
युद्ध की अनिवार्यता पर फिर बहस चली है। पाकिस्तान के आतंकवाद, हिंसा और आक्रमण ने युद्ध की अनिवार्यता को जन्म दिया है। नरेन्द्र मोदी ने प्रतिकार के अधिकार का प्रयोग किया और पाकिस्तान को सबक सिखाया। पाकिस्तान पर एयर हमला कर आतंकवादी संगठनों और उनके ठिकानों का संहार किया और उनकी हिंसा का उन्हीं की भाषा में जवाब दिया। अब भारत और पाकिस्तान के बीच हिंसा, प्रतिहिंसा ही नहीं बल्कि युद्ध जारी रहेगा। निर्दोष लोगों का खून करने वालों, मानवता का संहार करने वालों, रक्तपिशाचुओं को क्या यह कहने का अधिकार है कि प्रतिहिसा नहीं होनी चाहिए। प्रतिहिंसा और युद्ध में निर्दोष लोगों का खून नहीं होना चाहिए।
बातचीत से विवाद और हिंसा को निपटाया जाना चाहिए? इस्राइल का सिद्धांत है कि हमारा मिसाइल वहीं मार करेगा जहां पर आतंकी रहते हैं, इनके संरक्षणकर्ता रहते हैं। अगर अपने आप को निर्दोष कहने वाले लोग आतंकी को संरक्षण देंगे तो फिर प्रतिहिंसा में उनका संहार भी होगा। इसलिए पाकिस्तान को युद्ध से बचना है तो आतंकी रखना और संरक्षण देना बंद करना होगा।
शांति युद्ध से भी आती है। विभिन्न समस्याओं का समाधान भी युद्ध है। अहिंसा सर्वोपरि सिद्धांत है पर अहिंसा के बल पर सभी समस्याओं और विकृतियों और जटिलताओं का समाधान संभव नहीं है। एक कहावत भी है कि लतखोर के सामने बात की कोई कीमत नहीं होती, लात के भूत बात से नहीं मानते। अगर लतखोर और लात के भूत बात से मान लेते और सभ्य और अहिंसा के पुजारी बन जाते तो फिर थाने-पुलिस की कोई जरूरत ही नहीं होती। सेना रखने की अनिवार्यता ही नहीं होती। जेल बनाने की आवश्यकता ही नहीं होती। दुनिया असभ्य, हिंसक और लतखोर लोगों को नियंत्रित करने के लिए थाने बनायी, जेल बनायी, पुलिस की व्यवस्था बनायी। अपने देश की सुरक्षा के लिए सेना की व्यवस्था बनायी।
दुनिया आज जो शांति का अनुभव करती है, चैन की सांस लेती है, रात में चिंता मुक्त होकर नींद लेती है इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ थाने, पुलिस, सेना और जेल की व्यवस्थाएं हैं, डर है। अगर ये व्यवस्थाएं नहीं होती तो फिर क्या होता? निश्चित मानिये कि दुनिया अराजक हो जाती। अमानवीय हो जाती, कबीले में तब्दील हो जाती, जिसकी लाठी उसकी भैंस में तब्दील हो जाती। कमजोर की कोई आवाज नहीं होती, कमजोर का कोई अधिकार नहीं होता, कमजोर सिर्फ और सिर्फ गुलाम होते। शक्तिशाली के रहमोकरम पर जिंदा रहने के लिए मजबूर होते। सिर्फ बलवान ही राज करते, सभी सुविधाएं बलवानों के हाथों में होती। समानता का अधिकार गौण हो जाता, समानता की बात करने वाले हिंसा की आग में जलकर राख हो जाते।
अहिंसा के सिद्धांत के ऊपर मेरा एक सिद्धांत पर आप देख सकते हैं। मैं अहिंसा को खारिज नहीं कर रहा हूं पर मैं अहिंसक होते हुए भी प्रतिकार की हिंसा को ऊपर रखता हूं। अहिंसा का सिद्धांत सनातन की समृद्धि है, विरासत है, धरोहर है, प्रतीक है। जिसे समय-समय पर विख्यात लोगों ने अपनाया और मार्गदर्शक बनाया। हम यहां दो महापुरुषों को उदाहरण के तौर पर देख सकता हूं। एक महात्मा बुद्ध और दूसरा महात्मा गांधी। अहिंसा परमो धर्मो महात्मा बुद्ध का उपदेश और सिद्धांत है। महात्मा बुद्ध कहते थे कि अहिंसा से बड़ा कोई धर्म नहीं है, अहिंसा से ही मानव कल्याण संभव है, मुक्ति का मार्ग है। पर महात्मा बुद्ध खुद परजीवी थे और प्रैक्टिकली रॉग थे।

