Vasco da Gama: पुर्तगाल के रहने वाले वास्को डी गामा (Vasco da Gama) द्वारा भारत की खोज की कहानी में जानबूझ कर बहुत से झूठे तथ्य पिरोये गये हैं। वास्को को महिमा मण्डित करने के लिए वास्तविक कहानी छिपायी जाती है। उसने अपने आप भारत पहुँचने के मार्ग की खोज नहीं की थी। अपितु पुर्तगाल के लिस्बन से चलकर अफ्रीका के मलिन्दी बन्दरगाह पर थककर चूर हो चुका था। निराशा की स्थिति में पुर्तगाल लौट जाना चाहता था। तभी उसकी भेंट भारत से मसालों की खेप लेकर अफ्रीका पहुँचे एक नाविक से हुई। इनका नाम कानजी भाई मालम था। वास्को डी गामा (Vasco da Gama) बहुत देर तक कानजी भाई मालम के जहाज को देखता रहा, जो तीन मन्जिला था। जबकि वास्को और अन्य यूरोपीय व्यापारियों के जहाज एक मन्जिला ही थे। बड़ा साहस करके उसने कानजी भाई से उनका परिचय पूछा। यह जानकर कि कानजी भाई भारत से आये हैं उसकी जिज्ञासा बढ़ गयी। उसने साहस करके एक सहायता मांगी। यही कि क्या वह अपने साथ उसे भारत तक चलने की अनुमति देंगे। कानजी भाई ने सम्मति दे दी। इस तरह वास्को डी गामा (Vasco da Gama) भारतीय नाविक कानजी भाई की कृपा से भारत के कांझीकोट जिले के कालीकट बन्दरगाह तक पहुँच पाया।
अंग्रेज और पुर्तगाली इतिहासकारों ने कानजी भाई के नाम को सिरे से उड़ा दिया। वास्को डी गामा (Vasco da Gama) को इन सभी इतिहासकारों के साथ भारतीय वामपन्थी इतिहासकारों ने भी यह श्रेय दे डाला कि उसने ही यूरोप से भारत आने का समुद्री मार्ग खोज निकाला। अफ्रीका के जिस मलिन्दी बन्दरगाह पर वास्को अपने चार जहाजों के साथ लंगर डाले खड़ा था वहाँ कानजी भाई का विराट जहाज पहुँचा तो उसे देखकर उसके सभी साथी हतप्रभ रह गये। वास्को के जहाज नहीं नौकाएं थीं। जो आकार में सामान्य नौकाओं से बड़ी तो थीं किन्तु भार वहन करने की क्षमता में भरतीय जहाजों से बहुत न्यून थीं। साथ ही गहरे समुद्री रास्तों में विशाल लहरों में टिक नहीं पाती थीं।
कानजी भाई के जहाज के पीछे जब वास्को ने अपनी नौकाएं लगायीं तो उसमें से तीन रास्ते में टूटकर डूब गयीं। अन्तिम नौका को कानजी भाई ने अपने जहाज के साथ इस तरह सम्बद्ध कराया कि गन्तव्य तक पहुँच सकी। इस तरह कानजी भाई के उपकार से वास्को डी गामा भारतीय तट को स्पर्श करने में सफल रहा। वह 20 मई 1498 को भारतीय तट पर पहुँचा था। इसे पुर्तगाली ही नहीं पूरे यूरोपीय लोग भारत को खोजने की बात कह कर उत्सव मनाते हैं। वास्को डी गामा को पश्चिमी देशों के कुछ इतिहासकार समुद्री लुटेरा भी बताते रहे हैं। जिसे फ्रान्स के सैनिकों ने पकड़ा था। उसका पिता राजा का एक कर्मचारी था। इसलिए वास्को को राजा ने कहा कि यदि वह भारत पहुँचने का समुद्री मार्ग पता कर लेगा तो उसे पुरस्कृत किया जाएगा। अन्यथा कड़ा दण्ड मिलेगा।
