उन्होंने वरुण की उपासना करके उस स्वच्छ जलवाले सरोवर को प्राप्त किया। यदि आज वह सरोवर न होता, तो क्या आप लोगों का जीवन सुरक्षित रह सकता था? पर उन दुष्ट मनुष्यों के हृदय पर गणपति की बात का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। वे अपनी बात पर अड़े रहे और प्रार्थना पूर्वक गणपति से आग्रह करते रहे। गणपति ने विवश होकर कहा- आप लोग नहीं मानते, तो मैं कुछ करूंगा लेकिन उससे आप लोगों का ही अहित होगा।

गणपति की बात सुनकर दुष्ट स्वभाव के सभी मनुष्य तुष्ट होकर अपने-अपने घर चले गए। एक दिन दोपहर के बाद गौतम ऋषि अपने आश्रम की वाटिका में पुष्पों के पौधों को सींच रहे थे। हठात एक दुबली-पतली गाय वाटिका में घुसकर पौधों को खाने लगी। गौतम ऋषि गाय को पकड़कर उसे अलग कर देना चाहते थे, पर ज्यों ही उन्होंने गाय को हाथ लगाया वह गिर पड़ी और निष्प्राण हो गई। यह देख गौतम ऋषि स्तब्ध रह गए और गाय की ओर देखकर बोले- ओह, यह कैसा अनर्थ हो गया। तभी गौतम ऋषि के कानों में एक आवाज पड़ी- गौतम पापी है। गाय का हत्यारा है।

गौतम ऋषि ने पीछे मुड़कर देखा, बहुत से लोग खड़े थे। उनके साथ कुछ ऋषि-मुनि भी थे। वे सम्मिलित स्वर में गौतम ऋषि को पापी और हत्यारा घोषित कर रहे थे। चारों ओर गौतम ऋषि की निंदा होने लगी। गौतम ऋषि बहुत दुखी हुए। वे अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिए अहिल्या को साथ लेकर आश्रम छोड़कर चले गए। दुष्ट स्वभाव के मनुष्य बहुत प्रसन्न हुए। उनका मनचाहा पूरा हो गया। गौतम ऋषि एक वन में गए। वन के वृक्षों को काटकर, उन्होंने एक कुटी बनाई और वहां रहकर तप करने लगे। अहिल्या दिन-रात उनकी सेवा में लगी रहती थी। तप करते हुए गौतम ऋषि को बहुत दिन बीत गए। प्राय: ऋषि-मुनि भी वहां आया करते थे। उन्होंने गौतम ऋषि से कहा– तप से गौ हत्या का पाप दूर नहीं होगा। यदि आप भी गौ हत्या के पाप से मुक्त होना चाहते हैं, तो गंगा में स्नान कीजिए। पर गौतम ऋषि गंगा में स्नान करें, तो कैसे करें? गंगा तो वहां थी ही नहीं।

गौतम ऋषि गंगा को प्रकट करने के लिए भगवान शिव की आराधना करने लगे। गौतम ऋषि के तप, त्याग और आराधना से भगवान शंकर प्रसन्न हुए। वह प्रकट होकर बोले- महामुने, मैं आपकी आराधना से प्रसन्न हूं। बोलिए, आपको क्या चाहिए? गौतम ऋषि ने निवेदन किया– प्रभु, मुझे गौ हत्या का पाप लगा है। कृपा करके मुझे गंगा दीजिए। मैं गंगा में स्नान कर पाप से मुक्त होना चाहता हूं। भगवान शंकर मुस्कुराकर बोले– महामुने, आपको गौ हत्या का पाप नहीं लगा है। आपको छल का शिकार बनाया गया है। जिन्होंने आपके साथ षड्यंत्र किया है, उनका कभी भी कल्याण नहीं होगा। आप कोई और वर मांगें।

गौतम ऋषि ने कहा- प्रभो, जिन्होंने मेरे साथ छल किया है, मैं तो उन्हें अपना परम हितैषी मानता हूं। यदि उन्होंने मेरे साथ वैसा न किया होता, तो आज मुझे आपके दर्शन का सौभाग्य कैसे मिलता? मुझे तो केवल गंगा दीजिए। गौतम ऋषि के त्याग पर भगवान शिव और भी अधिक प्रसन्न हो उठे। उन्होंने कहा- महामुने आप धन्य हैं, जो अपने शत्रुओं को भी अपना हितैषी मान रहे हैं। आपकी इच्छा अवश्य पूरी होगी, गंगा अब अवश्य प्रकट होंगी।

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शिव के इस कथन पर गंगा जी प्रकट होकर बोलीं- मैं जलधारा के रूप में प्रकट होने के लिए तैयार हूं, पर आपको भी मेरे साथ ही रहना पड़ेगा। शिव ने कहा– मैं बिना देवताओं के किसी जगह कैसे रह सकता हूं? गौतम ऋषि ने हाथ जोड़कर निवेदन किया– प्रभो, आप देवाधिदेव हैं। आप जहां रहेंगे, देवता भी वहीं रहेंगे। गौतम ऋषि के कथन पर शिव मुस्कुरा उठे। उनकी मुस्कुराहट के साथ ही साथ देवता वहां उपस्थित होने लगे। देवताओं ने कहा– हम अवश्य यहां रहेंगे। प्रकृति के रूप में निवास करेंगे। भांति-भांति के फूल बनकर खिलेंगे। हरी-हरी फसलों के रूप में लहराएंगे और हरितमा के रूप में चारों ओर छा जाएंगे।

देवताओं के कथन के साथ ही गंगा की जलधारा फूट उठी और ‘हर-हर’ ध्वनी के साथ लहराने लगी। उस जलधारा के प्रभाव से अकाल दूर हो गया। धरती तृप्त हो गई। गौतम ऋषि के तप से प्रकट हुई उस जलधारा का नाम पड़ा गौतमी। कालांतर में गौतमी ही गोदावरी बन गई।

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