नल और दमयन्ती की कहानी भारत ही नहीं दुनिया में भी चर्चित रही है। दोनों के प्रेम को लेकर जहाँ अनेक कहानियां हैं वहीं कुछ लोग इसे मिथ्या साबित करने की बातें करते हैं। श्रीहर्ष वर्धन कन्नौज के राजा थे। प्रसिद्ध इतिहासकार विल्सन का कहना है कि 1213 ई. में श्रीहर्ष ने रत्नावली नामक नाटिका लिखी थी। श्रीहर्ष राजा होने के साथ ही बहुत अच्छे लेखक थे। उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। उन्हीं के कालखण्ड में वाणभट्ट हुए। जिन्होंने कादम्बरी, हर्षचरित, चन्द्रमा शतक, पार्वती परिणय आदि ग्रन्थ लिखें हैं। कुछ लोग रत्नावली नामक ग्रन्थ के बारे में मानते हैं कि इसे बाणभट्ट ने लिखा किन्तु अपने स्वामी राजा हर्षवर्धन को समर्पित कर दिया था। श्रीहर्ष वर्धन के राज्य के सम्बन्ध में चीन से आये यात्री व्हेनसांग ने बहुत विस्तार से लिखा है। श्रीहर्ष ने ही नल और दमयन्ती की कहानी लिखी थी। नैषधचरित्रम नामक ग्रंथ दो खण्डों में आज भी उपलब्ध है। संस्कृत में लिखा यह ग्रन्थ 1213 ई. के बाद का ही है।
इसी के अनुसार कलष नामक राज्य के राजा थे नल जो अपने पिता के बाद उत्तराधिकारी के रूप में गद्दी पर बैठे थे। विभिन्न इतिहासकार नल और दमयन्ती की कहानी को कल्पना नही मानते। यह वास्तविक घटना मानी जाती है। हालांकि नल और दमयन्ती की कथा का प्रसंग कब का है इसको लेकर अनेक विचार अब तक प्रस्तुत किये जा चुके हैं। इसे महाभारत कालीन माना जाता है। क्योंकि महाभारत में (नलोपाख्यानम) इसका उल्लेख आता है। नल की अनेक विशिष्टताओं के सम्बन्ध में ग्रन्थों में उल्लेख मिलते हैं। नल और दमयन्ती अपने समय के सबसे सुन्दर युवक और युवती थे। स्वयंवर में दमयन्ती ने नल को अपना पति चुन लिया था। उस समय इन्द्र भी उस सभा में गया था। सभी को दरकिनार कर दमयन्ती ने नल को वर रूप में स्वीकार किया था।
नल अद्भुत वीर होने के साथ-साथ बहुत अच्छा सारथी थे। उसके घोड़े बहुत तीव्र गति से दौड़ते थे। नल दमयन्ती के जीवन में किस तरह बाधाएं आयी और वह भयानक संकट में फंस गये यही कथा नैषधचरित्रम काव्य में वर्णित हैं। संस्कृत साहित्य का यह बहुत ही महत्वपूर्ण काव्यग्रन्थ है। जिसकी सानी आज तक नहीं मिलती। विदर्भ-नरेश भीम की पुत्री दमयन्ती का विवाह राजा नल के साथ हुआ था। नल ने धर्मानुसार प्रजा का रंजन करके राजा नाम को सार्थक किया था। उसके रूप-गुण सम्पन्न एक पुत्र और एक सुन्दर पुत्री हुई। जिनका नाम इन्द्रसेन और इन्द्रसेना था। एक दिन नल के कपटी एवं दुष्ट भाई पुष्कर ने नल को जुआ खेलने को निमन्त्रण दिया। दमयन्ती बार-बार इस निमन्त्रण को स्वीकार न करने के लिए पति को समझाती सही। किन्तु द्यूतप्रिय राजा नल ने जुआ खेलने का प्रस्ताव अन्ततः स्वीकार कर ही लिया। पुष्कर उन्हें अपने दांवों में फंसाने लगा। प्रतिदिन द्यूत की बाली चलती। हर दिन नल हारते और पुष्कर जीतता।
