Satya Prakash Tripathi
सत्य प्रकाश त्रिपाठी “गंभीर”

आंधिया चाहे उठाओ,
बिजलियां चाहे गिराओ,
जल गया है दीप तो,
अंधियार ढलकर ही रहेगा।

रोशनी पूंजी नहीं है,
जो तिजोरी में समाए,
वह खिलौना भी न,
जिसका दाम हर ग्राहक लगाए।
वह पसीने की हँसी है,
वह शहीदों की उमर है,
जो नया सूरज उगाए,
जब तड़पकर तिलमिलाए।
उग रही लौ को न टोको,
ज्योति के रथ को न रोको,
यह सुबह का दूत है,
हर तम को निगल कर ही रहेगा,
जल गया है दीप तो,
अंधियार ढलकर ही रहेगा।

दीप कैसा हो कहीं हो,
सूर्य का अवतार है वह,
धूप में कुछ भी न किन्तु,
तम में पहरेदार है वह,
दूर से तो एक ही,
बस फूंक का वह है तमाशा,
देह से छू जाय तो फिर, विप्लवी अंगार है वह,
व्यर्थ है किवाड़ गढना,
लाख लाख किवाड़ जड़ना,
मृतिका के हाथ में अमृत,
मचलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो,
अंधियार ढलकर ही रहेगा।

है जवानी तो हवा हर एक, घूँघट खोलती है,
टोक दो तो आंधियो की, बोलियों में बोलती है।
वह नहीं कानून जाने,
वह नहीं प्रतिबंध माने,
वह पहाड़ों पर बदलियो,
सी उछलती बोलती है।
जाल का चांदी लपेटो,
खून का सौदा समेटो,
आदमी हर कैद से,
बाहर निकलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढलकर ही रहेगा ।

वक्त को जिसने न समझा,
उसे मिटाना पड़ा है,
बच गया तलवार से तो,
फूल से काटना पड़ा है,
क्यो न कितनी ही बडी हो ,
क्यों न कितनी ही कठिन हो,
हर नदी की राह से,
चट्टान को हटना पड़ा है,
उस सुबह से संधि कर लो,
उस सुबह से माँग भर लो,
है जगा इन्सान तो मौसम, बदल कर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार, ढलकर ही रहेगा।।

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