मांस हिंसा का प्रतीक होता है, मांस किसी भी जीव की हत्या कर ग्राह बनाया जाता है। महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन काल में भीक्षा के रूप में मांस का भोजन स्वीकार किया था, जिसके स्वरूप उन्हें पेचिश हुई और उनकी मृत्यु हो गयी। उस काल में महात्मा बुद्ध के अहिंसा के सिद्धांत सर्वग्राह बन चुका था। सर्वमान्य बन चुका था, जनता का प्रतीक बन चुका था। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि राज का धर्म भी बन गया। रक्त पिशाचु, घृणा और हिंसा के प्रतीक, आतातयी अशोक ने कलिंग के उपर हमला कर नरसंहार करने के बाद बौद्ध धर्म का अनुआयी और प्रतीक बन गया, बौद्ध धर्म का प्रचारक बन गया। हिंसा और युद्ध के प्रतीक युद्ध से मुंह मोड़ लिया गया, युद्ध को निषेघ घोषित कर दिया गया। युद्ध को मानवता विरोधी घोषित कर दिया गया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि राज सत्ता युद्ध विरोधी हो गयी, सुरक्षा और सम्मान के लिए अनिवार्य सिद्धांत का हनन हुआ। यानी कि सेना की अनिवार्यता समाप्त कर दी गयी।
युद्ध कला विलुप्त हो गयी। युद्ध कला के निपुण लोग संन्यासी बन गये। कभी हिंसक अशोक महान हो गया और बौद्ध धर्म का प्रचारक बन गया। दुष्परिणाम कितना घातक बन गया, इसकी विभीषिका कितनी घातक बन गयी, यह भी देख लीजिये। भारत पर मुगलों का आक्रमण, अन्य विदेशियों का आक्रमण का सिलसिला चल निकला। विदेशी मलेच्छों और आतंकी मानसिकता के रक्तपिशाचुओं से भारत के राजा-महाराजा पराजित होने लगे। कुछ ने युद्ध के पहले ही हथियार डाल दिये तो कुछ ने युद्ध में बिना वीरता दिखाये ही पराजित हो गये। जनता भी युद्ध विरोधी थी, इसलिए विदेशी मलेच्छों के आक्रमण का प्रतिकार करने की वीरता नहीं दिखा सकी।
गिनती के कुछ घुड़सवार मुस्लिम आक्रमणकारी आते हैं और नालंदा विश्वविद्यालय के दस हजार से अधिक छात्रों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। उन्हें गाजर मूली की तरह काट देते हैं। नालंदा विश्वविद्यालय को जला कर राख कर देते हैं। नालंदा विश्वविद्यालय उस समय दुनिया का इकलौता प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था जहां पर दस हजार छात्र गुरुकुल के रूप में शिक्षा ग्रहण करते थे। नालंदा विश्वविद्यालय के छात्र अहिंसा के प्रतीक थे और महात्मा बुद्ध के अनुआयी थे। इन्हें प्रतिकार का सिद्धांत नहीं समझाया गया था, इन्हें हिसंक लोगों से आत्मरक्षा के अधिकार को लेकर शिक्षित नहीं किया गया था। अगर इन्हें आत्मरक्षा में युद्ध के सिद्धांत और प्रतिकार में हिंसा के सिद्धांत को सिखाया गया होता तो ये गाजर मूली की तरह नहीं काटे जाते हैं।