हर बार अगले दिन के लिए नल से फिर वचन ले लेता। इस तरह नल अपने भाई पुष्कर के जाल में फंसते चले गये। धीरे-धीरे करके नल से छल के माध्यम से पुष्कर ने सब कुछ हड़प लिया। सारा राजपाट पुष्कर का हो गया। समस्त सम्पत्ति यहां तक की राजसी वस्त्र भी नल को उतार कर देने पड़े। उन्होंने अपनी पत्नी दमयन्ती के जेवर और वस्त्र भी दांव पर लगाये। उन्हें भी हार गया। इधर दमयन्ती ने जब देखा कि उनके पति हर प्रकार न परास्त होकर संकट में घिरते जा रहे हैं तो उसने एक सारथी के साथ अपने पुत्र और पुत्री को राजा भोज के पास कुण्डिनपुर भेज दिया। राजा नल जुए में सब कुछ हारने के बाद साधारण वस्त्र पहनकर अपनी राजधानी छोड़कर जाने के लिए विवश हो गये। उन्होंने दमयन्ती से कहा कि वह अपने पिता विदर्भ नरेश भीम के घर चली जाएं।
दमयन्ती ने कहा कि सुख के समय में आपके साथ रही हूं। अब कष्ट के दिनों में आपको सकेला छोड़कर नहीं जा सकती। आप मेरे स्वामी है। जिस परिस्थिति में आप रहेंगे मैं आपका साथ दूंगी। इसी बीच पुष्कर ने सारे राज्य में डिंढोरा पिटवा दिया कि जो कोई भी नल और दमयन्ती को भोजन या बस्त्र देगा उसके प्राण ले लिये जाएंगे। नल और दमयन्ती को विदर्भ के लोग बड़ी कातर दृष्टि से असहाय होकर देखते रहे। वह चाहते थे कि अपने नरेश और रानी की मदद करें। किन्तु ऐसा नहीं कर सकते थे। पुष्कर की आज्ञानुसार नल को राज्य की सीमा से बाहर जाना था। भूखे प्यासे जंगल की ओर चले गये। कई दिनों तक भूखे रहने के बाद कुछ फल-फूल खिलाकर दमयन्ती ने नल के जीवन की रक्षा की। नल के आग्रह पर दमयन्ती ने भी कुछ फूल और पत्तियां खाई। इसी बीच नल को सुनहरे पंखों वाले सुन्दर पक्षी उड़ते हुए दिखायी दिये। उसने अपने तन का एकमात्र कपड़ा उन्हें पकड़ने के लिए हवा में उछाला। पक्षी उसे भी लेकर चले गये। अब नल पूरी तरह निवस्त्र हो गये थे।
दमयन्ती ने अपने पति को इस हाल में देखकर अपनी साड़ी का एक छोर फाड़ कर पति के तन को ढक दिया। इसी हालत में दोनों भूख प्यास से तड़पते हुए जंगल में भटकते रहे। घने जंगल में दोनों को हिंसक पशु भी मिलते। किन्तु वह भी उनकी दशा देखकर उन पर तरस खाते और बिना कोई हानि पहुंचाए वहाँ से चले जाते। नल ने अपनी सुकुमारी पत्नी दमयन्ती को कष्ट के इन दिनों से निजात पाने की सलाह देते हुए कहा कि वह अपने पिता भीम के घर चली जाएं। बार-बार उनके ऐसा कहने पर दमयन्ती दुखी हो गयीं। उन्होंने कहा कि निश्चित रूप से मेरे कर्तव्य निर्वाह में कोई खोट रह गयी। जिससे आप मुझे अलग करना चाहते हैं। नल ने कहा कि आपको अपनी गलतियों के कारण कष्ट में मैंने डाला है। इसका दण्ड भी मुझे ही भोग चाहिए। इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम मुझे अकेला छोड़ दो। पर दमयन्ती नहीं मानीं और साथ चलती रहीं। अन्ततः एक स्थान पर थक कर नल पेड़ की घनी छाया देखकर जमीन में लेट गये। दमयन्ती भी उनके पैर दबाते हुए वहीं बैठ गयी। कुछ देर बाद नल के आग्रह करने पर दमयन्ती भूमि पर लेट गयी। उसे थकान के कारण गहरी नींद आ गयी। विपत्ति में नल को नीद नहीं आ रही थी। वह अपने पाप के कारण बहुत व्यथित दमयन्ती को गहरी नींद में देखकर उन्होंने सोचा कि यदि मैं इसे छोड़ कर चला जाऊं तो सम्भव है कि यह अपने पिता के घर चली जाएंगी। नल ने ऐसा ही किया।
