
लगभग सात दशक पूर्व पुरानी हिंदी निखरकर अपने वर्तमान रूप में आ चुकी थी। वैसे, उस समय दैनिक ‘भारत’ में मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी विश्वम्भरनाथ जिज्जाजी थे, जिनकी उस समय सत्तर वर्ष अवस्था थी। वह हिंदी एवं हिंदी पत्रकारिता से आरंभिककाल से जुड़े हुए थे। उन्होंने हिंदी की पहली कहानी भी लिखी थी। जिज्जाजी जबतब पुरानी हिंदी इस्तेमाल किया करते थे। जैसे कि अब हिंदी में लिखा जा रहा था- ‘वहां कुछ व्यक्ति खड़े हैं’, किंतु जिज्जाजी लिखते थे- ‘वहां कुछ मनुष्य खड़े हैं।’
दैनिक ‘भारत’ का उत्तर प्रदेश ही नहीं, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार आदि अन्य राज्यों में भी व्यापक प्रसार था तथा नित्य ‘भारत’ के कई संस्करण प्रकाशित होते थे। समाचार संपादक रामकिशोर मालवीय प्रत्येक संस्करण की हर पंक्ति को बारीकी से पढ़कर संशोधन किया करते थे। जिज्जाजी चूंकि बहुत वरिष्ठ थे, इसलिए कोई उनसे कुछ कहता नहीं था। मालवीय जी हर संस्करण को पढ़ते हुए जिज्जाजी के लिखे ‘मनुष्य’ को ‘व्यक्ति’ कर दिया करते थे।
जब मैं ‘भारत’ के संपादकीय परिवार में सम्मिलित हुआ तो मुझे बताया गया कि टकसाली हिंदी का प्रयोग करना होगा। मैं हिंदी में पहले से पारंगत था तथा उसकी कई शैलियों में लिख लेता था। जहां आवश्यकता होती थी, साहित्यकार शिवानी की तरह संस्कृतनिष्ठ हिंदी में लिखता था तथा जब आवश्यकता होती थी तो उर्दूदां वाली शैली में लिखता था। प्रचलित टकसाली हिंदी का प्रयोग तो किया ही करता था।
टकसाली हिंदी का अर्थ था प्रचलित सरल हिंदी। तब अखबारों में आज की तरह भाषा की स्वच्छंदता नहीं होती थी। उस समय भाषा पर बहुत ध्यान दिया जाता था। हिदी के मामले में हमारे संविधान में यह सूत्र निर्धारित है कि सर्वप्रथम हिंदी के अपने प्रचलित शब्दों को प्रयुक्त किया जाय। यदि अपने शब्द कहीं अपर्याप्त हो रहे हों तो संस्कृत से शब्द ग्रहण किये जाएं। यदि फिर भी आवश्यकता हो तो अन्य भारतीय भाषाओं से शब्द लिए जाएं। मैं इस सूत्र का अनुयायी पहले से था।
अपने को प्रगतिशील सिद्ध करने के चक्कर में कुछ लोग कहा करते हैं कि हमें खिड़कियां और दरवाजे खुले रखने चाहिए, ताकि हम बाहर से आने वाले शब्दों को हिंदी में अपनाते रहें। इस संबंध में लोग अंग्रेजी का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि अंग्रेजी में बाहरी शब्दों को खुलकर अपनाया जाता है। पहली बात तो यह है कि अंग्रेजी भाषा का अपना कुछ है ही नहीं, बल्कि सबकुछ अन्य भाषाओं से ग्रहण किया गया है। ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के साथ अंग्रेजी सर्वत्र थोप दी गई थी, अन्यथा विश्व में लैटिन और फ्रेंच भाषाओं का ही वर्चस्व था। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि ऐसा कहना गलत है कि अंग्रेजी में बाहरी शब्दों को खुलकर ग्रहण किया जाता है। अंग्रेजी शब्दकोशों में बहुत सीमित संख्या में हिन्दी शब्दों को स्थान मिलता है। लोग भूल जाते हैं कि अनावश्यक रूप से खिड़की-दरवाजे खुले रखने पर कूड़ा-करकट भी भीतर घुस आता है। जब हमारे पास ‘मेज-कुरसी’ प्रचलित शब्द हैं तो फिर हम ‘टेबुल-चेयर’ का इस्तेमाल क्यों करें!

