Narendra Bhadoria
नरेन्द्र भदौरिया

दूसरों से दुर्व्यवहार करते या पीड़ा पहुँचाते आपने भी किसी न किसी को देखा होगा। उन पलों में आपकी अन्तस् चेतना में विप्लव की भावना उठी तो होगी। पर ऐसा सम्भवतः नहीं हुआ होगा कि आप कुछ बोलते, चिल्लाते या फिर सीधे प्रतिरोध पर उतर पाते। उन पलों की स्मृतियाँ आज भी मन को कभी न कभी कचोटती तो होंगी। दूसरों को पीड़ा देने के अवसर आपके स्वयं के जीवन में कभी न आये हों तो निश्चित रूप से आप एक सुधीजन हैं।

पीड़ित व्यक्ति हमारा कोई सगा नहीं था। इसलिए हमारा बोलना अनिवार्य भी नहीं था। यह तर्क बहुत कुछ हमारा बचाव करता है। कोई ऐसा भी रहा होगा जो हमारा सगा या मित्र था। पर हमारे न्याय प्रिय मन ने तर्क दिया होगा कि उसे स्वयं लड़ना या अपना बचाव करते आना चाहिए। यह परिस्थिति भी हो सकती है कि मुझे लगा हो कि ऐसे निगोड़े व्यक्ति के लिए अपनी शक्ति और पहुँच का दुरुपयोग हम क्यों करें। इस तरह आँखें मीच कर हम रह गये होंगे।

पीड़ा छोटी हो या बड़ी कोई अन्तर नहीं पड़ता। ऐसी पीड़ा जो हमारे या किसी के मान को भंग करती है, वह असह्य होने के साथ स्मृति में बस जाती है। ऐसी पीड़ा के समय जब कभी किसी के हाथ सहायता के लिए उठते हैं तो पूरे तन मन की शक्ति बढ़ जाती है। प्रकट रूप से ऐसे अनुभव से हम सभी कभी न कभी परिचित हुए होंगे।

सामाजिक जीवन में किसी व्यक्ति के अपमानित होने की घटनाओं की तरह देश धर्म के अपमान की घटनाएं भी दिखायी देती हैं। देश धर्म के मान मर्दन की बातों से हम प्रायः अपने को अलग करने के अभ्यस्त हो गये हैं। अपनी आन-बान से आगे देखना प्राय: निरर्थक लगता है। देश-धर्म की पीड़ा हमारे जीवन का अंग नहीं है। तो फिर यह काम किसका है। समाज में ऐसे गुटों, पन्थों और सम्प्रदायों की भरमार है जो दूसरों की मान्यताओं को आघात पहुँचाने के अभ्यस्त हो चुके हैं। अपने आस-पास की ऐसी बातों पर हम कुछ नहीं कर पाते तो बोलना, चिल्लाना, लिखना या उत्पाती लोगों का विरोध करने वाले संगठनों और समाज के सुधीजनों के साथ खड़े होने के दायित्व से पीछा क्यों छुड़ाते हैं। उत्पीड़न करने वाले हमारे देश और समाज के ऐसे नागरिक हैं जो सहिष्णुता का अर्थ नहीं समझते। सच तो यह है कि सहिष्णु लोगों के विरुद्ध अभियान चलाकर आत्मतुष्टि और स्वार्थ सिद्धि करते हैं।

पीड़ित व्यक्ति या समाज के संग खड़े होकर अपनी चिन्ता प्रकट करना हमारा धर्म बनता है। आज किसी के साथ जो अन्याय हो रहा है वह हमारे साथ भी हो सकता है। कई बार न्याय पूर्ण बातों पर सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों का व्यवहार अनिच्छा पूर्ण और दुखद होता है। सरकारी तन्त्र यह आकलन करने लग जाता है कि उत्पीड़न करने वाला सशक्त तो नहीं है। उत्पीड़नकर्ता के सशक्त होने पर पीड़ित से अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी सहिष्णुता का व्याप बढ़ाये। ऐसे में अन्यायी विजयी बनकर अपना डंका पीटने लगता है। तो क्या हम उस पीड़ित की चेतना के साथ खड़े नहीं हो सकते। जो लोग ऐसा सोचते भी हैं उनके परिवार के लोग उन्हें समझाने लग जाते हैं कि दूसरे के सिर का बोझ अपने सिर पर क्यों लेना चाहते हो। जब आग की लपटें तुम्हारे द्वार तक नहीं आयीं तो पानी की बाल्टी उठाकर क्यों उतावले हो।