दमयन्ती को सोता हुआ छोड़कर चुपचाप वहाँ से चले गये। घने वन में अकेली दमयन्ती तब जाग गयीं जब एक सिंह ने दहाड़ लगायी। उन्होंने अपने पास नल को न देखकर बहुत विलाप किया। व्याकुल दमयन्ती इधर-उधर अपने पति को पुकारती हुई दौड़ने लगी। कई दिनों तक वह इसी स्थिति में पति की खोज में लगी रहीं। कहीं मार्ग नहीं सूझ रहा था। चलते-चलते वह और घने वन में घनघोर झाड़ियों में उलझ गयीं। तभी एक अजगर उन्हें खा जाने के लिए आगे बढ़ने लगा। इसी महाकाय जीव को देखकर भी दमयन्ती अपने प्राणों के बजाय पति को पुकारने में लगी रहीं। उन्हें सुध ही नहीं थी कि अजगर उन्हें अपना ग्रास बनाने वाला है। तभी एक शिकारी का ध्यान दमयन्ती की ओर गया। उसने देखा कि एक सुन्दर नारी अजगर का ग्रास बनने वाली है। उसने आगे बढ़कर अजगर को मार डाला। किन्तु तभी उसके मन का दुष्ट भाव दमयन्ती के सुन्दर शरीर को देखकर प्रकट होने लगा। दमयन्ती ने उसको इस रूप में देखकर अत्यन्त व्यथित होकर दोनों हाथ आकाश की ओर उठाकर अपने इष्ट प्रभु से निवेदन किया। –
यद्यहं नैषधादन्यं मनसापि न चिन्तये ।
तथायं पततां क्षुद्रो परासुर्मृगजीवनः ।
यदि मैंने राजा नल के सिवा अन्य पुरुष का स्वप्न में भी चिन्तन नहीं किया हो तो यह मृगजीवी व्याधा (शिकारी) प्राणरहित होकर गिर पड़े। यह कहकर दमयन्ती ने तीक्ष्ण दृष्टि से उसकी ओर देखा, सती दमयन्ती के तेज के प्रभाव से वह दुष्ट तुरन्त भूमि पर गिर कर मर गया। इसके बाद दमयन्ती पति वियोग में व्याकुल होकर पहाड़ों, सरोवर, नदियों, वृक्षों और जंगल के पशु पक्षियों से अपने पति नल का पता पूंछती रहीं। विलाप करतीं हुई सबसे कहतीं कि उन्हें उनके पति से मिला दो। दमयन्ती के दुखों से पशु पक्षी भी द्रवित हो जाते। किन्तु वह उनकी कोई सहायता नहीं कर पा रहे थे। इस प्रकार अनेक कष्ट सहती हुई दमयन्ती राजा चेदि के देश में पहुंच गयीं। यहां उनकी मौसी राजमाता के रूप में रहती थीं।
उधर दमयन्ती के पिता राजा भीम को नल दमयन्ती के ऊपर हुए इस ब्रजपात की खबर मिली। उन्होंने दोनों की खोज के लिए अनेक लोगों को सभी दिशाओं में भेजा। सुदेव नाम का एक व्यक्ति चेदि देश पहुंचा और उसने दमयन्ती को पहचान लिया। राजमाता की आज्ञा लेकर दमयन्ती अपने पिता के घर आ गयी और अपने पति की खोज में ब्राह्मणों को भेजकर रात दिन उनके वियोग के दुख से जलती हुई उनकी प्रतीक्षा करने लगी और अन्त में जब उसे पर्णाद नामक एक ब्राह्मण के द्वारा पता लगा कि राजा नल बाहुक नाम रखकर सारथी के रूप में छिपकर अयोध्यापति राजा ऋतुपर्ण के यहाँ रहते हैं तो उसने पुनः स्वयंवर के बहाने राजा ऋतुपर्ण के साथ नल को भी बुलवा लिया और उन्हें अच्छी तरह पहचान कर उनके साथ कुछ दिन अपने पिता के यहाँ सुख पूर्वक रही। फिर राजा नल ने पुष्कर को जुए में हराकर अपना राज्य वापस लिया और दमयन्ती के साथ रहकर राज्य करने लगे।
