डॉक्टर भूपेन्द्र सिंह

वक़्फ़ मामले में भाजपा और उसके सहयोगियों के आक्रामकता से यह स्पष्ट हो गया है कि जैसे देश में नेहरूवियन पॉलिटिक्स का एक कालखंड था बिल्कुल वैसे ही अब देश में मोदी पॉलिटिक्स का कालखंड आ चुका है। यदि मैं नेहरू के बारे में सब बातों को भुलाकर लिखना चाहूँ तो नेहरू कुल मिलाकर उज्जवल भविष्य के बारे में देखना सुनना चाहते थे। लेकिन मोदी का काल स्वर्णिम अतीत और उज्ज्वल भविष्य का है।

नेहरू यह समझने में नाकाम रहे कि बिना आधार के समाज का आगे बढ़ना मुश्किल है अथवा तुरंत हज़ार साल के गुलामी से निकले हिंदू समाज के भीतर उतना आत्मविश्वास ही नहीं था जहाँ वह अपने अतीत के बारे में कुछ अच्छा खोजने का साहस जुटा पाये। इसलिए वह अतीत पर मिट्टी डालना चाहते थे। वह पोलिटिकल इस्लाम को भी चैलेंज नहीं करना चाहते थे और जैसे तैसे देश धीमी गति से लोकतंत्र की तरफ़ आगे बढ़े केवल उस पर फोकस होना चाहते थे। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि उन्होंने हिंदू समाज के उस एलीट क्लास को महत्व दिया जिसने यूरोप देखा था। जिस कारण वह उन कुरीतियों से वाक़िफ़ थे जिसे उस समय का सनातनी किताबी समाज बड़ा अच्छा समझता था। लेकिन इसका साइड इफ़ेक्ट यह हुआ कि इस सेक्युलरिज्म के अति ने हिंदू समाज के आत्मविश्वास को भी कमज़ोर कर दिया। जबकि कुछ ही समय पहले देश को हिंसा की आग में झोंकने वाले जेहादी ताक़तों से इतना भयभीत रहे कि जिनके सुधार की सबसे अधिक आवश्यकता थी उन्हीं को मनमानी और मनबढ़ई करने के लिए छोड़ दिए।

नरेंद्र मोदी की राजनीति ने यह संतुलन स्थापित किया है। वह उस ऊँचाई को सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आधार दे रहे हैं जो हिंदू समाज के सतत विकास के लिए बहुत ही आवश्यक तत्व है। सब बातों के बावजूद यह तो पूरी दुनिया को स्वीकार करना ही होगा हमारी संस्कृति सबसे पुरानी सतत संस्कृति है और पॉलिटिकल इस्लाम और ईसाइयत को झेलते हुए भी थोड़ा छोटा ही सही लेकिन खड़ी है। नेहरू की कुछ अच्छाइयों के बावजूद जो दो प्रमुख कमियाँ थी, मोदी ने उन दोनों को छुआ है अर्थात् हिंदुओं को सांस्कृतिक ऐतिहासिक आधार देना और पॉलिटिकल इस्लाम में सुधार लाना।

हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि आज हिंदू समाज में जो भी आत्मविश्वास है और उसके पोलिटिकल लीडरशिप में जो दृढ़ता दिखाई दे रही है, उसके पीछे हिंदू महासभा और विशेष रूप से वीर सावरकर के राजनीतिक और साहित्यिक हिंदुत्व एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय हिंदुत्व की अहम भूमिका है। नरेंद्र मोदी ने उस भूमिका को नेतृत्व प्रदान करके स्पष्ट दिशा प्रदान की है। अभी भाजपा और कांग्रेस के बीच का जो अंतर है कुछ एक डिग्री का है लेकिन जैसे जैसे समय की दूरी तय होती जाएगी यह थोड़ा सा एंगल बहुत बड़े दूरी में तब्दील होता दिखेगा।

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कांग्रेस के बारे में मैंने पूर्व में भी लिखा है कि कांग्रेस मूलतः संवैधानिक राष्ट्रवादी है जबकि भाजपा सांस्कृतिक राष्ट्रवादी है। कांग्रेस के नज़र में यह राष्ट्र सन 1947 में संविधान बनने से पैदा हुआ और भाजपा मानती है कि यह देश हज़ारों सालों से है। 1947 इस राष्ट्रजीवन का एक पड़ाव भर है। यह मूलभूत अंतर आज इतना बढ़ चुका है कि जितना अंतर आज़ादी के समय कांग्रेस और मुस्लिम लीग में था आज़ उतना अंतर भाजपा और कांग्रेस में स्पष्ट हो रहा है। कांग्रेस के नैरेटिव में अब समस्या खड़ी हो रही है, हिंदू समाज अब सन 47 के पीछे जा रहा है जहाँ कांग्रेस नैरेटिव विहीन है और उसके नैरेटिव का एकमात्र ठेका भाजपा और मोदी के पास है। इसलिए राजनीति अगले दो पीढ़ी तक मोदी युग की रहेगी। नेहरू युग समाप्त हो चुका है।

(लेखक सामाजिक चिंतक हैं।)

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