अफ्रीका के मलिन्दी बन्दगाह पर वास्को ने कानजी भाई और उनके साथियों को देखकर अचरज मानते हुए सोचा था कि यह भी कोई समुद्री लुटेरे होंगे। कानजी भाई के जहाज पर आक्रामक कुत्ते थे। जो तनिक इशारे पर किसी का भी काम खत्म कर सकते थे। घातक हथियारों वाले रक्षक थे। कानजी भाई सहित सभी ने चमड़े के वस्त्र पहन रखे थे। वर्षा और लहरों से बचाव के लिए सुदृढ़ व्यवस्था थी। जहाज का संचालन तीव्र गति से करने के लिए पाल कई स्तर के थे। जो हवाओं के विपरीत रुख को भी सहेज लेते थे। ऐसे जहाज वास्को ने पहली बार देखे थे। उसके मन में भय था कि कानजी भाई और उसके साथी मार्ग में उसकी हत्या कर सकते हैं। बहुत साहस करके उसने कानजी भाई से सहायता मांगी थी। यह ऐसा कालखण्ड था जब खाड़ी के देशों और अफ्रीका के मुसलिम व्यापारी भारत से माल लाने ले जाने पर एकाधिकार कर चुके थे।
यूरोप से आने वाले जहाजों को अफ्रीका से आगे जाने नहीं देते थे। भारत का माल अफ्रीका से आगे मुसलिम व्यापारी अपने जहाजों से भेजकर अच्छी कमायी करते थे। पुर्तगाल, फ्रान्स, इंग्लैण्ड, नीदरलैण्ड आदि की माल ढोने वाली कम्पनियां मुस्लिम व्यापारियों के समक्ष असहाय हो जाती थीं। इसीलिए वास्को डी गामा की सफलता पर इन सभी देशों ने प्रसन्नता प्रकट की। इसी के बाद इन देशों ने अपनी-अपनी ईस्ट इण्डिया कम्पनियां बनायीं और भारत में व्यापार के साथ तेजी से घुसपैठ प्राराम्भ की। ब्रिटेन ने बाजी मारी उसने यहां के शासन तन्त्र को अशक्त देखकर पाँव जमाने शुरू किये।
कालीकट पहुँचने पर स्थानीय राजा जामोरिन सामुदिरी ने गामा के दल का स्वागत किया। वहाँ पर राज-दरबार में आने से पहले वास्को डी गामा को एक मन्दिर मिला जहाँ अंदर में उसे एक देवी की मूर्ति दिखी। पुर्तागलियों को लगा कि ये मरियम की मूर्ति है। उसे भरोसा हो गया कि ज़मोरिन एक ईसाई शासक है। वो मूर्ति शायद मरियम्मा देवी की होगी। जिसे वो ईसामसीह की माँ मरियम समझ रहे थे। डी गामा के साथ आये एक चतुर व्यक्ति ने जामोरिन का स्वागत करते हुए भांप लिया कि यह ईसाई नहीं है। उसने बाद में लिखा- “इस देश के लोग भूरे हैं। छोटे कद के और पहले देखने से ईर्ष्यालु और मतलबी लगते हैं। मर्द कमर के ऊपर कुछ नहीं पहनते। केवल निचला कपड़ा पहनते हैं। (धोती या वेष्टी)। कुछ बाल बड़े रखते हैं जबकि कई सिर मुण्डवा लेते हैं। महिलाएँ सामान्यतया सुन्दर नहीं दिखतीं। फर्नाओ मार्टिन्स ने ज़ामोरिन से भेंट में गामा की बातों का अरबी भाषा में अनुवाद किया था।
दरबार में मुस्लिम सलाहकारों ने उसे व्यापार की बात करने में कई अड़चने पैदा की। उन्होंने गामा के लाये उपहार की खिल्ली उड़ायी। उसे राजा से मिलाने में देरी की। इसके अतिरिक्त उसके पास राजा (सामुदिरी) के लिए उचित कोई उपहार भी नहीं था। ऐसे कारणों से वास्को डी गामा की ज़मोरिन से लड़ाई हो गयी। सामुदिरी यानि ज़ामोरिन के मुसलिम मंत्रियों ने उससे (अलग में) व्यापार का कर मांगा। ज़ामोरिन ने डी गामा के द्वारा आग्रह किये गये स्तम्भ (क्रॉस और मरियम की मूर्ति) को भी खड़ा करवाने से मना कर दिया। सुलह और फिर लड़ाई चलती रही। राजा के मंत्रियों ने उसके दल के कई लोगों को अगवा कर लिया। लेकिन समुद्र में उनके जहाज पर आये ग्राहकों को गामा ने बन्दी बना लिया। अन्त में उसे जाने की अनुमति मिली और अगस्त के अन्त में वास्को अपने देश रवाना हुआ। राजा ने उसको मलयालम में लिखा प्रशस्ति पत्र भी दिया। जिसमें पुर्तगाल के राजा जॉन के नाम सन्देश था कि वॉस्को यहाँ आया था।