मेरे एक मित्र थे गोपीकृष्ण ‘गोपेश’ वह प्रसिद्ध रचनाकार थे। उस समय ‘एक्जेक्यूटिव इंजीनियर’ के लिए अधिशासी अभियंता लिखा जाना शुरू हुआ था। एक दिन गोपीकृष्ण ‘गोपेश’ ने मुंह बनाकर अधिशासी अभियंता शब्द का विरोध किया था। मैंने उसी समय उत्तर में ‘एक्जेक्यूटिव इंजीनियर’ शब्द का मुंह बनाकर उच्चारण करते हुए उनकी बात काटी थी। आज अधिशासी अभियंता ही नहीं, अधीक्षण अभियंता शब्द भी खूब प्रचलित हो गए हैं। हालांकि कुछ अखबारों में अभी भी इनके अंग्रेजी नाम लिखे जा रहे हैं। इसका मूल कारण है कर्तव्य एवं दायित्य के बोध का अभाव।
हिंदी पत्रकारिता के पितामह बाबूराव विष्णु पराड़कर हिंदी के महान शिल्पी थे। वह मराठीभाषी थे, किंतु उन्होंने ‘लोकसभा’, ‘राज्यसभा’ आदि बहुतेरे नए शब्दों की रचना कर उन्हें प्रचलित किया। दैनिक ‘भारत’ में भी भाषा का ध्यान रखा जाता था। टकसाली हिंदी के प्रयोग का यह आशय था कि अंग्रेजी आदि के जो शब्द घिसकर हिंदी में सामान्य रूप से बहुत प्रचलित हैं, उन्हें ग्रहण कर लिया जाय, जैसे-कुली, रेल आदि। ‘लैंटर्न’ का हिंदी में रूप ‘लालटेन’ बन चुका है तो उसे प्रयोग किया जाय। इस संबंध में हमारे प्रधान संपादक शंकर दयालु श्रीवास्तव संपादकीय विभाग से कभी-कभी चर्चा किया करते थे।
जहां तक हिंदी की समृदिृध की बात है हिंदी में लाखों प्रचलित ऐसे शब्द हैं, जिन्हें अभी तक हिंदी के शब्दकोशों में स्थान नहीं प्राप्त हुआ है। उस समय साम्प्रदायिक दंगे बहुत होते थे, जिनके कारण शहरों में अकसर कर्फ्यू लगते थे। एक बार संपादकीय विभाग में चर्चा हुई कि कर्फ्यू के लिए हिंदी में क्या शब्द लिखा जाय। कई सुझाव आए। कुछ ने ‘घरबंदी’ शब्द का सुझाव दिया। लेकिन अंततः तय हुआ कि कर्फ्यू शब्द घिसकर हिंदी में बहुत प्रचलित हो चुका है, इसलिए उसे ही प्रयुक्त किया जाय। आजकल हिंदी अखबारों में भाषा का पहलू सर्वाधिक उपेक्षित है। हिंदी के अपने प्रचलित शब्दों के बजाय अंग्रेजी के शब्दों का अनावश्यक रूप से जिस धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है, उससे हिंदी के ‘हिंग्लिश’ बन जाने के बुरे भविष्य का खतरा है।
मैं इस मामले में बहुत सतर्क रहता था और सदैव हिंदी के अपने शब्दों को प्राथमिकता देता था। यदि आवश्यकता समझता था तो उनके साथ कोष्ठक में अंग्रेजी शब्द लिख देता था। मेरी मान्यता थी कि इस्तेमाल करने से ही शब्द प्रचलित होंगे। आज सड़कों के नाम बदले जाते हैं, किंतु प्रचलन में पुराने नाम ही रहते हैं। अखबारों में भी सड़कों के वे पुराने नाम लिखे जाते हैं। मैं ‘भारत’ में परिवर्तित नाम लिखा करता था तथा कोष्ठक में पुराना नाम लिख दिया करता था। इस प्रकार धीरे-धीरे नया नाम प्रचलित हो जाता था तथा लोग पुराना नाम भूल जाते थे।
प्रयागराज में एक सड़क का नाम ‘हीवेट रोड’ बहुत प्रचलित था, किंतु अपने फारमूले का इस्तेमाल करके मैंने नया नाम ‘विवेकानंद मार्ग’ खूब प्रचलित कर दिया था। अल्फ्रेड पार्क का नाम मैंने ‘चंद्रषेखर पार्क’ प्रचलित किया। ऐसे तमाम नए नामों को मैंने लोकप्रिय बनाया था। चूंकि अब पत्रकारिता वस्तुतः केवल नौकरी होकर रह गई है, इसलिए पत्रकारों के लिए ‘कर्तव्य’ एवं ‘दायित्व’ का महत्व नहीं रह गया है।
‘कर्तव्य’ एवं ‘दायित्व’ का बोध न रह जाने के कारण ही पत्रकारों की नई पीढ़ी ‘भाव’, ‘अभिव्यक्ति’ के मामले में तो बहुत श्रेष्ठ है, किंतु भाषा के मामले में बड़ी तेजी से पिछड़ रही है। नई पीढ़ी के पत्रकारों में सबसे बड़ी कमी यह है कि वे कुछ सीखना नहीं चाहते हैं। प्रायः वे इतना अहंकारग्रस्त होते हैं कि यदि कोई उन्हें अच्छी बात बताए तो उनको बुरी लगती है। एक बहुत ही उच्चकोटि पत्रकार हैं और बेहद अच्छा लिखते हैं। तीन दशक से अधिक समय हो गया, एक बार मैंने उनकी भाषा में व्याकरण की एक अशुद्धि बताई थी। किंतु उन्होंने सुधार नहीं किया और अभी भी उनके लिखने में वह अशुद्धि विद्यमान है।
इसे भी पढ़ें: वन्देमातरम के 150 वर्ष: राष्ट्र भूमि की चेतना का स्वर
पुराने समय में पत्रकारिता के शिक्षण-संस्थान नहीं होते थे, बल्कि नए पत्रकार को पुराने पत्रकारों के कठोर नियंत्रण से गुजरना पड़ता था, जिससे वे खरा सोना बनकर निकलते थे। अब पत्रकारिता का प्रशिक्षण देने के लिए जो संस्थान बने हैं, उनके पाठ्यक्रम लगभग पूर्णरूपेण निरर्थक होते हैं और वहां घिसीपिटी पढ़ाई होती है। मैंने लखनऊ विश्वविद्यालय एवं अन्यत्र पत्रकारिता के घिेसेपिटे अध्ययन को नया कलेवर देने के कई बार सुझाव दिए, लेकिन किसी ने रुचि नहीं ली। एक बार नई पीढ़ी के कुछ पत्रकारों ने मेरी बातों के उत्तर में जब यह कहा-‘हमें सिर्फ अपने वेतन से मतलब है, आदर्श से नहीं’ तो मैं उनकी बात सुनकर सन्न रह गया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
इसे भी पढ़ें: वस्त्र विन्यास और वेशभूषा से कोई स्त्री साध्वी नहीं हो सकती