भारत में वामपंथी कम्युनिस्ट संगठनों का पदार्पण रूस और चीन की क्रान्तियों से प्रभावित रहा है। वामपंथी विचारधारा के प्रति लगाव के कारण 1920 में भारत के वाममार्गी झुकाव के कुछ नेताओं द्वारा मास्को से तार जोड़ने शुरू किये गये थे। हालांकि उस समय लेनिन के कम्युनिस्ट आन्दोलन के नायकों ने भारत के ऐसे नेताओं की चेष्टा पर बहुत ध्यान नहीं दिया था। कारण स्पष्ट था कि उस समय रूस के नेता अपनी देश की परिस्थितियों पर नियन्त्रण पाने पर अधिक ध्यान दे रहे थे।
भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन को पहली सफलता केरल में मिली। जहां ईएमएस नम्बूदरीपाद 05 अप्रैल 1957 को कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री बने थे। नंबूदरीपाद की सरकार को केन्द्र की नेहरू सरकार ने बढ़ती लोकप्रियता और वामपंथ के केरल के साथ ही देश के दूसरे राज्यों में प्रसार की संभावना को देखते हुए 1959 में संविधान की धारा-356 का इस्तेमाल करके अपदस्थ कर दिया था। इस बात से नम्बूदरीपाद अन्त समय तक क्षुब्ध रहे।
केरल में नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में यह पहली वामपंथी सरकार थी। 1967 में नम्बूदरीपाद दूसरी बार केरल के मुख्यमंत्री बने। इस बार भी उनका कार्यकाल दो साल का ही रहा। नम्बूदरीपाद 1957 में जब केरल के सीएम बने थे, तब तक दुनिया में सिर्फ एक और जगह रिपब्लिक ऑफ सान मैरिनो में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार थी।
भारत में इस समय कम्युनिस्ट पार्टियों के अनेक धड़े हैं। इन सभी के बीच बाह्य रूप से सामन्जस्य दिखाने का प्रयत्न किया जाता है। जबकि वस्तुत: जितनी आपसी टकराहट वाम दलों के बीच है, उतनी किसी एक विचारधार में नहीं दिखायी देती। पश्चिम बंगाल में लम्बे समय तक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और फारवर्ड ब्लॉक के साथ कुछ और छोटे संगठन सत्ता में बने रहे। अन्तत: इनका जनाधार ऐसा टूटा कि वापसी की सम्भावनाएं धरी रह गयीं।
बंगाल में अब कांग्रेस से छिटकर ममता बनर्जी अपनी तृणमूल कांग्रेस के दम पर सत्ता में हैं। उनकी शैली भी मूलत: कांग्रेसी न होकर वाम दलों की है। जोर, जबरदस्ती और हिंसा से न तो कम्युनिस्ट पार्टियों ने कभी परहेज किया और न ही ममता बनर्जी को कोई हिचक होती है। इसका लाभ पाकर बंगाल में बड़े पैमाने पर बांग्लादेश की ओर से मुसलिम घुसपैठ के रूप में देखा जा सकता है।
पश्चिम बंगाल जिसे अब बंगाल कहा जाता है। उसमें 23 जिले हैं, इनमें नौ जिले बांग्लादेशी घुसपैठ के कारण मुसलिम बहुल हो गये हैं। आगामी कुछ वर्षों में 13 जिलों पर यह संकट हावी हो जाएगा। वामपंथी और तृणमूल कांग्रेस की तरह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता भी मुसलिम घुसपैठ को अनुचित नहीं ठहराते। केन्द्र की भाजपा सरकार द्वारा नागरिकता विधान लाये जाने का विरोध वाम दलों के साथ ममता और कांग्रेस तीनों समान रूप से कर रहे हैं। नीतियों में यह साम्य स्वभाविक रूप से राजनीतिक आचरण में परिलक्षित होता है। तीनों राजनीतिक दल एक मंच पर खड़े दिखायी देते हैं। भले ही सत्ता की भागीदारी इनके बीच तभी संभव होती है, जब तीनों अकेले बहुमत लाने में असमर्थ रहे हों।
