संजय तिवारी
काशी/अयोध्या: कलियुग के कालनेमियों से सनातन समाज को सतर्क रहने की आवश्यकता है। अनेक स्वघोषित शंकराचार्य आजकल चर्चा में हैं। इनके बारे में वास्तविक जानकारी नहीं होने से समाज में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो रही है। ऐसे ही एक स्वनामधन्य के बारे में क्रम से प्रमाण सहित जानकारी प्रस्तुत है।जानते हैं इसकी सच्चाई।
22 सितम्बर, 2017 को उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय ने ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य पद पर स्वामी स्वरुपानन्द सरस्वती और स्वामी वासुदेवानन्द सरस्वती, दोनों के दावों को ख़ारिज कर दिया। न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि तीन महीने के अन्दर अन्य पीठों के तीनों शंकराचार्य, वाराणसी स्थित भारत धर्ममहामण्डल और श्रीकाशी विद्वत् परिषद परम्परानुसार ज्योतिष्पीठ पर नया शंकराचार्य नियुक्त करें।
एक ओर पीठ पर पुनः अपना अभिषेक करा कर स्वामी स्वरुपानन्द सरस्वती सर्वोच्च न्यायालय पहुँचे, तो दूसरी तरफ स्वामी वासुदेवानन्द सरस्वती ने उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती दी। इस प्रकार यह विवाद सर्वोच्च न्यायालय पहुँच गया। जहाँ यह अभी भी लम्बित है। इस बीच स्वामी स्वरुपानन्द सरस्वती परमहंसी (मध्य प्रदेश) में ब्रह्मलीन हो गए। गलत उपचार और गुरु को नजरबन्द करने के आरोप अविमुक्तेश्वरानन्द पर लगे।
अविमुक्तेश्वरानन्द ने गुरु को समाधि देने से पूर्व ही अपना पट्टाभिषेक करवाया। एक तरफ गुरु का पार्थिव शरीर पड़ा था। दूसरी तरफ अविमुक्तेश्वरानन्द के पट्टाभिषेक का कार्यक्रम चल रहा था। अविमुक्तेश्वरानन्द ने उत्तराधिकार के सम्बन्ध में एक वसीयत प्रस्तुत की जो कि दस रुपये के स्टाम्प पेपर पर लिखी हुई है और रजिस्ट्रर्ड भी नहीं है। यह वसीयत कथित तौर पर 2014 में लिखी गई थी। मामले के जानकार बताते हैं कि यह वसीयत फर्जी है।
स्वामी स्वरुपानन्द सरस्वती ने अपना उत्तराधिकारी किसी को भी घोषित नहीं किया था। यह स्वामी स्वरुपानन्द सरस्वती द्वारा 22 नवम्बर, 2020 को लिखे गए पत्र और सार्वजनिक वक्तव्य से स्पष्ट है। विरोधियों का दावा है कि स्वामी स्वरुपानन्द सरस्वती के निजी सचिव रहे ब्रह्मचारी सुबुद्धानन्द का यदि नार्को टेस्ट हो जाए तो फर्जी वसीयत की सारी असलियत सामने आ जाएगी। कथित पट्टाभिषेक के बाद अविमुक्तेश्वरानन्द सर्वोच्च न्यायालय पहुँचे। सर्वोच्च न्यायालय से इन्हें मान्यता नहीं मिली। इसके विपरीत न्यायालय ने पट्टाभिषेक पर रोक लगाते हुए अविमुक्तेश्वरानन्द को शंकराचार्य की पदवी का प्रयोग करने से मना कर दिया।
यदि शंकराचार्य के चयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अन्य पीठों के तीनों शंकराचार्य, वाराणसी स्थित भारत धर्ममहामण्डल और श्रीकाशी विद्वत् परिषद् की बात करें तो पुरी शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानन्द को शंकराचार्य नहीं मानते। इस आशय का शपथपत्र पुरी शंकराचार्य ने सर्वोच्च न्यायालय में भी दे रखा है। दूसरे श्रृंगेरी शंकराचार्य इनके पट्टाभिषेक में स्वयं उपस्थित नहीं हुए थे। तीसरे द्वारिका के शंकराचार्य स्वामी सदानन्द सरस्वती अविमुक्तेश्वरानन्द के गुरु भाई हैं। वे भी सर्वमान्य नहीं हैं। जितने आरोप अविमुक्तेश्वरानन्द के ऊपर हैं, एक को छोड़कर वे सारे आरोप स्वामी सदानन्द सरस्वती पर भी हैं।
उच्च न्यायालय द्वारा निर्देशित भारत धर्ममहामण्डल ने अविमुक्तेश्वरानन्द को शंकराचार्य नहीं माना है। श्रीकाशी विद्वत् परिषद् ने भी अविमुक्तेश्वरानन्द के पट्टाभिषेक का समर्थन नहीं किया है। श्रीकाशी विद्वत् परिषद् का कहना है कि वह इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को स्वीकार करेगी। शंकराचार्य परम्परा में मठाम्नाय सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। मठाम्नाय के अनुसार कोई कुलीन ब्राह्मण ही शंकराचार्य के पद पर अभिषिक्त हो सकता है। अविमुक्तेश्वरानन्द इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते। उनके जन्मस्थली के ग्राम प्रधान के अनुसार अविमुक्तेश्वरानन्द कुलीन ब्राह्मण नहीं बल्कि भाँट हैं।
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अविमुक्तेश्वरानन्द एक घोर राजनीतिक व्यक्ति हैं। कांग्रेस के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष अजय राय के साथ मिलकर इन्होंने काशी में हमेशा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोध में षड्यन्त्र किया है। अविमुक्तेश्वरानन्द पर अपने मठ में संस्कृत अध्ययन कर रहे छोटे बच्चों के शोषण और उन्हें भूखा रखने के भी आरोप हैं। सपा के शासन काल में लाठीचार्ज के समय अविमुक्तेश्वरानन्द ने छोटे बच्चों को ढाल के रूप में इस्तेमाल किया था। प्रश्न उठता है कि ऐसे चरित्र का व्यक्ति शंकराचार्य तो छोड़िए क्या सन्त कहलाने के भी लायक है? यह कलियुग का कालनेमि है। भारत के सभी सन्तों और सनातन धर्मावलम्बियों को इसका बहिष्कार कर देना चाहिए।
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