वास्को के भारत से चलने के अगले ही दिन कोई 70 अरबी जहाज वहाँ आक्रमण के लिए आते दिखे। इसके जवाब में उसने गोली-बारी की। कुछ भारतीय बन्धकों के साथ सितम्बर 1498 में वापस पुर्तगाल के लिए लौट गया। राजा जामोलिन के साथ धोखा करके वास्को कुछ भारतीयों को अपने साथ पकड़ ले गया। उन्हें वह भारत पहुँचने के प्रमाण के तौर पर ले जा रहा था। जनवरी में वह स्वाहिली तट पर दोबारा पहुँचा था।
भारत के विद्यार्थियों से जब पूछा जाता है कि भारत को समुद्री रास्ते से खोजने वाला पहला यूरोपियन कौन था? तो इतिहास के छद्म तथ्यों के आधार पर उत्तर यही मिलता है कि वास्को डी गामा। पर यह असत्य है। यूरोप से भारत के लिए समुद्री रास्ता खोजने निकले इस पुर्तगाली नाविक वास्को डी गामा को भारत का रास्ता बताने वाला एक गुजराती था।
कानजी से वास्को डी गामा की हुई मुलाकात
आठ जुलाई 1497 को वास्को डी गामा चार जहाजों और 170 नाविकों को लेकर पुर्तगाल के लिस्बन नगर से निकला था। रास्ते में अरब और अफ्रीकी व्यापारियों का सामना करते हुए वह 22 अप्रैल 1498 को ईस्ट अफ्रीका के मलिन्दी बंदरगाह पहुँचा था। यहां पर उसकी भेंट गुजरात के कच्छ के व्यापारी कानजी मालम से हुई थी। कानजी भाई नियमित रूप से समुद्री मार्ग से अफ्रीका की यात्रा करते थे। वही वास्को डी गामा को 20 मई 1498 को भारत के कालीकट बन्दरगाह तक लाये थे।
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भारत-यूरोप का व्यापार जमीनी रास्ते से होता था। परन्तु अरबियों ने इस्तांबूल के पास का रास्ता बन्द कर दिया था। इससे यूरोपीय व्यापारी दूसरे रास्ते की खोज में लगे थे। कई यूरोपीय भारत के समुद्री रास्ते को खोजने के लिए बार बार निकले। पर या तो अरब और अफ्रीकी व्यापारियों के भेजे आक्रामकों द्वारा मारे गये या फिर किसी तरह भाग गये। इसमें वास्को डी गामा कानजी भाई के कारण सफल रहा।
वास्को को कानजी भाई ने पहुंचाया भारत
वर्ष 2010 में कच्छ माण्डवी में इतिहासकारों का तीन दिवसीय विश्वस्तरीय सम्मेलन हुआ। जिसे नाम दिया गया, गुजरात और समुद्र (Gujarat and the sea) इस सम्मेलन में इतिहासकार मकरन्द मेहता ने स्पष्ट किया कि कानजी भाई मालम एक सामान्य नाविक नहीं अपितु समुद्रवेत्ता थे। जिन्हें सामुद्रिक परिस्थितियों की अच्छी जानकारी थी। उन्होंने ही वास्को डी गामा को कालीकट तक पहुँचाया था। इससे प्रसन्न होकर गामा ने उन्हें पुर्तगाल आने का निमंत्रण दिया था।) पुर्तगाल के राजा की ओर से भी बाद में कानजी भाई मालम को प्रशास्ति पत्र के साथ उपहार भेजा। कानजी भाई ने इस उपहार को गुजरात के सामुद्रिक यात्रा से सम्बन्धित एक वरिष्ठ अधिकारी को सौंपते हुए कहा था कि समुद्र की यात्राओं का ज्ञान मुझे भारत ने दिलाया है। इसलिए यह उपहार मेरे लिए नहीं देश के लिए है। कानजी भाई ने बिना अपने देश की सरकार की अनुमति के पुर्तगाल या किसी अन्य देश जाने से भी मना कर दिया था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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