मुझे चुनाव आयोग (Election Commission) पर तरस आता है, कि वो ‘डिज़िटल इण्डिया’ को लेकर प्रधानमंत्री के इतने प्रयासों के बाद भी डिज़िटल नहीं हो सका। गोया चुनाव-आयोग में सामयिक गतिशीलता नहीं। उसके अधिकारी निरा सुस्त हैं। काम-धाम और शिक्षा आदिक के सन्दर्भों में अपने निर्वाचन-क्षेत्रों से दूर बैठे प्रवासी-वोटरों की सुविधा के लिए आयोग ने अब तक कोई भी ठोस प्रयास नहीं किये हैं, जिससे ऐसे प्रवासियों को अपने मतदान के अधिकार का प्रयोग करने में सहूलियत मिल सके और लगभग सम्पूर्ण-मतदान के साथ लोकतंत्र में पूर्णता आये। वरना, एक बड़े प्रतिशत के बग़ैर लोकतंत्र एकांगी/लँगड़ा ही रहेगा।
लिहाज़ा, लोकतंत्र को लँगड़ा होने से बचाने के लिए प्रवासी-वोटरों की चिंता आयोग को करनी चाहिए और अतिशीघ्र इस दिशा में कोई ठोस अभ्यास भी किया जाये। हास्यास्पद तो यह और है, कि चुनाव-आयोग मतदान हेतु जागरुकता के जो कार्यक्रम चलाता है, वह उनके ही बीच चलाता है, जो अपने निर्वाचन-क्षेत्र में उपस्थित होते हैं और लगभग हर हाल में वोट करने भी जाते हैं! फिर यहाँ जागरुकता के कम-से-कम अब क्या मायने! केवल खानापूर्ति।
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वास्तव में, जागरुकता की ज़रूरत प्रवासी-वोटरों केलिए है। इस गंभीर विषय के लिए भी आयोग के पास कोई डिज़िटल सेवा-विकल्प नहीं है। ग़ज़ब है डिज़िटल इण्डिया या फिर डिज़िटल इण्डिया केवल फोन-पे और गूगल-पे तक ही सीमित है। अच्छा, ये प्रवासी-वोटर भी कम नहीं हैं। किसी-किसी को तो बेशक अति-आवश्यकता होती है। लेकिन बहुत से मक्कार और कर्तव्यपरायणता के बोध से सूखे होते हैं। मतदान करने को अपनी टू-डू लिस्ट में जगह तक नहीं देते, प्रयास करना तो कोसों दूर की बात है। कुछ ऐसा हाल है डिज़िटल इण्डिया का और इससे बेहाल है दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र।
(लेखक स्तम्भकार हैं)
(यह लेखक के निजी विचार है)
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