भारत की पहली वामपंथी सरकार को कांग्रेस के पहले प्रधानमंत्री ने बर्खास्त किया था। यह पीड़ा अब वामपंथी दल भूल चुके हैं। केरल में कांग्रेस और वामपंथी दल परस्पर प्रतिद्वन्दी बने हुए हैं। जबकि देश के अन्य भागों में इनके बीच राजनीतिक साम्य खुलकर दिखता है। भाजपा के विरुद्ध हर मोर्चे पर वाम दल और कांग्रेस मिलकर लड़ते हैं। दोनों की नीतियों में कोई भेद अब नहीं रह गया। यहां तक कि जम्मू कश्मीर जैसे संवेदनशील राज्य में जब पाकिस्तान प्रेरित अलगाववादी उत्पात मचा रहे थे, तो दिल्ली के जवाहरलाल यूनिवर्सिटी में भारत के टुकड़े करने के नारे लगाने वाले छात्र समूह का समर्थन वाम दलों और कांग्रेस के नेताओं ने मिलकर किया था। इतना ही नहीं कुछ आतंकवादियों को भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दण्डित किये जाने पर उनके समर्थन में नारेबाजी करने और वक्तव्य देने के लिए दोनों राजनीतिक दलों के अग्रणी नेता खुलकर सामने आए। भारत में वामपंथी और कांग्रेस जैसे सबसे पुराने और बड़े राजनीतिक दलों के बीच यह वैचारिक समानता निकट भविष्य में नहीं उपजी। जवाहरलाल नेहरू ने भले नम्बूदरीपाद को बर्खास्त करके वाम दलों से राजनीतिक रार मोल ले ली थी, किन्तु उसके बाद भारत-चीन युद्ध के समय नेहरू का दृष्टिकोण कम्युनिस्ट नेताओं के प्रति झुकाव के कारण सभी के लिए आश्चर्यजनक रहा।
नेहरू की नीतियों के कारण चीन की सेनाएं भारत के 80 हजार वर्ग किमी से अधिक भूमि पर चढ़ायी करके अपने नियन्त्रण में लेने में सफल हो गयीं। उस समय नेहरू के रक्षा मन्त्री से लेकर मन्त्रिमण्डल के कई सदस्य वाममार्गी रुझान के थे। इस तरह नेहरू और उनकी कांग्रेस पार्टी की नीतियों को प्रभावित करने में वामपंथी विचारधारा का महत्वपूर्ण हस्तक्षेप रहा है। वाममार्गी नेता धर्मनिरपेक्षता का ढिढौरा पीट कर देश में इस्लामीकरण और ईसाईकरण को प्रश्रय देते हैं। कांग्रेस का भी यही प्रमुख रुझान है। इन दोनों वैचारिक दलों की इस निकटता के चलते बहुत से क्षेत्रीय दल सेक्युलरिज्म की ओढ़नी ओढ़कर सनातन हिन्दू संस्कृति के प्रबल विरोधी बनकर अपनी राजनीति सफल करने में लगे रहते हैं। वाम दलों ने नेहरू के बाद इन्दिरा गांधी का समर्थन पाने में सफलता अर्जित की। प्रकटत: प्रतिद्वंद्वी बनकर भी दोनों ने एक दूसरे का हाथ परस्पर थामे रखा।
इन्दिरा के जाने के बाद राजीव गांधी-सोनिया से लेकर मनमोहन और अब राहुल-प्रियंका के साथ वाम दलों की दुरभि सन्धि किसी से छिपी नहीं है। दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में कांग्रेस के विरुद्ध आन्दोलन चला। केजरीवाल पर आरोप लगा कि वह शहरी नक्सलवाद का संस्करण हैं। शुरू में दोनों दलों की ओर से प्रतिवाद किया गया। अब इन दोनों की राजनीतिक सहभागिता सबके लिए दर्पण बनी हुई है।
भारत में विचारधाराओं का संकट नहीं है। राजनीतिक दल अनेक हैं। पर वस्तुत: धड़े बट चुके हैं। एक ओर सेक्युलरिज्म के नाम पर मुसलिम लीग और कई अन्य कट्टरपन्थी, मजहबी रिलीजियस और सम्प्रदायवादी संगठन कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों को भाते हैं। इन सभी का मूल उद्देश्य हिन्दूवादी संगठनों, भारत की प्राचीन सनातन संस्कृति, इतिहास और भाषा का विरोध करना होता है। ऐसे दल और वैचारिक संगठन यह मानते हैं कि यदि भारत से सनातन हिन्दू संस्कृति, संस्कृत और हिन्दी भाषा तथा इसके ग्रन्थों और इतिहास को नष्ट कर दिया जाय तो इस देश को मनचाहे ढंग से तोड़ा मरोड़ा जा सकता है। इसीलिए सेक्युलरवादी संगठन भारत में हिन्दुओं के मतान्तरण अर्थात हिन्दुओं की जनसंख्या को कम करने पर ध्यान केन्द्रित रखते हैं। इसके प्रमाण यह हैं कि भारत के जिस भूभाग में हिन्दुओं की जनसंख्या घटती है, वहां अलगाववाद का नारा प्रचण्ड हो जाता है। जब कभी हिन्दू संगठनों द्वारा इसके विरुद्ध कार्रवाई की बात की जाती है, तो सारे हिन्दू विरोधी संगठन मुखर होकर विरोध करने लगते हैं।
