आचार्य संजय तिवारी
आचार्य संजय तिवारी

मनुष्य की यात्रा सृष्टि के साथ ही चल रही है। इस यात्रा में सभ्यताएं विकसित होती हैं, परिभाषाएं गढ़ती हैं और समाप्त भी हो जाती हैं। सृष्टि के साथ ही उपजा अविकृत शेष सनातन तत्व बचा रहता है। यह शेष ही धर्म है, यही वह सनातन है। यह इसका धर्म है। यह धर्म पश्चिम का रिलिजन नहीं है। धर्म का अनुवाद अक्सर “कर्तव्य”, “धर्म” या “धार्मिक कर्तव्य” के रूप में किया जाता है, लेकिन इसका अर्थ गहरा है।

यह शब्द संस्कृत मूल “धृ” (धृ) से आया है जिसका अर्थ है “बनाए रखना” या “वह जो किसी चीज़ का अभिन्न अंग है” (उदाहरण के लिए, चीनी का धर्म मीठा होना है, आग का गर्म होना)। किसी व्यक्ति के धर्म में ऐसे कर्तव्य शामिल होते हैं जो उसकी जन्मजात विशेषताओं के अनुसार उसे बनाए रखते हैं जो आध्यात्मिक और भौतिक दोनों हैं, जिससे दो संगत प्रकार उत्पन्न होते हैं।

प्रथम संगत है सनातन-धर्म- अर्थात आत्मा के रूप में अपनी आध्यात्मिक (संवैधानिक) पहचान के अनुसार किए जाने वाले कर्तव्य और इस प्रकार सभी के लिए समान हैं। सामान्य कर्तव्यों में ईमानदारी, प्राणियों को घात पहुँचाने से बचना, पवित्रता, सद्भावना, दया, धैर्य, सहनशीलता, आत्म-संयम, उदारता और तप जैसे गुण शामिल हैं।

द्वितीय संगत है वर्णाश्रम-धर्म अर्थात स्वधर्म- इसमें किसी व्यक्ति की भौतिक (शर्त) प्रकृति के अनुसार किए जाने वाले कर्तव्य और उस विशेष समय में व्यक्ति के लिए विशिष्ट होते हैं। सनातन-धर्म के साथ टकराव होने पर व्यक्ति के अपने वर्ग या वर्ण और जीवन के चरण के अनुसार उसके “अपने कर्तव्य” को जीतना चाहिए (उदाहरण के लिए, भगवद गीता में बताए अनुसार एक योद्धा दूसरों को घायल करता है)।

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ये प्रथम और द्वितीय संगत मिल कर एक संस्कृति की रचना करते हैं जिससे जीवन के संचालन की व्यवस्था निर्मित होती है। यही व्यवस्था सनातन संस्कृति अथवा सनातन जीवन संस्कृति का निर्माण कर इसको शाश्वत स्वरूप प्रदान करती है। सृष्टि के आरम्भ से अब तक की इसकी यात्रा ऐसी ही है। सनातन-धर्म की धारणा के अनुसार , जीवात्मा (आत्मा) की शाश्वत और आंतरिक प्रवृत्ति सेवा करना है। सनातन-धर्म, पारलौकिक होने के कारण, सार्वभौमिक और स्वयंसिद्ध कानूनों को संदर्भित करता है जो हमारी अस्थायी विश्वास प्रणालियों से परे हैं। ।।जय सियाराम।।

(लेखक संस्कृति पर्व पत्रिका के संपादक हैं।)

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