नालंदा विश्वविद्यालय के छात्र कलछूल और गिलास तथा लोटा लेकर भी प्रतिकार के लिए निकल जाते तो फिर गिनती के कुछ घुड़सवार मुस्लिम आतातायी मारे जाते और फिर कभी कोई विदेशी आक्रमणकारी नालंदा विश्वविद्यालय तो क्या भारत की ओर आंख उठा कर देखने के पहले सौ बार सोचने के लिए मजबूर होता। पर बुद्ध के अहिंसा के सिद्धांत ने नालंदा विश्वविद्यालय का विध्वंस कर दिया, संहार कर दिया, नरसंहार कर दिया। मुस्लिम हमलावरों और अंग्रेजों ने जो भारत पर राज किया उसके पीछे महात्मा बुद्ध के अहिंसा का सिद्धांत ही खलनायक है।
महात्मा बुद्ध की फोटो स्टेट कॉपी थे महात्मा गांधी। महात्मा गांधी भी महात्मा बुद्ध की तरह ही अहिंसा के प्रर्वतक थे। हिंसा के खिलाफ थे, अंग्रेजों के खिलाफ हिंसा के विरोधी थे। पर महात्मा गांधी खुद युद्ध विरोधी मानसिकता पर विसंगतियों का पिटारा और दोमुंहा सांप थे। उनकी अहिंसा का सिद्धांत विसंगतियों से भरा पड़ा हुआ था। वह अंग्रेजों के खिलाफ हिंसा का विरोध करते थे पर अंग्रेजों की हिंसा का उन्होंने समर्थन किया था। दूसरे विश्व युद्ध इसका उदाहरण है। दूसरा विश्व युद्ध भी हिसा का उदाहरण था। महात्मा गांधी ने दूसरे विश्व युद्ध में अंग्रेजों का समर्थन किया था और भारतीय सेना को ब्रिटैन की तरफ से दूसरे विश्व युद्ध में शामिल होने का समर्थन दिया था। हिटलर के सामने ब्रिटेन का प्रतिकार कमजोर था और ब्रिटेन पराजित होने के कगार पर था। भारतीय सेना ने ब्रिटेन की तरफ से दूसरे विश्व युद्ध में शामिल होकर अपना सर्वश्रेष्ठ बलिदान दिया था। सबसे बड़ी बात यह है कि भारत की आजादी सिर्फ महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत से नहीं मिली हुई है।

भगत सिंह जैसे हजारों-लाखों भारतीयों के बलिदान से भारत को आजादी मिली थी। अगर हजारों और लाखों का बलिदान नहीं हुआ तो फिर समय पर भारत को आजादी नहीं मिलती। भारत की आजादी के लिए भगत सिंह सहित हजारों और लाखों के बलिदान ने अपनी निर्णायक और जागरुकता वाली भूमिका निभायी थी, जालियाबाग वाला कांड और सरदार उधम सिंह जैसे उदाहरणों ने भी अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए जनमत तैयार किया था, अंग्रेजों के शासन में कील ठोके थे।
इसे भी पढ़ें: पाकिस्तान में एयर डिफेंस फेल, 12 शहरों में ड्रोन हमले से हड़कंप
दूसरे विश्व युद्ध का भी उदाहरण देख लीजिये। अगर अमेरिका ने नागाशाकी और हिरोसिमा पर परमाणु बम की वर्षा नहीं की होती तो फिर हिटलर का समूह पराजित होता क्या? दूसरा विश्व युद्ध समाप्त होता क्या? दुनिया में शांति आती क्या? मानवता का रक्त बहना रुकता क्या? जापान का पराजित होना और रूस में हिटलर का पराजित होना ही वह कारण था जिसमें दूसरे विश्व युद्ध को थामा गया। अगर जापान की पराजय नहीं होती तो फिर हिटलर का भी साहस नहीं डिगता और हिटलर के समूह की हताशा नहीं बढ़ती। फिर ऐसे में इनकी युद्धक मानसिकता जाती नहीं। और भी रक्तपात होता, मानवता का और भी संहार होता। अमेरिकी प्रतिहिंसा ने ही दूसरे विश्व युद्ध से हानि रोकने में भूमिका निभायी थी। पाकिस्तान की युद्धक मानसिकता, आतंकी मानसिकता का भी इलाज प्रतिकार युद्ध है। यही कारण है कि आज पूरा देश नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा है और पाकिस्तान को उसकी हिंसक भाषा में सबक सिखाने के लिए समर्थन कर रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
इसे भी पढ़ें: आपरेशन सिंदूर : जो कहा वो किया