विश्व में किसी रिलीजन, मजहब या पन्थ की पूजा पद्धति, उसकी भाषा और ग्रन्थों पर कोई आपत्ति नहीं करता। पर भारत में हिन्दू विरोधी संगठनों के निशाने पर हिन्दू धर्म की पूजा पद्धति, देवी-देवता और ग्रन्थ सदा से बने हुए हैं। ऐसे संगठनों को लगता है कि हिन्दुओं का विरोध करने से ईसाई व मुसलिम संगठन प्रसन्न होंगे। इससे उन्हें राजनीतिक लाभ अर्जित करना आसान होगा।
भारत में हिन्दुओं का सबसे बड़ा संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक वर्ष बाद अपनी सौवीं वर्षगांठ 2025 में मनाने वाला है। यह एक ऐसा संगठन है जो पूरी तरह गैर राजनीतिक है। लगभग 40 सहयोगी संगठनों के माध्यम से देश की सर्वांग सेवा के व्रत से जुड़ा है। इतने लम्बे कार्यकाल में इस संगठन ने कभी राजनीति प्रश्रय प्राप्त नहीं किया। कभी सरकारों से आर्थिक सहायता नहीं ली। वित्त पोषण के उपाय संगठन के स्वयंसेवकों (सदस्यों) की दक्षिणा से पूरे किये जाते हैं। संगठन के कार्य का संचालन पूरी तरह पूर्ण कालिक कार्यकर्ताओं के साथ ही निश्चित अवधि के लिए समय देने वाले प्रचारकों के माध्यम से होता है। गृहस्थ कार्यकर्ता, विद्यार्थी संगठन की गतिविधियों से अनवरत जुड़े रहते हैं। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अलग से संगठनों की संरचना है। इतनी सुदृढ़ व्यवस्था संघ ने बना ली है कि सहज किसी प्रकार के गतिरोध की सम्भावना उत्पन्न नहीं होती।
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राजनीतिक विद्वेष रखने वाले दलों का सामना संघ के स्वयंसेवकों के द्वारा 1952 में गठित किये गये राजनीतिक दल (पहले जनसंघ अब भाजपा) के कार्यकर्ता और नेता करते हैं। भारत को एक सशक्त राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित रखना संघ का मूल उद्देश्य है। संघ जब राष्ट्र शब्द का प्रयोग करता है, तो उसका तात्पर्य सनातन संस्कृति के आधार पर सांस्कृतिक राष्ट्र से होता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की यही परिभाषा संघ के विरोधी दलों को खटकती है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जितना प्रबल होगा उतना ही भारत में हिन्दू राष्ट्रवाद की धारणा प्रकट होगी। हिन्दू राष्ट्रवाद जैसे शब्द का उच्चारण राजनीतिक आखेटक संघ की विचारधारा की निन्दा करने के लिए करते हैं। संघ मानता है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का तात्पर्य स्पष्ट है कि हिन्दू किसी का दमन नहीं चाहता। किन्तु जो मजहबी अथवा रिलीजियस उन्मादी यह कहते हैं कि हिन्दुओं को मिटाकर हम अपनी सोच का राष्ट्र बनाएंगे। तो संघ कहता है कि ऐसे लोगों को अपनी चेतना का परिमार्जन करना चाहिए।
भारत के सनातनी हिन्दू अपने आप को संकट के भंवर से उबारकर लाने में सफल हुए हैं। इसलिए हर किसी को इस राष्ट्र की नींव तोड़ने की चेष्टा छोड़ देनी चाहिए। यही वर्तमान युग का सत्य है। संघ भारत में सर्वांग स्वतन्त्रता का पक्षधर रहा है। इसका तात्पर्य यह है कि केवल राजनीतिक स्वतन्त्र ही नहीं अपितु भाषा संस्कृति और इतिहास के साथ आर्थिक और तकनीकी उन्नति के लिए भी भारत को आत्म निर्भर तथा सशक्त बनाना लक्ष्य होना चाहिए। भारतीय स्वाभिमान की रक्षा के लिए हर सम्भव प्रयत्न किये जाने चाहिए। पराभव और दासता जैसे शब्द भारतीयों पर लागू नहीं होते। इसके लिए हर भारतीय का समर्थ और स्वाभिमानी होना नितान्त आवश्यक है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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