यह तर्क सही है कि सरकारी तन्त्र के पास अपने अनैतिक आचरण, भ्रष्टाचार और दुर्व्यवहार के प्रति जन मानस के आक्रोश और उनके विरोध को कुचलने के अनगिनत कवच होते हैं। अधीनस्थ के दुराचरण के विरोध को अधिकारी क्यों संरक्षण देता है, इसका सटीक उत्तर हम आप सब जानते हैं। यही कि वह अधिकारी उन्हीं कर्मचारियों के द्वारा की गयी उगाही से अपनी झोली भरता है। उनके समक्ष आने वाली बाधाओं को भला वह नहीं तो कौन दूर करेगा। चाहे जैसा मुख्यमंत्री या मंत्री जनता के मतों से जीतकर उच्चासन पर बैठ जाय कोई गारण्टी वह जनता को नहीं दे सकता कि अधिकारी और कर्मचारी उसके अनुरूप जन भावनाओं का आदर करेंगे। यह बात एक बार नहीं बहुत बार भारतीय लोकतन्त्र की कार्यपालिका के तन्त्र ने सिद्ध की है कि बिरले अधिकारियों और कर्मचारियों में पवित्र आचरण का आग्रह होता है। ऐसे सज्जन अधिकारी और कर्मचारी विलुप्त होते जा रहे हैं। भारतीय लोकतन्त्र का यह दुर्भाग्य जनमानस के लिए बड़ी त्रासदी बनता जा रहा है। कार्यपालिका और विधायिका दोनों के प्रति जनमानस में विश्वास और भरोसे का अभाव खटकने वाली बात है।

सरकारी तन्त्र को दोष देने भर से बात नहीं बनेगी। जनमानस में सभी पावन आचरण के अभ्यस्त होते तो भी क्या सरकारी तन्त्र की निर्ममता के उदाहरण सामने आते। यह प्रश्न निरर्थक नहीं है। सामाजिक चेतना में स्वार्थ अपराध बनकर घुल चुका है। यह ऐसा रोग है जिसका समाधान किसी के पास नहीं है। सामाजिक संस्कारों की बात बेमानी हो चुकी है। परिवारों के आन्तरिक स्वरूप में छिद्र ही छिद्र दिखायी पड़ रहे हैं। हर कोई अपने आंसुओं को छिपाता फिर रहा है। समृद्धि और सम्पन्नता से लदी कोठियों के भीतर का हाल उतना ही दुखदायी है जितना कि गलियों में बसे लोगों के घरौंदों का है। आखिर यह परिस्थितियां इतनी जटिल क्यों हैं। जिनका समाधान परिवार नहीं कर पा रहे हैं। स्वार्थ सिद्धि और समृद्धि के मायने बदलते जा रहे हैं। सुखी रहने की होड़ में कोई अहंकार से टूटता वृक्ष बन चुका है तो कोई इतना अन्तरमुखी है कि दूसरों की पीड़ा उसे दिखायी ही नहीं पड़ती।

तो क्या दुख देने वाले लुटेरों और पर पीड़ा से सुख की अनुभूति करने वालों को ललकारा नहीं जा सकता। क्या ऐसे दुर्दान्त लोगों और समूहों को घेर कर इतनी प्रताड़ना नहीं दी जा सकती कि वह सही रास्ते पर नहीं चलेंगे तो उन्हें सामाजिक या सरकारी दण्ड का सामना करना पड़ेगा। इस प्रश्न में ही समाधान की एक रेखा दिखायी पड़ती है। आधुनिक सामाजिक तन्त्र में यह सामथर्य नहीं रह गया कि किसी अन्यायी और अधार्मिक व्यक्ति को सामाजिक दण्ड दिलाया जा सके। प्राचीन सामाजिक व्यवस्था का सबसे सहज, आकर्षक और लावण्यमय स्वरूप यही था कि अन्यायी को समाज दण्डित कर सकता था। सरकारों ने जब से सामाजिक व्यवस्था में अपनी टाँग फंसायी तब से उन्मुक्त और उद्दण्ड लोगों का प्राबल्य सर्वत्र दिखायी पड़ने लगा।

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तो क्या हम सब नकारात्मकता में जीने के लिए विवश हैं। यदि सरकारी तन्त्र स्वयं पंगु और नाकारा बनता जा रहा है तो अब न्याय की गुहार करने के लिए उद्दण्डों के कवीलों के मुखिया की चरण वन्दना करनी पड़ेगी। सम्भवत: इसी परिस्थिति में समाज के भीतर अपराधी समूहों की बहुलता दिखायी पड़ती है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में एक योगी का प्रादुर्भाव हुआ। ऐसे योगी ने अन्यायी समूहों के विरुद्ध अभियान चलाकर समाज और देश की रक्षा का व्रत लिया। इसके अच्छे परिणाम देखकर देशभर में ऐसे शासकों की मांग बढ़ने लगी। तो भी निखट्टे सरकारी तन्त्र के निर्मोही लोगों के दाँत खट्टे करने वाले शासक की चाह धरी रह गयी। यह विचारणीय है कि शासकीय स्वभाव किसी परिस्थिति में बदलता क्यों नहीं। ऐसे अधिकारियों और कर्मचारियों को समाज वरण्य तो मानता है जो दूसरों की पीड़ा का अनुचित लाभ उठाने से बचते हैं। किन्तु ऐसे लोगों की संख्या बहुत न्यून है। इसीलिए यह भाव प्रबल होते जा रहे हैं कि सामाजिक और सरकारी अन्याय के समाधान के लिए कुछ होना चाहिए। प्रथमत: अन्याय के विरुद्ध बोलने, लिखने, चिल्लाने का अभ्यास बढ़ना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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