ऋतुपर्ण अयोध्या का राजा था। वह बहुत बड़ा गणितज्ञ था। संकट के समय में शरण लेने के लिए नल अयोध्या पहुंचे थे। यह जानकारी दमयन्ती को हुई तो उनके स्वयंवर की रचना इसी आशय से की गयी कि यदि वहाँ नल होंगे तो वह निश्चित रूप से स्वयंवर के लिए आएंगे। स्वयंवर में अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण को निमंत्रण मिला था। पहुँचने का समय कम रखा गया था। ऐसा इसीलिए किया गया था यदि उनके सारथी के रूप में वास्तव में नल रह रहे हैं तभी वह ऋतुपर्ण को लेकर इतने कम समय में स्वयंवर के लिए पहुंच पाएंगे। ऐसा ही हुआ। निमंत्रण पाकर ऋतुपर्ण ने कहा कि ऐसे स्वयंवर में मैं भी जाना चाहता हूं। किन्तु समय इतना कम है कि पहुंचा नहीं जा सकता। नल को अनुमान हो गया था कि यह स्वयंवर दमयन्ती द्वारा उनकी खोज के लिए आमंत्रित किया गया है।
इसलिए नल ने ऋतुपर्ण से कहा कि मैं आपको लेकर रथ से वहाँ पहुंचा सकता हूं। मार्ग में जब तीव्र गति से ऋतुपर्ण का रथ हांकते नल जा रहे थे तब महान गणितज्ञ ऋतुपर्ण ने एक वृक्ष को देखते ही उसके पत्तों की संख्या बता दी। नल ने कहा कि यह कैसे हो सकता है। आप इतनी जल्दी इसमें लगे पत्तों की संख्या बता दें। ऋतुपर्ण ने कहा कि चाहो तो कभी परीक्षा ले लेना। मेरी गणित सही है। किन्तु इस समय हम रुक नहीं सकते। इसलिए तुम्हें पुष्टि नहीं करा सकते। नल ने कहा कि पुष्टि करके भी मैं समय से आपको पहुंचा दूंगा। उसने रथ रोक दिया और सारे पत्तों की गिनती की। जो सही निकला। बाद में नल ने सही समय पर स्वयंवर स्थल पर ऋतुपर्ण का रथ पहुंचा दिया। यहाँ दमयन्ती ने नल को देखते ही पहिचान लिया। इस तरह एक बार फिर दोनों एक हो गये। ऋतुपर्ण ने ही नल को गणित के सूत्र सिखाकर बता दिया था कि कैसे उसे द्यूतक्रीडा में हराया गया होगा। वह सभी दांव ऋतुपर्ण ने नल को सिखा दिये। जिनके आधार पर नल ने बाद में पुष्कर को हरा दिया और अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया।
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इस कहानी में अन्य अनेक प्रसंग ग्रन्थ में बड़े ही रोचक ढंग से देये गये हैं। निश्चित रूप से यह कहानी एक दम्पत्ति के प्रेम की अनूठी कथा है। जिसको पूरी दुनिया में विभिन्न भाषाओं में अनुदित किया गया । चीन, जापान, इण्डोनेशिया, थाईलैण्ड, बर्मा जैसे देशों में तो इस कहानी के अनेक प्रसंग किवदन्तियों में प्रचलित हैं। अंग्रेजी, जर्मन और यूरोप की प्रायः सभी भाषाओं में नल दमयन्ती की कहानी के अनुवाद मिलते हैं। हिन्दी और पंजाबी भाषी राज्यों हरियाणा, राजस्थान तथा पंजाब में होलिका दहन के उपरान्त विवाहित महिलाएं नल दमयन्ती की कहानी नवदम्पत्तियों को सुनाती हैं। माना जाता है कि इससे दोनों का प्रेम बढ़ता है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र सहित दक्षिण के सभी राज्यों में नल दमयन्ती की कहानी विविध रूपों में मिलती है।
कविवर रहीम ने एक बड़ा सुन्दर पद लिखा है –
रहिमन दुर्दिन के पड़े बड़ेन किये बहु काज।
पांच रूप पाण्डव भये रथ वाहक नलराज ।।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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